महादेवी वर्मा का स्‍त्रीवादी नजरि‍या

महादेवी का काव्य संसार कई मायनों में विशिष्ट और अनूठा है। विशेषत: उन जगहों पर जहाँ छायावाद के संदर्भ में निजता,अनुभूति ,स्व और सामाजिकता की बार-बार बात की जाती है। महादेवी छायावाद की सीमा में दाखिल होने वाली और उसमें अपनी जगह बनाने वाली एकमात्र कवियित्री थी। जो सबसे बाद में छायावाद की परिसीमा में आई और सबसे अंत तक रही, जब छायावादी शैली की कविता नहीं लिख सकीं तो कविता लिखने से ही अलविदा कह दिया। अन्य छायावादी कवियों की तरह वे प्रगतिवाद और दूसरी धारा की कविता-यात्रा में शामिल नहीं हुई। सन् 80 के दशक तक वह जीवित रहीं, लगातार सक्रिय रहीं, गद्य लेखन में लगातार सक्रिय रहीं किंतु कविता के संसार की ओर उन्होंने मुड़कर नहीं देखा।
कविता की खास शैली,विषयवस्तु को लेकर महादेवी की यह अत्यधिक संवेदनशीलता कई सवालों को उठाती है, हिन्दी आलोचना ने महादेवी की कविता और काव्य जगत को लेकर कोई गंभीर रूख नहीं दिखाया है। महादेवी की कविता की विषयवस्तु के आधार पर और लगभग महादेवी से भी ज्यादा बार दोहराते हुए महादेवी की कविता को सीमित भावबोध की कविता आंसू,वेदना और करूणा की कविता आदि कहकर छुट्टी पा ली है।
महादेवी की कविता की धारणा वही नहीं है जो समकालीन छायावादी कवियों की है। आमतौर पर मर्दवादी आलोचना ने उनके काव्य और गद्य में अंतर किया है। मसलन् अमृत राय ने यहां तक लिखा है '' महादेवी के काव्य को मूलत: आत्मकेन्द्रिक,आत्मलीन कहना ठीक है; अपनी ही पीड़ा के वृत्ता में उसकी परिसमाप्ति है। संसार की पीड़ा का स्वत: उसके लिए अधिक मूल्य नहीं है, मूल्य यदि है तो कवि की पीड़ा के रंग को गहराई देने वाले उपादान के रूप में। '' आगे लिखा '' महादेवी का गद्य मूलत: समाजकेन्द्रिक है।'' इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है जिसकी ओर रामविलास शर्मा ने ध्यान खींचा है, उन्होंने लिखा है '' महादेवी का साहित्य आधुनिक काल में नारी-जागरण्ा से घनिष्ठ रूप से सम्बध्द है। '' आगे लिखा '' उनकी करूणा व्यक्तिपरक अथवा आत्मपरक ही नहीं है। वह बहिर्मुखी समाजपरक भी है। '' रामविलास शर्मा ने महादेवी के हंसी के रहस्य का उद्धाटन करते हुए लिखा '' यह हँसी आवरण है। इसके नीचे मानव-जीवन की गहरी परख और उसी के अनुरूप समवेदना छिपी हुई है।''
इसी तरह गंगा प्रसाद पांडेय ने उनके यहां ''समन्वयवादी दृष्टि'' और ''सामंजस्यपूर्ण जीवन दर्शन'' को उनकी कविता का मूलाधार बताया है। वहीं डा.नगेन्द्र को '' ऐतिहासिक एकसूत्रता'' नजर आती है। इस प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महादेवी वर्मा न तो सामंजस्यवादी हैं और न समन्वयवादी ही हैं। बल्कि स्त्रीवादी हैं। उनकी कविता का आधार समन्वयवाद नहीं है। बल्कि अनुभूति है। कविता का समस्त कार्य-व्यापार अनुभूति के आधार पर ही चलता है। यहां तक कि प्रकृति संबंधी कविताओं में भी उन्होंने इसी को आधार बनाया है। महादेवी ने '' नीलाम्बरा'' की भूमिका में लिखा है '' मेरे गीतों में प्रकृति मेरी भावानुकृति बनकर ही आ सकती थी, पर उसके