आत्मकथा का शिल्प और दलित-स्त्री आत्मकथाः दोहरा अभिशाप -सुधा सिंह


       21 वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण विधा आत्मकथा है। इसमें बड़ी संख्या में स्त्रियों की आत्मकथाएँ शामिल हैं। आत्मकथा का जो पुराना ढांचा था वह इस दौर में टूटा। अभिव्यक्ति, शिल्प सभी स्तरों पर इस दौर की आत्मकथा पहले के प्रयासों से अलग है। आत्मकथा के संबंध में साहित्यिक धारणा यह थी कि आत्मकथा उसी की होनी चाहिए जिसने जीवन के किसी क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की हो। यह उपलब्धि चाहे सामाजिक हो, राजनीतिक या साहित्यिक। जाहिर है कि ऐसी उपलब्धियों को हासिल करने का मौक़ा आसानी से स्त्री को नहीं मिलता। यही कारण है कि बहुत कम स्त्रियों ने नब्बे के दशक के पहले अपनी आत्मकथा लिखी। किसी क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कर या कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर आत्मकथा लिखने के बजाए आत्मकथा सामान्य उपलब्धियों की भी हो सकती है अथवा कहें कि आत्मकथा लेखन भी एक उपलब्धि हो सकती है, इस तरह नहीं सोचा गया था। यानि आत्मकथा लेखन के प्रति नजरिया 90 के दशक के बाद आमूल चूल बदलता है। आरंभ में आत्मकथा लेखन पुरूष विधा रही थी लेकिन अब यह स्त्री विधा बनती है। सबसे दिलचस्प चीज कि आत्मकथा लेखन की सहज आत्मीय शैली स्त्री रचनाकारों के लिए अपनाना आसान है। सहज संवादात्मक बातचीत की शैली और आत्मीयतापूर्ण लेखन स्त्री रचनाकार के लिए आयासपूर्ण नहीं है। इस शैली को अपनाने में उसे मेहनत नहीं करनी होती। उसे यह सहज सिद्ध है।
दिक्कत ‘महान जीवन’, ‘महान उपलब्धि’ की व्याख्या की थी। स्त्री का जीवन और उसके निजी संघर्ष इस दायरे में आएंगे या नहीं ? यह सवाल था। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखों तो स्त्री का निजी इतना ‘निजी’ भी नहीं होता। न ही उसके निजी जीवन के संघर्ष केवल उसके निजी दायरे तक सीमित होते हैं। उसमें परिवार, समाज, राजनीति, कानून आदि की आलोचना शामिल होती है। इन सबके बीच से स्त्री की निजी कहानी विकसित होती है, उसका सामाजिक संघर्ष और उपलब्धियाँ तय होते हैं। स्त्री और उसमें भी दलित स्त्री यदि अपनी आत्मकथा लिख रही हो तो साहित्य और समाज के स्पेस में क्या बदलाव होता है ? साहित्य के मूल्यबोध में क्या परिवर्तन पैदा होते हैं ? दलित स्त्री के आत्मकथा लेखन के जरिए ‘स्व’ के हासिल करने और सामान्य वर्ग की स्त्री के आत्मकथा लेखन के जरिए ‘स्व’ के हासिल करने में क्या अंतर है ?  यदि है तो वह किस प्रकार का है ? इन सब सवालों के परिप्रेक्ष्य में कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ को पढ़ा जा सकता है।
कौशल्या बैसंत्री ने 68 वर्ष की आयु में अपनी आत्मकथा दोहरा अभिशापलिखी।  आत्मकथा का बुनियादी उद्देश्य है कि उसमें आत्म उद्घाटन का तत्व हो। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह दोहरे सामाजिक अभिशाप की कथा है।
नागपुर के एम्प्रेस मिल में मज़दूरी करने वाले माता-पिता की संतान कौशल्या बैसंत्री का बचपन गरीबी और अभाव में बीता। वे पाँच बहनें और एक भाई थीं। पूरा परिवार एक साथ मिलकर घर-बाहर का काम करता था। जैसा कि आम मज़दूर परिवारों में होता है, श्रम ही उनके जीवन का आधार था। छोटे बच्चे भी घर का कामों और अपने से छोटे भाई-बहनों की देखभाल का काम करते थे। कौशल्या जी के माता-पिता अत्यंत परिश्रमी थे और गरीबी में भी सफाई और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीवनयापन करते थे। सामूहिक श्रम का पाठ सबसे पहले परिवार से ही आरंभ होता है। एक परिश्रमशील माता-पिता कैसे अपने बच्चों में श्रम का संस्कार भर सकते हैं , इसका आदर्श नमूना कौशल्या जी के माता-पिता थे। विशेषकर परिश्रमशील और दूरदर्शी स्त्री कैसे कठिन स्थितियों में भी अपने परिवार को उज्ज्वल भविष्य दे सकती है, यह उनकी माता जी के जीवन से सीखा जा सकता है। साफ-सफाई और स्वच्छता के प्रति कैसे कौशल्या जी की माताजी सजग थीं, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि गड्डीगोदाम के कसाईखाने से घर तक लोग गाय का मांस कपड़े में बाँधकर लाया करते थे और खून सारे रास्ते टपकता रहता था, कौशल्या जी की मां को यह अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने अपने मुहल्ले के लोगों को समझाया कि इससे उनके गंदगीपसंद होने का अंदाज लगता है, लोग उन्हें गंदा कहेंगे, अतः किसी बर्तन में ढककर मांस लाना चाहिए। लोगों को बात अच्छी लगी और उन्होंने इस काम के लिए बर्तन इस्तेमाल करना आरंभ किया। यह अत्यंत सामान्य बात लग सकती है, लेकिन कौशल्या जी का इस बात को आनंद और उपलब्धि के भाव में बताना सामान्य बात नहीं है। दलितों को गौ-मांस खाने और गंदा रहने, अशौच के लिए परंपरा से बाध्य किया जाता था। ऐसे में यदि कोई इस भाव के साथ समाज में जीना चाहता हो कि वह और उसके लोग ऐसा आचरण करें कि लोग उन्हें गंदा न समझें, तो यह बहुत बड़ी बात है।
