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जिसे जानते हैं क्या पहचानते भी हैं

यह बहुत सुखद हुआ कि मेरा कम्प्यूटर अंग्रेजी में हो गया। अब मैं कम से कम कमाण्ड तो समझ सकती हूँ। आज 5 नवम्बर है और दीवाली है। अश्गाबात में सुबह के सात बज रहे हैं। मन तो नहीं लगता लेकिन लगाने की कोशिश कर रही हूँ। यहाँ आकर मुझे अपने को जानने का भी अवसर मिला है। नए सिरे से मैंने अपने को पहचाना है। कई बार रोजमर्रा की भागदौड़ में अपने आप को हम भूले हुए ही होते हैं, कबीर ने जिस आपे और माया की बात की थी वह कितना अबूझ है इस पर तो भक्त कवि ही बहुत लिख गए हैं। पहचान क्या है। या जिसे हम आत्म पहचान कहते हैं वह क्या है। हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं –हमें कोई नहीं पहचानता, हमारे मन को कोई नहीं जानता, कभी धमकी के स्वर में कि मैं क्या चीज हूँ वो मुझे जानता नहीं है तो कभी दुख के स्वर में कि लोग मुझे पहचान नहीं पाए कि मैं क्या हीरा हूँ। या किसी ने मुझे समझने की कोशिश ही नहीं की। लेकिन समझना – अपने को या दूसरे को इतना आसान है क्या। दूसरे की छोड़िए अपने को भी तो समझने की प्रक्रिया से हम भागते ही रहते हैं। हम कितने दावे करते हैं अपने बारे में कि मैं ऐसा हूँ या वैसी हूँ। लेकिन तमाम दावों के बावजूद हम अपने