संबंध में कुछ भी कहना मेरे लिए सहज नहीं। '' सामान्य तौर पर रूपवादी नजरिया शब्द और भौतिक संसार का रिश्ता नहीं मानता। यही बीमारी संरचनावादी नजरिए में भी है। इन दोनों ही किस्म के नजरिए का प्रतिवाद करते हुए शब्दों का भौतिक संबंध रेखांकित करते हुए महादेवी लिखा ने '' शब्द संकेत लौकिक पृष्ठभूमि में बनते हैं , अत: अलौकिक संवेगों की अभिव्यक्ति भी लौकिक शब्द प्रतीकों में ही सम्भव है। केवल अलौकिक संवेदन के भवपत्र में प्रकृति के व्यापक रूप का फैलाव अधिक मिलेगा। जिन साधक कवियों ने प्रकृति को माया माना,उन्होंने भी उसकी निन्दा के लिए उस पर चेतना का आरोप किया और उसके रूपाकर्षण को स्वीकार किया।''
महादेवी की कविता और गद्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह सब चीजों को स्त्री के साथ जोड़कर पेश करती है। प्रकृति को स्त्री से जोड़ती हैं, स्वाधीनता के भाव को स्त्री से जोड़ती हैं, काव्यबोध को स्त्री से जोड़ती हैं, स्वाधीनता संग्राम को स्त्री से जोड़ती हैं। पूंजीवाद की व्याख्या करते हुए स्त्री को आधार बनाती हैं। असमानता और वैषम्य पर बातें करते हुए स्त्री संदर्भ को केन्द्र में रखती हैं। कहने का तात्पर्य यह है स्त्री के बिना महादेवी के भाव, विचार, विषयवस्तु और संसार के किसी भी कार्य व्यापार की कल्पना नहीं की जा सकती। स्त्री को इस तरह सृजन ,समाज और विचार के साथ अन्तर्ग्रथित करने का भाव ही है जो उन्हें छायावादी नहीं स्त्रीवादी बनाता है। छायावादी कविता में स्त्री अपने इतिहास के साथ दाखिल नहीं होती बल्कि स्त्री के इतिहास को छायावादी कवियों ने धुंए का इतिहास बना दिया है। स्त्री का इतिहास इतना मलिन और फीका नहीं है कि उस पर बात न की जाए, यह सोने जैसा इतिहास है। लेकिन इस ज्वलित इतिहास को धूमिल बनाकर पेश किया गया है। इस इतिहास में से स्त्री को ढूंढ़ना मृत्यु में जीवन ढूंढ़ना है। विस्मरण में स्मरण की कथा है यह। जैसे '' शेषयामा यामिनी मेरा निकट निर्वाण'' नामक कविता में महादेवी ने लिखा '' स्वर्ण की जलती तुला आलोक का व्यवसाय उज्ज्वल/ धूम-रेखा ने लिखा पर यह ज्वलित इतिहास धूमिल/ ढूंढती झंझा मुझे ले / मृत्यु का वरदान।''
महादेवी की कविता में से स्त्री को निकालकर किसी भी किस्म का विमर्श तैयार नहीं किया जा सकता। स्त्री को विश्व के समस्त कार्य-व्यापार में आधार बनाने का प्रधान कारण यह है कि स्त्री समस्त संस्कृति की सर्जक है। वह सिर्फ एक लिंग मात्र ही नहीं है। वह संसार को चलाने वाली गाड़ी के दो पहियों में से एक पहिया नहीं है। मानव सभ्यता के विकास की सभी संस्कृतियों में स्त्री सक्रिय रही है। स्त्री की यही सक्रियता है जो उन्हें अपनी तरफ खींचती है। जैसे -
तुम अमर प्रतीक्षा हो, मैं
पग विरह पथिक का धीमा;
आते जाते मिट जाऊँ
पाऊँ न पंथ की सीमा!
इसी तरह भारतमाता के शस्य-श्यामला वाले चित्र के एकदम विपरीत भारतमाता/स्त्री की एकदम नयी छवि पेश करते हुए लिखा-
कह दे माँ क्या अब देखूँ !
देखूँ खिलतीं कलियाँ या
प्यासे सूखे अधरों को ,
तेरी चिर यौवन-सुषमा
या जर्जर जीवन देखूँ। ...