आत्मकथा का आरंभ बहुत छोटी छोटी घरेलू बातों और पारिवारिक परिचय से होता है। घर के काम का विस्तृत विवरण है जिसमें अथक मानवीय श्रम लगा हुआ है। चूँकि उस जमाने में परिवार में बच्चों की संख्या ज़्यादा हुआ करती थी अतः इस तरह के परिवार भी जो गाँव में नहीं शहर में आकर मिल मज़दूरी किया करते थे, जिनका संयुक्त परिवार का आधार नहीं था, बड़े ही होते थे। परिवार में बच्चे खेलने की उम्र में घर के कामकाज और बच्चों को पालने में माँ-बाप की मदद किया करते हैं। श्रम और अत्यधिक श्रम ही इनके जीवन को चलाए रखता है। कौशल्या जी के माता-पिता अत्यधिक परिश्रमी और उस समय और अपने समाज के हिसाब से आधुनिक विचारों के थे। बच्चों की शिक्षा पूरी करवा कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना उनका उद्देश्य था। कौशल्या जी के सभी भाई-बहन विद्यालय जाते थे। आस-पड़ोस के लोगों से भी इस परिवार का अच्छा संबंध था और वे एक-दूसरे की मदद सामूहिक रूप से पापड़, बड़ियाँ बनाने में किया करते थे।
आत्मकथा के आरंभ में कौशल्या जी अपनी आजी यानि नानी की कहानी कहती हैं। वर्णन शैली इतनी रोचक है कि विस्मरण हो जाता है कि यह प्रसंग माँ से सुनी बातों के आधार पर लेखिका लिख रही है। इस प्रसंग में उस समय के दलित समाज में प्रचलित परंपराओं का विस्तार से वर्णन है। विशेषकर पति के मरने पर दलित विधवा की दूसरी शादी किस प्रकार हुआ करती थी, इसका विस्तृत वर्णन है। एक चीज जिस पर ध्यान जाता है, वह यह कि लेखिका बराबर स्त्री-पुरुष के लिए दलित समाज में प्रचलित अलग अलग नियमों का जिक्र करना नहीं भूलती।  दलित विधुर और दलित विधवा के दूसरे विवाह में क्या अंतर है, वह इसी से समझा जा सकता है कि दलित विधुर कुँवारी लड़की से विवाह कर सकता था पर दलित विधवा का कुँवारे लड़के से ब्याह नहीं हो सकता था। वह किसी विवाहित पुरुष की ही दूसरी, तीसरी पत्नी बन सकती थी। यही नहीं विधवा को विवाह के बाद भी गले में चाँदी या सोने का एक खास आकार का पेंडेंट पहनना पड़ता था जिससे पता चले कि वह पहली पत्नी नहीं है बल्कि उसका ‘पाट’(दूसरा विवाह) हुआ है। दलितों के यहाँ फैले अंधविश्वास और पितृसत्तात्मक मूल्य वैसे ही मौजूद थे जैसे किसी सवर्ण के यहाँ। बाल विवाह एक सहज प्रथा थी, इसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण सुधार आंदोलनों के बावजूद दलित समाज में नहीं था। सात-आठ साल में बच्ची का विवाह हो जाता था और तेरह-चौदह साल में गौना करके ससुराल भेज दिया जाता था। यह प्रथा संपूर्ण हिन्दू समाज में व्याप्त थी।
महार जाति की उपजाति कोसरे में कौशल्या बैसंत्री का जन्म हुआ था। उस समय में अस्पृश्यता का पालन कट्टरतापूर्वक किया जाता था। जिसके कारण सवर्णों के यहाँ दलितों को भारी और ज़्यादा मेहनत के काम ही मिला करते थे। अपनी आजी की कथा के रूप में लेखिका ने एक स्वाभिमानी मेहनतकश स्त्री के जीवन की कथा कही है। आजोबा यानि नाना, जो उसकी आजी यानि नानी के दूसरे पति थे, के पास पैसा और हैसियत दोनों थे, पर कथा उनकी नहीं बन सकती थी। कहानी नानी की बनी या फिर अम्मा की। ये दोनों ही स्त्रियाँ शक्तिशाली चरित्र के रूप में उभरी हैं। आजी, अजोबा पर भारी पड़ती हैं और माँ, पिता पर। दोनों ही स्त्रियाँ स्वतंत्र निर्णय और सूझ-बूझ की धनी हैं। विशेषकर लेखिका की माँ में अपार धैर्य और समाज के सामने डटे रहने का साहस है। कोसरे उपजाति के बारे में लेखिका ने कहा है कि इनकी परंपराएँ और रीति-रिवाज बहुत कुछ आदिवासी जनजातियों से मिलते हैं। शायद आदिवासी समाज में प्रचलित मातृसत्ताक परंपराओं का असर रहा हो कि ये दोनों महिलाएँ अतीव जीवट, मेहनती और निर्णायक शक्ति से भरपूर चित्रित हैं। विशेषकर लेखिका की नानी जिस तरह अपनी नातिन यानि लेखिका की लंबी उम्र के लिए पंढरपुर के विठोबा के दर्शन करने जाती है और लौटते समय घर के निकट पहुँचकर मर जाती है और लोग जब उनकी गठरी खोलते हैं तो उसमें में कफन के कपड़े और क्रियाकर्म के लिए पैसे रखे होते हैं, वह अद्भुत है। यह ठीक है कि उस जमाने में सवर्णों में भी अपने जीते जी अपनी मृत्यु का भोज और अन्य अनुष्ठान करने की परंपरा थी पर  लेखिका की नानी के संदर्भ में यह उनके स्वाभिमान और खुद्दारी को उजागर करता है, क्योंकि उनके पति और उनकी बेटी-दामाद जीवित थे।
