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Showing posts from March, 2010

शिक्षा का उद्देश्य सफल होना है या मनुष्य बनना

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         विद्या विनय देती है। यह संस्कृत साहित्य की पुरानी उक्ति है। विनयी होने का क्या अर्थ है ? गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की स्वप्नसंस्था 'विश्वभारती' में 'डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन' के लिए नाम दिया गया 'विनय भवन'। यहाँ स्नातक स्तर के बाद सभी अनुशासनों के छात्र-छात्राओं के लिए 'बैचलर ऑफ एजुकेशन' और 'मास्टर ऑफ एजुकेशन' की पढ़ाई होती है। स्नातक तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्र-छात्राओं को जीवन के व्यवहारिक क्षेत्र में प्रवेश के योग्य माना गया। जीवन और शिक्षा में एकरूपता के लिए तैयार करने में विनय भवन की भूमिका मानी गई। लेकिन गुरूदेव की शिक्षा के सन्दर्भ में जो धारणा थी उससे आज की शिक्षानीति का कोई मेल नहीं। आज के 'शिक्षागुरूओं' ने विनय की परिभाषा इतनी दूर तक खींची है कि यह चाटुकार होना, लचीला होना , अनुगामी होना , विश्वास करना, मानना, सहनशील होना और न जाने क्या-क्या हो गया है। विद्या अर्जन का यह उद्देश्य नहीं होना चाहिए कि व्यववहारिक या तकनीकी कौशल हासिल करके जीवन में सफलता की सीढ़ियाँ चढें। सफलता के कुछ टिप्स बन गए हैं जो सफल है वह

माध्यम और सामाजिक सरोकार - पीटर गोल्डिंग

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      तकनीकी क्षेत्र में तेजी से आ रहे परिवर्तनों ने परंपरित जीवनशैली पर इनके प्रभावों को लेकर काफी आलोचना और आशंका पैदा की। कोई आश्चर्य नहीं कि सर्वाधिक नए माध्यम को भी उसी भर्त्सनामूलक आलोचना के नजरिए से देखा गया। टेलीविजन के एक आरंभिक आलोचक ने अपना अनुभव इन शब्दों में लिखा है-     ''आणविक बमों के बुखार से पीड़ित इस दुनिया में जो बहुत भयावह ढंग से शांति और युध्द के बीच संतुलन बनाए हुए है, एक नया ख़तरा पैदा हुआ है , टेलीविजन का ख़तरा-अणु के जेकिल और हाईड, एक ऐसी ताकत जो संस्कृति और मनोरंजन के क्षेत्र में क्रांति पैदा कर दे, जो एक ही साथ विनाश का दानव भी है और उसका निषेधक भी।''       माध्यम के इस तकनीकी पक्ष के प्रति जागरुकता और भी ज्यादा गहराई से प्रसारण के साथ जुड़ी हुई है। यद्यपि तकनीक नएपन के प्रति लगाव सिनेमा के आरंभिक इतिहास का महत्वपूर्ण पक्ष रहा है। शायद इसकी जड़ें और भी गहरी हैं, उदाहरण के लिए, औेद्योगीकरण के विरूध्द लोकप्रिय विद्रोहों के रूप में। नई तकनीक ने कार्य और अवकाश दोनों में बदलाव किया है लेकिन दोनों के बीच का संबंध बहुत महत्वपूर्ण है कम से कम दोनों