कलियों की घन -जाली में
छिपती देखूँ लतिकाएँ
या दुर्दिन के हाथों में
लज्जा की करूणा देखूँ !
स्त्री की नियामक भूमिका को रेखांकित करने से मर्दवादी नजरिया परहेज करता रहा है। स्त्री की केन्द्रीय भूमिका की उपेक्षा के लिए तरह-तरह के बहाने खोजता रहा है। महादेवी ने लिखा '' नारी केवल मांस पिंड की संज्ञा नहीं है। आदिम काल से आज तक विकास पथ पर पुरूष का साथ देकर ,उसकी यात्रा को सरल बनाकर उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भरकर, मानवी ने जिस व्यक्तित्व,चेतना और हृदय का विकास किया है,उसी का पर्याय नारी है। किसी भी जीवित जाति ने उसके विविध रूपों और शक्तियों की अवमानना नहीं की, परन्तु किसी भी मरणासन्ना जाति ने ,अपनी मृत्यु की व्यथा कम करने के लिए उसे मदिरा से अधिक महत्व नहीं दिया।''
इन दिनों स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने का नजरिया जोरों पर है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के तेज हो जाने कारण विभिन्ना माध्यमों से लेकर अन्य विमर्श के क्षेत्रों में स्त्री देह का प्रदर्शन और उसकी शारीरिक सौष्ठव छवि पर ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। भूमंडलीकरण ने स्त्री देह से स्त्री की आत्मा को बाहर कर दिया है। अब हम स्त्री को नहीं स्त्रीदेह को देखते हैं। स्त्री की आत्मा पर नहीं उसके शरीर पर ही ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। स्त्री का जीवन के यथार्थ से कट जाना स्वयं में सबसे बड़ी त्रासद घटना है। इस तरह की दृष्टि का निषेध करते हुए महादेवी ने लिखा '' नारी ऐसा यंत्र मात्र नहीं, जिसके सब कल-पुर्जों का प्रदर्शन ही ,ज्ञान की पूर्णता और उनका संयोजन ही क्रियाशीलता हो सके। निर्जीव शरीर -विज्ञान ही उसके जीवन की सृजनात्मक शक्तियों का परिचय नहीं दे सकता।'' आगे लिखा '' आज की परिस्थितियों में ,अनियंत्रित वासना का प्रदर्शन स्त्री के प्रति क्रूर व्यंग्य ही नहीं, जीवन के प्रति विश्वासघात भी है।'' '' नारी-जीवन की अधिकांश विकृतियों के मूल में पुरूष की यही प्रवृत्तिा मिलती है, अत: आधुनिक नारी नए नामों और नूतन आवरणों में भी इसे पहचानने में भूल नहीं करेगी।'' इसी प्रसंग में महादेवी वर्मा की स्त्री विषयक धारणा पर गौर करना समीचीन होगा। उन्होंने लिखा है उसकी '' बेड़ियां टूटी नहीं, रूढ़ियां छूटी नहीं, किंतु उसने मुक्त आकाश का स्पर्श पा लिया। इस प्रकार मुक्ति और बंधन दोनों साथ रहे और मेरे विचार में आज भी हैं। इसके अतिरिक्त स्वतंत्र होने के उपरांत विभाजन की रक्त से उफनती वैतरणी ने भी उसे गहरे घाव दिए हैं।''
हिन्दी की आलोचना में अनुभूति के सवाल पर अन्तर्विरोधी रवैयया रहा है। जबकि महादेवी वर्मा के लिए अनुभूति की समस्या भिन्ना किस्म की रही है। अनुभूति के वैविध्य को उन्होंने रेखांकित किया है। अनुभूति के अंतर को भी उन्होंने रेखांकित किया है। अनुभूति सामान्य होती है, इस प्रचलित धारणा का उन्होंने खण्डन किया है। महादेवी वर्मा ने लिखा '' जहां तक अनुभूति का प्रश्न है ,वह तो स्थूल और गोचर जगत में भी सामान्य नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि फूल को ग्रहण कर ले,यह स्वाभाविक