अछूतों में भी छूत-छात माना जाता है। खलासी लाइन के जीवन को याद करते हुए लेखिका ने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार इन मज़दूर बस्तियों में माता-पिता दोनों, मिलों या फिर बस्ती के बाहर ईसाई, पारसी, ऐंग्लो-इंडियन के घरों में काम किया करते थे। यहाँ तक कि छोटे छोटे बच्चे भी बाल श्रम किया करते थे। लेकिन श्रम की जीवन स्थितियों की एकरूपता भी इनके अंदर किसी नई चेतना का निर्माण नहीं कर सकी थी और अछूतों में जाति श्रेष्ठता की श्रेणियाँ बनी हुई थीं। यानि जिस चीज से ये खुद उत्पीड़ित थे, उसी का बर्ताव ये अपने ही लोगों के साथ कर रहे थे। महार जाति, मांग जाति के लोगों से छूतछात बरतते थे।[i] इनमें भी परजीवी वर्ग था जिसका पेशा दान मांगना था। ‘ग्रहण’ (सूर्यग्रहण) आदि पर दान मांगने का काम मांग जाति के लोग किया करते थे। इसी तरह मेहतर या सफाई कर्मचारियों से भी छूतछात का व्यवहार अन्य अछूत जातियाँ, विशेषकर महार जाति किया करती थी। ये लोग सार्वजनिक और निजी पाखाने, सड़क बुहारने, कूड़े का ट्रक चलाने आदि का काम करते थे। इसी तरह से हिंदी भाषी प्रदेशों से आए सफाई कर्मचारियों से महार और अन्य जाति के लोग छूतछात बरतते थे, महार जाति के लोगों से आंध्र प्रदेश के चमार छूतछात का बर्ताव रखते थे। वर्णव्यवस्था का यह अद्भुत रूप था जो इतना नीचे तक चेतना और संस्कारों में बस चुका था कि अछूत लोग भी अपने से अन्य जातियों और प्रदेशों के लोगों से अस्पृश्यता बरतते थे।[ii]
खलासी लाइन बस्ती में मूलतः मज़दूरों के घर थे। लेकिन मज़दूर स्त्रियों के बच्चों की देखभाल के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। नन्हें बच्चों को वृद्धों, पाँच-पाँच वर्ष के भाई-बहनों, पड़ोसी के कमउम्र बच्चों पर छोड़कर माँए काम पर जाती थीं। शिशु दिन भर टट्टी-पेशाब में पड़ा रहता था, कुछ माएँ बच्चे को अफीम चटाकर जाती थीं ताकि बच्चा रोए नहीं, सोता रहे। ऐसी अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में बस्ती में शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक था। अंधविश्वास, झाड़-फूँक, देवी-देवता की मनौती पर भरोसा था। आत्मकथा में दो नन्हीं जानों- लेखिका की माँ की बहन यानि मौसी, सरस्वती का और उनकी माँ की ग्यारहवीं संतान, यानि लेखिका की बहन- अहिल्या का, मार्मिक जिक्र है। इन दोनों को ही गरीबी और उपेक्षा के कारण अकाल मौत मरना पड़ा। ईसाई मिशनरियाँ बस्ती में काम किया करती थीं। सेवा और धर्म परिवर्तन उनका उद्देश्य था। अस्पृश्य लोगों में शिव और कृष्ण के भक्त थे लेकिन उनके अपने स्थानीय देवी-देवता भी थे। यह स्थिति आंबेडकर के प्रभाव के पहले की है।
शिक्षा की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। लड़कियाँ प्रायः स्कूल नहीं जाती थीं। इस लिहाज से जाई बाई चौधरी नाम की अछूत महिला और झूला बाई नाम की आदिवासी (गोंड) महिला का अवदान अप्रतिम है। दोनों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोला था। जाई बाई चौधरी निशुल्क शिक्षा देती थीं। दलित ग़रीब परिवारों के लिए यह बहुत बड़ी सुविधा थी। जाई बाई की बेटी भागन रोज बस्ती में आकर दलित लड़कियों को स्कूल के लिए लेने आती थी। यह काम किसी मिशन से कम नहीं था। कक्षा तीन तक जाई बाई के स्कूल में पढ़ने के बाद कौशल्या जी सीताबर्डी की भिडे कन्याशाला गईं। उनकी अन्य बहनें भी पढ़ने गईं। इस सबके पीछे कौशल्या जी की माँ का पढ़े-लिखे लोगों के प्रति सम्मान भाव था। वे अपनी संतानों को भी पढ़ा-लिखा और आत्मनिर्भर देखना चाहती थीं। उनकी माँ का मेल-जोल उस समय दलित बस्ती में आने–जाने वाले समाज सुधारकों, नेताओं और आस-पास रहनेवाले उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे दलित विद्यार्थियों से था। उनमें अपने बच्चों को कष्ट सहकर भी उच्च शिक्षा दिलाने की जिद थी, पिता इस काम में माँ का सहयोग करते थे। बड़े स्कूल में जाने के बाद लेखिका को बस्ती के अछूत लोगों के नारकीय और अस्वास्थ्यकर जीवन तथा धनी इलाक़ों में रहनेवाले उच्चवर्णीय  लोगों के जीवन में भारी अंतर समझ में आया।
सीताबर्डी के कन्या पाठशाला में कौशल्या जी किस प्रकार से केवल दलित और ग़रीब होने के कारण आत्मग्लानि और हीनताबोध से भर जाती थीं, इसका कुछ घटनाओं के जरिए उल्लेख किया है। दलितों की मेहनत को किस प्रकार कम मज़दूरी देकर हासिल किया जाता था इसका उदाहरण लेखिका के पिता की बेकरीवाली नौकरी है, जहाँ अठारह साल से एक ही पगार बेकरी-मालकिन दिया करती थी। पाँचवी कक्षा में जाने पर स्कूल की प्रधानाध्यापिका ने इस शर्त पर लेखिका की फीस माफी स्वीकार कर ली कि परिणाम अच्छा करना होगा। संयोग से लेखिका समेत उनके भाई-बहन पढ़ने में कुशाग्र थे।