पत्रकारिता में पेशेवर रवैय्या आवश्यक है- पीटर गोल्डिंग

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     जनमाध्यम से संबंधित हमारी जानकारी में एक बड़ी चूक संप्रेषक या संचारकर्ता के बारे में किसी भी किस्म की विस्तृत जानकारी का अभाव है; निर्माता, लेखक, सर्जक, प्रबंधक, तकनीकीविद्, पत्रकार और अन्य जिनके निर्णय और विचार जनमाध्यम की प्रस्तुति को आकार देते हैं, इनके बारे में हमें न्यूनतम जानकारी होती है। सांस्थानिक बौध्दिकों और मनोरंजनकर्ताओं आदि जो संचार उद्योग की कार्यशक्ति का निर्माण करते हैं, संख्या में तेजी से वृध्दि हुई है, लेकिन अभी भी सही आंकड़ों का आकलन कर पाना एक मुश्किल काम है।        जनगणना के आंकड़े अपर्याप्त लेकिन बुनियादी दिशानिर्देशक आंकड़े हैं। ये बताते हैं कि ' लेखकों, पत्रकारों , और अन्य कामों से जुड़े मजदूरों ' की संयुक्त संख्या में 1951 में 19,086 से 1966 में 31,950 वृध्दि हुई है। इनमें निश्चित तौर पर ज्यादा संख्या विभिन्न किस्म के पत्रकारों की थी जिनका कुल आंकड़ा 24,000 था। इनमें से केवल 3,500 राष्ट्रीय अखबारों में काम करते थे। इनमें से लेखकों की स्थिति ज्यादा सन्दिग्ध थी। अधिकांश लेखकों के पास सांस्थानिक आधार था, ये किसी न किसी पेशे से या ज्यादातर शिक्षाजगत से

स्त्री का स्व और आत्मकथा के मानक

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                 ' स्व ' या ' सेल्फ ' पुंसवादी समीक्षा में आत्मकथा लेखन का बुनियादी आधार है वह कहीं होता नहीं है बनाया जाता है। अर्जित किया जाता है। यह स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक ' स्व ' वह है जो अंतर्भुक्त है। भरा-पूरा है। इंसान के होने की अनिवार्य शर्त है। आधुनिक अर्थ में ' स्व ' को हासिल करने की कोशिश इस स्वाभाविक स्व से दूर भागने की कोशिश है। यहां तक कि इस स्व की सहज स्वामिनी स्त्री को भी इसके कारण हीनताबोध कराया जाता है। क्योंकि स्त्री के स्व और संसार के बाहरी स्व के बीच बड़ा अंतर होता है। उसके अंतर्भुक्त स्व को स्व की कोटि से ही खारिज कर दिया गया। स्त्री के स्व की अन्यतम विशेषता होती है कि इसमें बहुत स्पेश होता है। अपने से ज्यादा दूसरे के लिए। यह एक किस्म की अंतर्क्रिया है स्वयं , अन्य तथा वास्तविक संसार के बीच।   स्व का निर्माण अंदर मौजूद सहज स्व की मौत है। स्व के निर्माण के क्रम में बाहरी बाधाएं , रुढ़ियां , प्रतिबंध आदि सब काम करते हैं। इनसे टकराते हुए , संघर्ष करते हुए ही इसका निर्माण संभव है। यह संसार के साथ मैं का अंतर्संघर्ष है।       

जायज मांग है महिला आरक्षण में आरक्षण

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         स्त्री आरक्षण का मुद्दा समाज में स्त्री की अलग पहचान का मुद्दा है। स्त्री के साथ समाज का विषम संबंध ,उसका शोषण और दमन ,राजनीतिक सामाजिक पिछड़ापन आदि तर्कों के पीछे सर्वोपरि तर्क है स्त्री की भिन्नता का तर्क। स्त्री की जैविक ,ऐच्छिक और सामाजिक-राजनैतिक जरुरतें बिल्कुल वही नहीं हैं जो मुख्यधारा की जरुरतें हैं और जिनके तहत समग्र रुप से स्त्री को घटाया जाता है। भिन्नता के इस सवाल को तब अहमियत मिली जब स्त्री की जैविक भिन्नता को विशिष्ट तौर पर उठाया गया।    लैंगिक विभाजन सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में बहुत पहले से था लेकिन यूरोप में विभिन्न आंदोलनों के जरिए स्त्रीवादियों ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। जो लोग आरक्षण के अंदर आरक्षण मांग रहे हैं वे (सपा,बसपा राजेडी आदि) सभी भिन्नता के नजरिए से बुनियादी तौर पर सही हैं। यह समझना चाहिए कि स्त्री के संदर्भ में व्यापक सवाल सार्वजनीन हैं। लेकिन स्त्री के समस्त सवाल सवाल और समस्याएं सार्वजनीन नहीं हो सकतीं।      जाति और धर्म भारतीय समाज की सांगठनिक विशेषता रही है। भारत में भिन्नता का मूलाधार है जाति और धर्म । यह कारक आरक्षण पर भी लागू होत