है,परंतु सबके अन्तर्जगत में अनुभूति एक सी स्थिति नहीं पा सकती।'' महादेवी की कविता को एकाधिक बार पढ़ने पर कई चीजें दिलचस्प ढ़ंग से सामने आती हैं। महादेवी ने अपनी कई कविताओं में 'ऑंसू' कृति में प्रसाद द्वारा प्रयुक्त छंद शैली अपनायी है। प्रसाद ने जिस तरह के भावों की अभिव्यक्ति 'आंसू' कृति में की है लगभग वैसे ही मिलते-जुलते भाव यहां तक कि मिलती-जुलती पंक्तियां भी महादेवी के यहां हैं। प्रेम का वर्णन, प्रेमजनित असफलता का वर्णन, संसार की निष्ठुरता का जिक्र और अपनी निष्फलता का उल्लेख करते हुए अंतत: व्यापक समष्टि भाव में जीवन की सार्थकता की खोज प्रसाद के यहां है और महादेवी के यहां भी। कह सकते हैं छायावादी कवियों में भावबोध और समवेदना के स्तर पर महादेवी की कविताएं पन्त और निराला की तुलना में प्रसाद के काव्य संसार से ज्यादा मेल खाती हैं। लेकिन वर्ण्य-विषय और उसकी परिणति के एकरूपता के होने के बावजूद स्त्री के अनुभव-संसार और पुरूष के अनुभव संसार का जो फर्क हो सकता है वहीं फर्क प्रसाद और महादेवी की कविता में है।
महादेवी की कविताओं में सहज ही जीवन की कुछ महत्वपूर्ण परिस्थितियां चित्रित हैं। इनमें एकाकीपन एक भाव है जिसे महादेवी की अन्यतम विशेषता मानते हुए अमृत राय ने महादेवी की कविता के बारे में 'एकाकिनी बरसात' पदबंध का प्रयोग किया था, इसके अलावा महादेवी की कविता में 'केयरिंग' भाव दिखाई देता है। जिसमें वह अपने प्रिय के प्रति समर्पणशील होकर उसका दुख, तकलीफ,पीड़ा, थकान, श्रम आदि सबको हर लेना चाहती है। उसके लिए एक आराम की दुनिया निर्मित करना चाहती है, दिखाई देता है। महादेवी की कविता में व्यक्त इस भाव को करूणा नहीं कहा जा सकता। यह प्रेम का ही रूप है। जहां स्त्री समर्पित होकर अपने प्रिय के लिए एक सुंदर दुनिया और सहिष्णु दुनिया बनाना चाहती है, यह स्त्री का सहजात गुण है। कह सकते हैं कि यह उसका प्रकृत गुण है जो प्रकृति के संसर्ग से उसे मिला है। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति का उलटा है संस्कृति।
पुरूष के लिए या प्रिय के लिए स्त्री का समर्पित होना स्त्री का प्रकृति प्रदत्ता गुण कहा जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि यह संस्कृति निर्मित गुण है। प्रकृति ने हर व्यक्ति को अपने लिए जीना सिखाया है, यहां 'सरवाइल ऑफ फिटेस्ट' की लड़ाई है, यहां सर्वोत्ताम ही जियेगा। दूसरों के लिए जीना अपना कुछ छोड़कर जीना, त्याग करना , इन सभी उदार गुणों को मनुष्य ने अपने भीतर की आदिम प्रकृति को संस्कारित करके ही हासिल किया है। महादेवी का आधुनिक मन मानवता की इस विराट थाती को संभाले हुए पुंस केन्द्रिक मानसिकता से टकराने का साहस करता है। महादेवी अनुदार हुए बिना बराबरी के स्तर पर इस पुरूष केन्द्रित समाज से स्त्री के लिए उतनी ही उदारता, त्याग, ममता और संयम की मांग करती है। प्रेम का समर्पण से नाता है। लेकिन इस समर्पण का अर्थ स्वयं को मिटा देना नहीं है। महादेवी की प्रेम संबंधी पंक्तियां प्रेम के अंतर्गत यौनिक आधार पर गैर बराबरी के संबंध को दरशाने वाली हैं। इसी कारण प्रेम में मिलन की कामना नहीं है। सुखद बात यह है कि महादेवी के यहां इस विषम संबंध की स्वीकारोक्ति नहीं है। छायावाद के अन्तर्गत वैयक्तिकता की पहचान के रूप में प्रेमाभिव्यक्ति को देखा गया है।