बस्ती की गरीबी के जिक्र के साथ-साथ एक घटना का उल्लेख है जिसमें एक चाय कंपनी, मज़दूरों में चाय की आदत डालने के लिए छह महीने तक उन्हें मुफ़्त चाय पिलाती रही। बाजार अपने प्रसार के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाता है, उसका यह एक उदाहरण है। लेखिका की माँ को ग्यारह बच्चे हुए लेकिन पाँच ही जीवित रहे। केवल एक लड़का होने का उनकी माँ को दुख था। [iii] हालाँकि वे अपनी सभी जीवित संतानों को शिक्षा दे रही थीं, ज्ञान के प्रति उनकी ललक थी, लेकिन संस्कारवश कहीं न कहीं परंपरावादी सोच उनके भीतर भी थी। समाज का चलन ही ऐसा था कि बेटी को पराया धन और बेटे को वंश का वारिस माना जाता था। लेखिका अपने स्कूल में चौथी और बस्ती में पहली अस्पृश्य लड़की थीं जिन्होंने मैट्रिक पास किया था।
लेखिका ने उस समय अस्पृश्यों में काम करनेवाले समाजसेवियों और नेताओं के कार्यों का भी यथास्थान सम्मानपूर्वक याद किया है। ऐसे ही एक समाजसेवी और कांग्रेस कार्यकर्ता श्री तुलाराम साखरे थे जिन्होंने बस्ती में समाज सुधार के काफी कार्य किए थे। दहेज के खर्चे को कम करने और समानता के लिए उन्होंने शादी में केवल सौ रूपए की साड़ी और आधा तोला सोना देना निश्चित किया। इससे कोसरे समाज में दहेज जैसी बुरी प्रथा पर कुछ रोक लगी।
 लेखिका ने विस्तार से अपने बचपन और युवावस्था के दिनों  को याद किया है पर उसमें किसी प्रकार के खेलकूद का जिक्र नहीं आता। इसका कारण लेखिका ने दिया है कि वे इस बोध से ग्रसित रहीं कि वे अछूत हैं अतः स्कूल में भी किसी प्रकार के नाटक, खेलकूद में भाग नहीं लिया। लेकिन यहाँ सवाल लड़की होने, आर्थिक स्थिति ख़राब होने का भी है जिससे कन्याएँ खेलकूद में भाग नहीं ले पातीं या उसमें आगे नहीं जा पातीं। लेखिका इस बात की अनदेखी कर केवल हीनताबोध को कारण बताती हैं।
दलित समाज में गरीबी की स्थिति थी, उसमें बच्चों की शिक्षा का खर्च कमर तोड़नेवाला था। सामान्य जरूरतों में भी कतर-ब्योंत चलती रहती थी। बस्ती में शिक्षा को विलास और बिगाड़ देने वाली चीज मानने के कारण, विशेषकर लड़कियों के मामले में, और सामान्य ईर्ष्या भाव के कारण भी लोग लेखिका के परिवार से जलते थे। लड़कियों का पढ़ना माने उनका दुश्चरित्र होना और जोड़ दिया जाता। आवारा, लफंगे लड़के भी उनसे अपने को श्रेष्ठ समझते थे। लड़के-लड़कियों के प्रेम के क़िस्से उनके मनोरंजन का साधन थीं। लेखिका का साइकिल पर स्कूल जाना बस्ती में दलितों के बीच और बस्ती के बाहर उच्चवर्णीय स्त्री-पुरुषों के ईर्ष्या और उपहास का केन्द्र था। इसी प्रसंग में एक इंस्पेक्टर की मदद का बहुत कृतज्ञतापूर्वक स्मरण है। साथ ही एक बंगाली लड़के का जिक्र भी है जिसने लेखिका को बदनाम करने के लिए उनकी फोटो के साथ अपनी फोटो जोड़कर तैयार कराई और उन्हें अपनी पत्नी बताकर बदनाम करना चाहा। यहाँ तक कि कोर्ट केस भी किया जो पेशी पर ही खारिज हो गया। इसी क्रम में मेयो अस्पताल के दरबान का जिक्र है जो उन्हें देह-व्यापार में धकेलना चाहता था।
मज़दूरों के मनोरंजन के रूपों जैसे पोवाड़े, भजन, लावणी, गीत, गोंधळ, शहनाई बजाना, मृदंग बजाना आदी का जिक्र है। ये आयोजन शनिवार की रात को खा-पीकर आरंभ होते थे और सुबह चार बजे तक चलते थे क्योंकि रविवार अवकाश का दिन था। बच्चों का मनोरंजन महादू काका जैसे बुजुर्ग ‘सारंगा सदावृक्ष’, ‘तोता-मैना’, ‘राजा-रानी’, ‘महाभारत’, ‘रामायण’ की कहानियाँ सुनाकर करते थे।
लेखिका ने बड़ी आत्मीयता से अपनी बस्ती के कुछ लोगों के दयनीय जीवन के रेखाचित्र बनाए हैं। इसमें दशरथ और ठमी, सोगी, जयराम और रामकुँवर, सखाराम और उसकी बेकसूर पत्नी की कथाएँ ऐसी ही हैं। जो चीज महत्वपूर्ण है वह यह कि दलितों में भी पुरुष के बराबर बल्कि कई स्थितियों में उससे ज़्यादा  काम करनेवाली स्त्री के साथ सामाजिक व्यवहार, सामंती मानसिकता से ही प्रेरित था। प्रेम करने पर पत्नी अपने पुरूष को नहीं उसकी प्रेमिका को गालियों से नवाजती और फजीहत करती। प्रेम करने वाली स्त्री ग्लानि बोध से भरी होती क्योंकि समाज उसी को दोषी ठहराता, दुश्चरित्र भी वही कहलाती। सखाराम की स्त्री का प्रसंग तो और भी दहला देनेवाला है। वह दिहाड़ी मज़दूरी करती थी। सुंदर थी। साथ काम करनेवाले एक मनचले मिस्त्री की कामुक पहलक़दमी की शिकायत पति से करने पर पति ने मिस्त्री को कुछ कहने के बजाए स्त्री को ही दोषी माना और उसे अर्द्धनग्न अवस्था में गधे पर बैठाकर, जूतों की माला और सफेद टीका कर जुलूस निकाला। उसे बस्ती से बाहर कर दिया। वह अंधेरा होने तक झाड़ियों में छिपकर बैठी रही, रात को कुएँ में कूदकर प्राण दे दिए। यह कहानी उस स्त्री के अंततः ‘स्त्री’ होने को जाहिर करती है। स्त्री के अपमान में दलित और सवर्ण का फर्क़ नहीं है। लेखिका ने दलितों के भीतर पुंसवादी मानसिकता को कई जगह उजागर किया है पर यह कहानी इसका चरम है।