निजी संबंधों के उद्धाटन को मील का पत्थर बताया गया। यानी छायावाद की अन्यतम विशेषता बताया गया। लेकिन जब स्त्री प्रेम पर कविता लिखती है। तो वह कविता कैसी होगी ? उस काव्य संसार के भीतर क्या-क्या चीजें शामिल होंगी। उस अभिव्यक्ति का रूप क्या होगा ? और नितांत वैयक्तिक भाव के सरोकार कितनी दूर तक जाएंगे इन्हें यदि देखना हो तो महादेवी की कविता को गंभीरता से पढ़ना चाहिए। महादेवी की कविता में प्रेम का जो रूप उभरता है वह इसे गोपन और निजी नहीं रहने देता, यह एक व्यक्ति के मुँह से दूसरे व्यक्ति के कान तक कही गयी कथा नहीं है। स्त्री के साथ सभ्य समाज द्वारा सदियों से किए गए व्यवहार और समस्त स्त्री जाति की तरफ से उसका अस्वीकार है।
प्रेम संबंधी जितनी भी कविताएं लिखीं गयी उन सबका आधार स्त्री शरीर रहा है। भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। प्रसाद 'ऑंसू' की की कविताएं जिनसे महादेवी की कविता की तुलना ऊपर की गई है, देह को आधार बनाकर लिखी गयी हैं। रीतिवादी कविता की तरह ही यहाँ स्त्री शरीर के विभिन्न अंगों का नख-शिख वर्णन किया गया है। महादेवी के आधुनिक स्त्रीवादी विवेचन में स्त्री के शरीर को पाठ के भीतर पढ़ने की दृष्टि पर जोर दिया गया है। स्त्री स्वयं अपने शरीर को कैसे देखती है और पुरूष उसके शरीर को कैसे देखता है वह सृजनात्मक पाठ में कैसे अभिव्यक्त हो रही है यह देखना भी महत्वपूर्ण है। स्त्री के सवालों पर तल्ख ढ़ंग से सोचने और लिखने वाली महादेवी अपनी कविता में स्त्री देह को बहुत ही तटस्थ लेकिन आत्मीय भाव से देखती है। संसार के समस्त उपादानों के प्रत्युत्तार में स्त्री के पास एक उपादान है उसका शरीर ।
स्त्री शरीर महादेवी के लिए समग्र वस्तु है। शरीर के किसी खास अंग की चर्चा उनके यहाँ नहीं मिलती। शारीरिक क्रिया-व्यापार के संदर्भ में ही शरीर की चर्चा आयी है। मसलन् प्रिय की प्रतीक्षा में रत ऑंखें ,प्रिय पथ को बुहारने के लिए उत्सुक पलकें अर्चना के लिए तत्पर अंगुलियों के चित्र महादेवी के यहां मिलते हैं।इन शारीरिक अंगों के अलावा महादेवी की कविता में सबसे ज्यादा देह के साथ प्राण की चर्चा हुई है। ये प्राण कभी उर है कभी ह्नदय है कभी पुलक और कभी वेदना। प्राण शब्द जीवितावस्था के लिए प्रयुक्त न होकर स्त्री की अस्मिता के लिए प्रयुक्त हुआ है। स्त्री की पहचान का सवाल अहम सवाल है। संघर्षरत स्त्री का चित्र महादेवी खींचती हैं लेकिन ऐसी स्त्री के सामने भी पहचान का सवाल सबसे विकट सवाल है। संसार के संघर्ष में लिप्त आत्मनिर्भर स्त्री के लिए पहचान का संकट उसके संघर्ष और कर्म की सामाजिक स्वीकृति से जुड़ा हुआ है।
जैसे-
दूर घर मैं पथ से अनजान!

मेरी ही चितवन से उमड़ा तम का पारावार;
मेरी आशा के नवअंकुर शूलों में साकार ;
पुलिन सिकतामय मेरे प्राण!
मेरे विश्वासों में बहती रहती झंझावात;
आंसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात;
कसक में विद्युत अंतर्धान!
मेरी ही प्रतिध्वनि करती पल-पल मेरा उपहास;
मेरी पदध्वनि में होता नित औरों का आभास;
नहीं मुझसे मेरी पहचान!

आधुनिक हिन्दी कविता में महादेवी वर्मा अकेली ऐसी लेखिका है जो व्यापक स्तर पर ''बायनरी अपोजीशन'' की धारणा के आधार पर भाषिक प्रयोग करती है। उनकी अधिकांश कविताओं में बायनरी अपोजीशन के प्रयोग भरे पड़े हैं।जैसे- 'छाया की आंख मिचौनी', ' आंसू का मोल न लूँगी मैं', ' दीपक में पतंग जलता क्यों', ' शलभ में शापमय वर हूँ', ' हुए शूल अक्षत मुझे धूल चंदन', 'यह व्यथा की रात का कैसा सबेरा है' , ' सब आंखों के ऑंसू उजले सबके सपनों में सत्य पला', 'निमिष से मेरे विरह के कल्प बीते' ,क्यों मुझे प्रिय हों न बंधन' , 'यह संध्या फूली सजीली !' ,' प्रिय चिरंतन है सजनी' आदि कविताओं को विवेचित किया जा सकता है।
बायनरी अपोजीशन की रणनीति का इस्तेमाल कविता में नए अर्थ की सृष्टि करता है, एकाधिक अर्थों की सृष्टि करता है। इसे पाठ की देरीदियन रणनीति भी कह सकते हैं। इसके जरिए लेखिका अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित करती है, चीजों को स्वाभाविक और मौलिक रूप में पेश करती है, इस रणनीति के कारण ही चीजें स्वयं प्रमाणित होती हैं, उनको अन्य के प्रमाण की जरूरत नहीं होती। बायनरी अपोजीशन का प्रयोग चीजों को रेखांकित करने अथवा उभारने के लिए किया जाता है। यह मूलत: ''डिकंस्ट्रक्शन'' है। जैसे-
चुका पाएगा कैसे बोल !
मेरा निर्धन-सा जीवन तेरे वैभव का मोल !

अंचल में मधु भर जो लातीं ,
मुस्कानों में अश्रु बसातीं,
बिन समझे जग पर लुट जातीं,
उन कलियों को कैसे ले यह फीकी स्मित बेमोल !

हमने कभी सोचा ही नहीं है कि महादेवी ने इतने व्यापक रूप में 'डिकंस्ट्रक्शन' के प्रयोग किए हैं। वे जब बायनरी अपोजीशन का प्रयोग करती हैं तो हायरार्की अथवा भेद का उद्धाटन करती हैं। यह भेद पाठ के जरिए व्यक्त होता है, पाठ से शुरू होता है और इसकी कक्षा पाठ के बाहर समाज तक फैली हुई है।
जैसे -
प्रिय सुधि भूले री मैं पथ भूली ! ....
तज उनका गिरि सा गुरु अंतर
मैं सिकता -कण सी आई झर
आज सजनि उनसे परिचय क्या !
वे घन- चुंबित मैं पथ -धूली !

बायनरी अपोजीशन की रणनीति के कारण अर्थ अनिश्चित ,परिवर्तनीय और एक-दूसरे पर आश्रित नजर आता है। इसके कारण लेखिका की मंशा का अर्थ भी पलट जाता है। लेखिका ने जिस मंशा को केन्द्र में रखकर लिखा होता है, पाठ के निर्मित होने के बाद वही मंशा पाठ से नदारत हो जाती है। बायनरी अपोजीशन की रणनीति के कारण व्याख्या और पुनर्व्याख्या की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
जैसे- ''सपने जगाती आ ! '' कविता को उदाहरण के लिए देखा जा सकता है। लिखा है -
सपने जगाती आ !
श्याम अंचल,
स्नेह-उर्म्मिल
तारकों से चित्र -उज्ज्वल,
चिर घटा-सी चाप पुलकें उठाती आ !
हर पल खिलाती आ ! ...
.