नौवीं कक्षा से लेखिका की सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भागीदारी आरंभ हो गई। वे अस्पृश्य विद्यार्थी परिषद की संयुक्त उपसचिव बनीं। परिषद् ने दसवीं की बोर्ड परीक्षा में फीस लिए जाने के नए नियम का विरोध करते हुए जुलूस निकाला। फीस माफ हुई। सन् 1943 में नागपुर में अस्पृश्य विद्यार्थी परिषद् का प्रांतीय अधिवेशन हुआ। लेखिका ‘अस्पृश्य विद्यार्थी परिषद्’ की कार्यकारिणी में थीं। इसके अलावा जुलाई 1942 में होनेवाले अस्पृश्य महिलाओं के अधिवेशन के लिए भी लेखिका ने काम किया था। लड़कों के मिलने आने पर बस्ती के लोग ताने देते थे। अस्पृश्य समाज के साथ काम करने वाले पढ़े-लिखे लड़के भी स्वतंत्र और सार्वजनिक जीवन में काम करनेवाली लड़की को पसंद तो करते थे पर अपने परिवार के लोगों से डरते थे। अंतरजातीय और अंतर-उपजातीय शादियों से भी डरते थे। शिक्षा के बावजूद भी अस्पृश्य लड़के अपने ससुरालीय मालदार ही चाहते थे, गरीब माता-पिता की होनहार लड़की से विवाह उनकी प्राथमिकता नहीं थी। धनी माँ-बाप के साथ गोरी लड़की की, दलित पुंसवादी मानसिकतावाले समाज में मांग थी। लेखिका ने सखाराम मेश्राम के साथ अपने ऐसे ही प्रेम-प्रसंग का जिक्र किया है जो उसकी जाति भीरुता के कारण विवाह में नहीं तब्दील हो सका। बाद में वह लेखिका से दूसरी शादी करना चाहता था, जो समय की प्रथा के अनुसार अवैध नहीं था लेकिन लेखिका ने मना कर दिया। यह घटना लेखिका के दृढ़ व्यक्तित्व को दर्शाती है। लेखिका ने दूसरी औरत के साथ दलित और सवर्ण समाज के बर्ताव को नजदीक से देखा था। अस्पृश्य जाति की जानकारी प्राप्त होते ही कैसे सवर्ण समाज के क्रांतिकारी लड़के मित्रता से भी पीछे हट जाते थे, लेखिका की प्रतिभा, ज्ञान आदि का उनका सारा आकर्षण कैसे गायब हो जाता था, इसकी चर्चा एक प्रसंग में की गई है। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी एक लड़की कमल जो लेखिका की मित्र थी, किस प्रकार मज़दूरों के जीवन की असलियत से नावाकिफ थी, इसका भी खुलासा लेखिका ने किया है।
दलित बस्ती में बाबा साहब आंबेडकर के विचारों का प्रसार होने लगा था, लड़के और लड़की की शिक्षा की आवश्यकता पर आंबेडकर जोर देते थे। उन्होंने दलितों में आत्मविश्वास भरने का काम किया। मनुष्य के रूप में पहचान बनाने में मदद की। उनके विचारों से भरा ‘जनता’ अख़बार बस्ती में पढ़ा जाता और उनकी जयंती किसी उत्सव की तरह मनती। लेखिका ने उनके भाषण नागपुर में सुने थे।
लेखिका के परिवार में उनकी माँ के अंदर तो स्वच्छता का बोध था ही, शिक्षित होने और बाहरी दुनिया देखने के कारण लेखिका के अंदर भी यह बोध गहराने लगा। अपने बस्ती के घर को वे लोग यथासंभव स्वच्छ और सुरुचिपूर्ण तरीक़े से रखते। एक छोटा सा संदर्भ है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण। बस्ती में लोग गुदना गोदवाते थे। अपने पति या प्रिय व्यक्ति का नाम भी गोदवाते थे। लेखिका ने अपने हाथ पर अपनी शिक्षिका ‘आनंदी’ का नाम गोदवाया। यह उनके बाल मन में शिक्षा और शिक्षिका के प्रति आकर्षण का नमूना था।  
 लेखिका ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी देने के क्रम में समानान्तर दो घटनाओं का उल्लेख किया है। नागपुर में अखिल भारतीय अस्पृश्य समाज का अधिवेशन तय हुआ। उस अधिवेशन में महिलाओं का भी अधिवेशन करने का निश्चय हुआ। यह अधिवेशन जुलाई, 1942 में होना तय हुआ था। [iv] एक अन्य स्थल पर वे इस अधिवेशन का वर्ष 1943 लिखती हैं। महिलाओं के इस अधिवेशन में लेखिका ने सक्रिय भागीदारी की। सुलोचनाबाई डोंगरे ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की। बाबा साहब इस अधिवेशन में उपस्थित थे। तीस हजार महिलाओं ने इस अधिवेशन में भाग लिया। वे सब बाबा साहब को सुनने आई थीं। बाबा साहब ने इस अधिवेशन के समानान्तर चलनेवाले अस्पृश्य विद्यार्थी फेडरेशन के लिए अपने संदेश में कच और देवयानी की पौराणिक कहानी सुनाई और कच की कथा से इस बात पर जोर दिया कि उसने मेहनत और मुसीबत से शुक्राचार्य से विद्या हासिल की, वैसे ही अस्पृश्य विद्यार्थियों को पहले विद्या हासिल करना चाहिए फिर दूसरे काम करने चाहिए। विद्या के बगैर दलित समाज की उन्नति संभव नहीं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बाबा साहब ने हिन्दू समाज की परंपरा और इतिहास का गहरा अध्ययन किया था तभी वे इस प्रकार का आसानी से समझ में आनेवाला उदाहरण विद्यार्थी समाज के सामने रख सके।
लेखिका ने राजनीतिक जीवन में भागीदारी के दौरान अस्पृश्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की छिछोरी मानसिकता का कई जगह उद्घाटन किया है। राजनीतिक स्पेस में किस प्रकार उन पर साथ काम करनेवाले अस्पृश्य नेताओं द्वारा यौनिक हमले हुए, ऐसी एक घटना का उल्लेख है। इस तरह की घटनाएँ परिवार और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में काम करनेवाली लड़की और उसके परिवार को हतोत्साहित कर सकते थे। पर लेखिका और उसके परिवार की समझ की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। लेखिका के शब्दों में, ‘‘कैसा रूप धारण करते हैं ये लोग! शील की चादर ओढ़े और अंदर से राक्षस। औरतों को देखकर मानो इनके मुँह में पानी भर आता है। इन्होंने मेरी उम्र का भी लिहाज नहीं किया था। मैं इनकी बच्ची समान थी। इनकी दो बीवियाँ थीं, पर कोई बाल-बच्चा नहीं था। काश ये मुझे अपनी बच्ची ही समझते! ’’[v]  