बायनरी अपोजीशन को केन्द्र में रखकर महादेवी की कविताएं पढ़ने से यह भी पता चलता है कि लेखिका का किस पर नियंत्रण है और किस पर नियंत्रण नहीं है। लेखका की शक्ति कहां है और गुणात्मक रूप से चीजों में कैसे अंतर करें। इसी प्रक्रिया में महादेवी वर्मा की आलोचनात्मक रीडिंग भी उभरकर सामने आती है। हमारी प्रचलित आलोचना यह तो बताती है कि महादेवी वर्मा की शक्ति क्या है अथवा किन चीजों पर उनका नियंत्रण है, किन्तु यह नहीं बताती कि उनका किन चीजों पर नियंत्रण नहीं है। इसी प्रसंग में यह भी ध्यान रहे कि उनके गद्य और पद्य के नजरिए में भेद करना सही नहीं होगा। यह भेद फालतू है, निरर्थकहै। लेखक का एक ही नजरिया होता है उसके पास दो नजरिए नहीं होते। इसलिए महादेवी के पद्य और गद्य में व्यक्त दृष्टिकोण में भेद करना सही नहीं होगा। महादेवी के यहां स्त्री के अनेक रूप मिलते हैं, उनका चित्रण मिलता है। किंतु एक चीज साझा है कि उनके यहां स्त्री समस्यामूलक नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्त्री के जीवन में समस्याएं नहीं है। बल्कि इसका अर्थ यह है कि स्त्री का कर्म अन्य किसी के लिए समस्यामूलक नहीं होता। स्त्री को उन्होंने सत्य, सद्गुण, प्रकृति, व्यवस्था और प्रतीक से जोड़ा है। इस तरह उन्होंने स्त्री को समस्याविहीन बनाया है। उनकी समस्त पूर्व-धारणाओं का आधार स्त्री का यही समस्याविहीन रूप है। समस्याविहीन रूप को बनाने की जरूरत क्यों महसूस की गई इस पर विचार करने की जरूरत है। मूलत: ऐसा करते हुए वह स्त्री को विमर्श और सृजन के केन्द्र में ले आती हैं। पुरूष के विकल्प के रूप में सामने लाती हैं। उसे कत्तर्ाा के रूप में चित्रित करना चाहती हैं।
महादेवी के पाठ की विशेषता है कि वह स्वयं में सम्पूर्ण होता है। पाठ में ही सारी दुनिया निहित होती है। इस पाठ को जितनी बार पढ़ते हैं उतनी बार नए अर्थ की सृष्टि होती है। अर्थों के अनेक स्तरों का पाठ से निकलना स्वयं में लेखिका के दावों को खण्डित कर देता है। आप जितनी बार महादेवी की कविता को पढ़ते हैं उतना ही उनकी कविता अर्थ की नयी ऊँचाईयों को स्पर्श करती नजर आती है।
महादेवी के पाठ में स्त्री सिर्फ स्त्री के रूप में ही नहीं आती बल्कि संस्थान के रूप में सामाजिक और राजनीतिक प्राणी के रूप में अभिव्यक्त होती है। आप ज्यों ही पाठ के अर्थ को खोलने जाते हैं उत्तोजक अन्तर्विरोधों से दो-चार होते हैं। बहुस्तरीय संदर्भों से गुजरते हैं। अंतहीन निष्कर्षों और प्रतिक्रियाओं से गुजरते हैं।
जैसे-
मेरे शैशव के मधुमय घुल,
मेरे यौवन के मद में ढुल,
मेरे आंसू स्मित में हिलमिल
मेरे क्यों न कहाते ?
महादेवी के पाठ की रणनीति यह है कि वे पाठ और यथार्थ के किसी कॉमनसेंस से अपनी बात शुरू करती हैं ,उसके बाद उसके विलोम बनाने शुरू करती हैं। वह ऐसा निष्कर्ष बनाती है जिसें अभी आना है। अथवा निष्कर्ष पाठ में प्रच्छन्ना होता है।
जैसे-
कनक से दिन मोती सी रात,
सुनहली साँझ गुलाबी प्रात: ;
मिटाता रंगता बारम्बार,
कौन जग का यह चित्राधार। ...