  सन् 1945 में उन्नाव अस्पृश्य विद्यार्थी फेडरेशन के अधिवेशन में लेखिका की मुलाकात देवेन्द्र कुमार बैसंत्री से हुई। देवेन्द्र कुमार बैसंत्री भी सामाजिक-राजनीतिक रूप से काफी जागरुक थे और कानपुर के अख़बार ‘सावधान’ तथा मद्रास (अब चेन्नई) से निकलने वाले एक अंग्रेज़ी समाचारपत्र में लेख लिखा करते थे। लेखिका ने उनके लेख पढ़े थे और विचारों से परिचित थी। वे बिहार के रहनेवाले थे और बी एच यू से डी लिट् की पढ़ाई कर रहे थे। बिहार किसान आंदोलन में जेल भी गए थे। एम एन राय की रैडिकल डेमौक्रेटिक पार्टी से जुड़े रहे। उत्तरप्रदेश अस्पृश्य विद्यार्थी फेडरेशन के अध्यक्ष भी थे। लेखिका की इच्छा थी कि वे वी एच यू जाकर पढ़ाई करें और बस्ती से बाहर निकलें।
लेखिका ने अपने विभिन्न विवाह प्रस्तावों का विस्तार से वर्णन किया है। देवेन्द्र कुमार बैसंत्री के साथ विवाह किस प्रकार हुआ, इसका भी विस्तृत उल्लेख है। लेखिका के परिवार की तरफ से विवाह के लिए कोई शर्त उन पर नहीं लादी गई थी। अतः लेखिका स्वतंत्र होकर निर्णय ले सकती थीं। परिवार के भरोसे और अपना निर्णय स्वयं ले सकने की खुदमुख़्तारी ने लेखिका के सामने विवेकपूर्ण चयन की गुंजाइश छोड़ी। लेखिका ने इसी कारण जैसे ही उन्हें मालूम हुआ कि देवेन्द्र कुमार पहले से विवाहित है और उसकी पत्नी जीवित है तो उससे विवाह करने की अपनी पहलक़दमी वापस ले ली। यह परिस्थितियों के अनुसार लिया गया निर्णय था। लेखिका की एकमात्र कमज़ोरी पढ़ा-लिखा, ‘सामाजिक कार्य में रुचि रखनेवाला, वकील प्रोफेसर या समाज सेवक’[vi] था, जिसे वह अपने जीवनसाथी के रूप में देखना चाहती थीं। लेखिका ने जब परिस्थितियों को समझते-बूझते हुए देवेन्द्र कुमार को विवाह के लिए ‘हाँ’ कहा तो ‘इसका कारण यह कि उस वक्त इतना पढ़ा-लिखा और सामाजिक कार्य करनेवाला व्यक्ति अस्पृश्य समाज में नजर नहीं आया।’[vii]
लेखिका ने उन दिनों अंतरप्रांतीय शादी की , जब यह आम चलन नहीं था। दलित समाज में इस कारण बहुत लोकनिंदा होती थी। 16 नवंबर 1947 को लेखिका की शादी बस्ती में ही हुई थी लेकिन बस्ती वालों की तरफ से इसमें काफी विघ्न पैदा किया गया। बिजली काट दी गई, पत्थर बरसाए गए। शादी के बाद लेखिका बनारस चली आईं। लेखिका की मुठभेड़ अब ठेठ हिंदी भाषी प्रदेश की पारिवारिक संरचना से हुई। जहाँ पुरुष के आगे विशेषकर पिता या भाई के आगे लड़कियाँ नहीं बोलती हैं। लड़के अपना काम स्वयं करने में अपनी हेठी महसूस करते हैं और घर की स्त्रियाँ- माँ, बहन, पत्नी उनके दैनंदिन जीवन के काम करती हैं। यह श्रम के प्रति हिकारत का सामंती नजरिया है। लेखिका का परिवार बड़ा जरूर था पर वह एकल था। वहाँ माता-पिता की तरफ से बच्चों पर कोई पाबंधियाँ नहीं थीं। विशेषकर माता ही निर्णायक थी। शिक्षा पर जोर था। लेकिन विवाह के बाद जो परिवार मिला वह विस्तृत और सामंती मूल्य संरचना वाला था। हिंदी प्रेदेशों में घर के अंदर पुरुष का और घर के बाहर स्त्री का काम करना सामाजिक अपमान माना जाता है। बिहार प्रांत में जाति भेद कितना गहरा है इसका विशद् उल्लेख लेखिका ने किया है। देवेन्द्र कुमार के लेबर इंसपेक्टर बनने के बाद बिहार में विभिन्न जगहों पर पोस्टिंग में मुश्किलों और जातिभेद का शिकार होना पड़ा। अफसर अगर दलित है तो मातहत कर्मचारी और नौकर चाकर भी अपनी जातिगत श्रेष्ठता दिखाने लगते थे। इस तरह उन्हें दलित होने के कारण जगह जगह अपमानित होना पड़ता था। सामाजिक सशक्तिकरण में शिक्षा और पद के जरिए एक मकाम हासिल किया जा सकता है; आर्थिक निश्चिंतता हासिल की जा सकती है पर वर्णवादी व्यवस्था में जाति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ना दुष्कर कार्य है।
विवाह के पश्चात् पुंसवादी समाज में स्त्री की दुनिया पर पुरुष का कब्जा हो जाता है। वह क़ाबिल से क़ाबिल स्त्री का मालिक बन जाता है। स्त्री की पुरानी दुनिया जहाँ उसने अपनी तमाम उपलब्धियाँ और सामाजिक संबंध हासिल किए होते हैं, आम तौर पर विवाह के बाद एकदम छूट जाती है। इसमें दलित या गैर-दलित का फ़्रर्क़ नहीं होता। स्त्री होने न होने से फ़र्क़ होता है। अगर वह स्त्री है तो उसके साथ यही सामाजिक सलूक होगा। लेखिका को देवेन्द्र कुमार के साथ संबंध में घरेलू हिंसा और घर चलाने के लिए आर्थिक अभाव का सामना करना पड़ा। गाली-गलौज, झगड़ा सामान्य बात थी। अंततः दोनों एक साथ रहते हुए भी अकेले रहने के अभ्यस्त हो गए। सामाजिक तौर पर सफल देवेन्द्र कुमार अपने घर में अपनी पत्नी के साथ झगड़े किया करता था। लेखिका के अनुसार वह पहले चालीस रूपए महीने उन्हें देता था, लेकिन बाद में कोई पैसा लेखिका के निजी खर्चों के लिए नहीं देता था। ऐसी स्थिति में लेखिका ने घर के काम-काज करना छोड़ दिया। वह सिर्फ घर में खाना पकाने लगीं। चीनी, साबुन आदि चीजों को भी ताले में रखता था। लेखिका खाना बनाकर पहले खा लेती थी, इस पर देवेन्द्र कुमार को आपत्ति थी, लेकिन उसके यहाँ खाने की मेज़ पर एक साथ खाना खाने का रिवाज था ही नहीं। लेखिका के पिता ने रिटायरमेंट के बाद एक एक हजार रूपए सभी बहनों में बाँट दिए। यह उनकी विकसित चेतना को दर्शाता है। लेखिका ने शादी के बाद कोई नौकरी नहीं की। लेकिन उन्हीं के शब्दों में ‘‘बाबा रिटायर हो गए थे। उन्होंने सब बहनों को एक-एक हजार रूपए दिया। वह एक हजार रूपए मैंने बैंक में डाल दिए थे। कभी-कभी माँ को पैसे के लिए लिखती, तब वह कुछ पैसे भेज देती थीं। बहन नौकरी पर थी, वह भी कुछ पैसे भेज देती थीं। कभी लड़का भेज देता था। इसलिए देवेन्द्र द्वारा पैसे रोके जाने पर मुझे ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। उसने तो सोचा कि मैं बहुत तंग हो जाऊँ, लेकिन उसकी मुराद पूरी नहीं हुई।’’[viii] लेखिका ने देवेन्द्र कुमार पर केस दायर किया और 500 रूपए प्रतिमाह गुजारा भत्ता देवेन्द्र कुमार से प्राप्त किया।
लेखिका की सबसे बड़ी बहन को छोड़कर सभी बहनों ने शिक्षा प्राप्त की और नौकरी की। बहनों के पति भी ओहदेदार व्यक्ति थे। एकमात्र भाई ने भी शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी की। लेखिका ने शिक्षा और आर्थिक समृद्धि के अनुसार सामाजिक उर्ध्व अपसरण की चर्चा की है, जो दलित के चिरकाल से दलित होने के मिथ को तोड़ता है। लेखिका की यह वैज्ञानिक दृष्टि आज के दलित लेखकों के चिन्तन से आगे देख रही है। लेखिका का परिवार जब खलासी लाइन की बस्ती छोड़कर नागपुर के रामदास पेठ रहने आया तो पॉश कॉलोनी में सवर्णों के बीच घर बनाकर रहे। सवर्ण भी उन्हें सम्मान देते थे, ‘‘आसपास के सवर्ण भी माँ को सम्मान देते थे। वे जान गए थे कि माँ-बाबा ने अपने बच्चों को पढ़ाया है। वे उन लोगों के बराबर हो गए हैं।’’[ix]  भाई की पत्नी और भाई की आलोचना लेखिका ने इस आधार पर की है कि हिंदू धर्म पर विश्वास रखता है और दोनों पति-पत्नी पढ़े लिखे होने के बावजूद पिछड़े विचारों के हैं। यह सोच ठीक है कि, ‘‘ब्राह्मणों से टक्कर लेने के लिए पढ़ाई-लिखाई होनी चाहिए, ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जैसे बाबा साहब आंबेडकर ने हासिल किया। तभी वे उनसे टक्कर लेते रहे।’’[x]
शहर और बस्ती केवल स्थान भर नहीं होते। वहाँ जिंदगियाँ बसती हैं। ये कैसे बसे हैं और कैसे दिखते हैं, इससे वहाँ रहने वालों की आदतों, जीवनशैली बताते हैं। शहर और शहर की बस्ती को कहाँ से देखें यह कौशल्या जी के खलासी लाइन के जीवन के वर्णन और आगे चलकर भोपाल के जीवन के वर्णन से स्पष्ट होता है। विशेष कर नए बनती शहरी सभ्यता शहरवासियों के जीवन से किस प्रकार जुड़ी होती है, इसकी झलक भोपाल शहर के बयान में है। ‘‘भोपाल तब मध्यप्रदेश की नई-नई राजधानी बना था। स्टेशन भी बैरक जैसी बिल्डिंग में था। शहर बहुत गंदा, जगह-जगह पान की पीक, बीड़ी के टुकडे नज़र आते थे। ज्यादातर मुस्लिम थे शहर में। उनके घरों में चिक और बोरे के पर्दे दिखते थे। गरीबी दिख रही थी। यहाँ रिक्शे भी नहीं थे। बसें भी बहुत कम थीं। ताँगे थे, जिनके घोड़े बहुत दुबले थे। पुराने शहर से थोड़ी दूरी पर सरकारी क्वार्टर बने थे। राजधानी को सुंदर बनाने के लिए कार्य चल रहा था। भोपाल शहर से दूर भारत हैवी इलैक्ट्रिकल्स बनना शुरू हो गया था और आगे बन रहा था। वहाँ के काम करने वालों के लिए कुछ घर बने थे और बन रहे थे। जहाँ नवाब के घर थे वहाँ एरिया कुछ अच्छा था। उसी तरफ हमीदियामेडिकल अस्पताल और कॉलेज था। महिलाओं के लिए सुल्तानिया जनाना अस्पताल था। नवाब कभी-कभी अपनी कार से शहर में घूमते नज़र आते थे। यहाँ पर हमें भी तात्याटोपे नगर (दक्षिण में तीन कमरे वाला सरकारी क्वार्टर मिला।’’[xi] शहर के अंदर भी कैसे पुराने संस्कार और रूढ़ियाँ काम करते हैं, इसका वर्ण भोपाल के प्रसंग में है। एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार और चिटफंड समूह की औरतों के जिक्र से कौशल्या जी ने शहरी लोगों में जाति के ढोंग को उजागर किया है।
आत्मकथा में लेखिका ने अलग अलग भाषा शैली का इस्तेमाल किया है। क्रोध, आक्रोश, दुख, निर्लिप्तता और संलग्नता की भाषा का बखूबी इस्तेमाल हुआ है। सखाराम की बीवी के प्रसंग की तरह ही भोपाल में ललिता के जीवन प्रसंगो के आखिरी हिस्से के बयान में अजीब ठहरावपूर्ण और निर्लिप्त भाषा है। मानों जहाँ दुख का आधिक्य है और लेखिका उसे किसी तरह कम करने की स्थिति में नहीं है, वहाँ भाषा जैसे पत्थर की तरह ठोस और निर्लिप्त है। लेकिन जहाँ वह विरोध कर सकती है, प्रतिकार कर सकती है, वहाँ भाषा आवेशपूर्ण और क्रोध भरी है।
इस आत्मकथा से जो जानकारी मिलती है, उसमें एक ही चीज मुझे लगातार प्रशानाकुल किए रही है कि उस जमाने में इतना पढ़-लिख कर, बाहर की दुनिया में काम करके अपना स्थान बना लेने के बाद भी विवाह के पश्चात् लेखिका ने आत्मनिर्भरता की तरफ क़दम क्यों नहीं बढ़ाया ? पति का दुर्व्यवहार देख रही थीं, पैसे पैसे के लिए निगहबानी थी तो उन्होंने नौकरी करने की क्यों नहीं सोची ?  जबकि उनकी एक बहन को छोड़कर अन्य सभी भाई-बहनों ने नौकरी की! समाज सेवा का काम भी विवाह के बाद लगभग उनसे छूट गया या कम हो गया, जो उनकी पहचान थी। समाजसेवा के काम को वे पुनः भोपाल से दिल्ली लौटने के बाद और कहें कि गृहस्थी से थोड़ी फुर्सत मिलने के बाद ही शुरू कर पाईं। स्त्री को जहाँ से ऊर्जा मिलती है, शक्ति मिलती है, वही काम वह पहले छोड़ देती है, यह अजीब विडंबना है।
दिल्ली में पति की सेवानिवृति के बाद मुनीरका के अपने डी डी ए फ्लैट में रहने आने के बाद कौशल्या जी ने आस पास की दलित महिलाओं में काम करना आरंभ किया। उन्होंने श्रीमती वेलायुधन, श्रीमती लता दरडे और कुछ अन्य महिलाओं के साथ मिलकर ‘महिला जागृति परिषद्’ का गठन किया। इस संस्था ने वाम और अन्य दलों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से काम करने के एक दो प्रयास किए लेकिन अनुभव से पाया कि अपनी लड़ाई अगर प्रमुखता से उठानी है तो अलग लड़नी पड़ेगी। संयुक्त प्रयत्नों में दलित स्वर डूब जाएगा। दलित समाज में काम करने के अपने अनुभव से कौशल्या जी दलित समाज पर टिप्पणी करती हैं कि स्वयं इस समाज में अपनी स्थिति को परिवर्तित करने की ललक और प्रयासों की कमी है। घर के पुरुष ही अपनी औरतों को सक्रिय रूप से काम करने के लिए रोकते हैं।[xii]   
इस आत्मकथा की विशेषता है कि यह पूरी तरह से लेखिका के निर्माण की कथा है। केन्द्र में लेखिका ही है, कोई और नहीं। जिन स्त्रियों मसलन् आजी, माँ आदि की कथाएँ थोड़ा विस्तार से हैं वे लेखिका की उन महिलाओं में मौजूद गुणों के प्रति सहज आकर्षण के कारण है। विवाह के बाद भी इस आत्मकथा की धुरी नहीं बदलती। देवेन्द्र कुमार के दुर्व्यवहारों का वर्णन बहुत जगह नहीं घेरता। वरना लेखिकाओं की आत्मकथा विवाह के पहले पिता-भाइयों और परिवार में अन्य प्रभावशाली पुरुषों की कथा कहते और विवाह के बाद पति के गुणगान या निंदा पर ख़त्म हो जाती है। यानि अमूमन स्त्री आत्मकथा का ढर्रा यह रहा है कि वह हर हाल में पुरुष केन्द्रिक होती है। या तो पिता/दादा या पति/प्रेमी के इर्द-गिर्द घूमकर कथा समाप्त हो जाती है। मानों ये लोग ही उसके जीवन में सब कुछ होने या न होने के लिए जिम्मेदार हों।
इस आत्मकथा की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है कि इसमें स्त्री का एक व्यापक सामाजिक स्पेस बनता है। यह उस समय और हिंदू समाज और उसमें भी दलित समाज की स्थिति को देखते हुए बड़ी बात है। ऐसा निश्चित ही समाज सुधार आंदोलनों के असर, महाराष्ट्रीय नवजागरण के प्रभाव और तत्कालीन राजनीतिक दलों के असर से संभव हुआ। उस समय देश भर में और महाराष्ट्र में कांग्रेस का और दलित समाज पर बाबा साहब का गहरा असर था। राजनीतिक और सामाजिक जागरण की एक बड़ी प्रक्रिया घट रही थी। इसने स्त्री की स्थिति और चेतना में भी परिवर्तन उपस्थित किया। लेकिन बड़े सामाजिक बदलावों का लक्ष्य व्यक्ति की चेतना को भीतर से बदले बिना पूरा नहीं हो सकता था, इसके लिए निजी प्रयत्नों की भी आवश्यकता थी। लेखिका और उनके परिवार में यह चेतना थी; विशेषकर उनकी माँ में जिसके कारण वे क़दम क़दम पर अपनी बेटियों के साथ खड़ी रहीं। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कौशल्या बैसंत्री की लड़ाई केवल दलित की लड़ाई नहीं थी, वह एक स्त्री की भी लड़ाई थी। वे दोहरे अभिशापों से लड़ रही थीं।  जैसा और जितना लेखिका ने इस लड़ाई में हासिल किया , यह आत्मकथा उसे विश्वसनीय ढ़ंग से सामने रखने में सफल रही है। रचना के स्तर पर यह बड़ी उपलब्धि है।

  

     

       
  



[i] बैसंत्री, कौशल्या, दोहरा अभिशाप, परमेशवरी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ. 31
[ii] वही, पृ. 32
[iii] वही, पृ. 51
[iv] वही, पृ. 89
[v] वही, पृ. 91
[vi] वही, पृ. 96
[vii] वही, पृ.97
[viii] वही, पृ. 106
[ix]  वही, पृ. 108
[x]  वही, पृ.111
[xi]  वही, पृ. 111
[xii] वही, पृ. 121

Comments

Unknown said…
आपने इस आत्मकथा वर्णन बहुत ही सार्थक शब्दों में किया है । जिसे कुछ समय में पड़कर आत्मकथा को समझा जा सकता है ।sukriya

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