रजतप्याले में निद्रा ढाल,
बांट देती जो रजनी बाल,
उसे कलियों में आंसू घोल,
चुकाना पड़ता किसको मोल।
उपरोक्त पंक्तियां नमूना मात्र हैं, ऐसी पंक्तियां महादेवी के यहां फैली हुई हैं। इन्हें सहज ही किसी भी संकलन में देखा जा सकता है।
पूंजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद है। इस दौर की उनकी कविताएं स्त्री की एकदम नयी छवि को सामने लाती हैं। महादेवी वर्मा ने परंपरागत स्त्री से भिन्ना स्त्री को चित्रित किया है। यह इमेज के लिहाज से परंपरागत है किंतु भाव और विचार के लिहाज से आधुनिक है। यह स्त्री एकदम नयी अस्मिता की स्थापना का प्रयास है। इस तरह की स्त्री इमेजों के जरिए महादेवी ने यथार्थ, सामाजिक यथार्थ और स्त्री शरीर के विमर्श को उद्धाटित किया है। जूडिथ बटलर के शब्दों को उधार लेकर कहें तो यह ऐसा विमर्श है जो महिला को शक्तिशाली बनाता है। यह ऐसा विमर्श है जो यथार्थ का नियमन करता है। मेक्स वेबर के शब्दों में कहें तो महादेवी ने स्त्री के रेशनल विमर्श का व्यापक कैनवास रचा है। उसके यहां स्त्री की सामाजिक विमर्श में शिरकत को सहज ही देखा जा सकता है। स्त्री केन्द्रित कार्य विभाजन को वे एकसिरे से खारिज करती हैं। महादेवी को घरेलू औरत नहीं बनाना चाहतीं। इस प्रसंग में '' घिरती रहे रात ! '' कविता को ले सकते हैं। इसमें एक जगह लिखा है '' चली मुक्त मैं ज्यों मलय की मधुर बात ! घिरती रहे रात !''
इसी तरह महादेवी के यहां स्त्री केन्द्रित कविताओं में देह पर्दे में रहती है। देह का पूरा रूप कभी सामने नहीं आता बल्कि देह कभी आंखों के जरिए सामने आती है, कभी चितवन, कभी कपोल, कभी हंसी, कभी सजल नेत्र, कभी देह एक ही पंक्ति में आती है। कभी देह पूरी तरह गायब होकर सिर्फ अंगों की भूमिका में नजर आती है। कभी वे शरीर की स्वतंत्रता का राग सुनाने लगती हैं तो कभी शरीर और आत्मा के बीच की एकता के स्वर को रेखांकित करती हैं और इसके रेशनल परिणामों की ओर संकेत करती हैं।
महादेवी की कविता में मर्द और पुंस सत्ताा के प्रति तीव्र गुस्सा अभिव्यक्त हुआ है। महादेवी के यहां मर्द निष्ठुर है। वह लिखती है '' तुम्हारी बीन ही में बज रहे हैं बेसुरे से तार !''
महादेवी को पढ़ने के लिए उसकी भाषा संहिता अथवा कोड को खोलना जरूरी है। स्त्री का विचार ,इमेज और कोड निरंतरता को बनाए रखता है। विचार की निरंतरता, संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। स्त्री के लिए जिन पदबंधों का कोड के रूप में इस्तेमाल कियागया है वे हैं, पथ, निर्वाण, मुक्ति, सपना, सुधि, शूल, प्यास, ज्वाला, मिटना, बहना, गलना, स्पंदन, तम, चिंगारी, क्षय, छाया, धूम-रेखा, व्यथा, पाषाणी-परिधि, प्रलय-तरिणी, पग-शूल, हार-जीत, वर-शाप, तम- दीप, बनना-मिटना, साधना-सिध्दि, खोज-प्राप्ति, मृत्यु-जीवन इत्यादि का स्त्री के संदर्भ में भिन्ना अर्थ में महादेवी के यहां प्रयोग मिलता है।
स्त्री जब भी उनकी कविता में दाखिल होती है तो वह समग्र रूप में आती है। यह ऐसी स्त्री है जो अन्य कविता अथवा पाठ में रूपायित स्त्री की इमेज से जुड़ी है। यह ऐसी स्त्री है जिसका विश्व दृष्टिकोण एक है। इस स्त्री को जोड़ने वाला प्रधान तत्व है उसका इतिहास। स्त्री का चित्रण करते हुए लेखिका बार-बार इतिहास में जाती है। इतिहास में जाते हुए इतिहास से विचलन भी होता है। इतिहास में जाने का अर्थ स्त्री का इतिहास खोजना नहीं है बल्कि उन तमाम रपटनभरी जगहों को उजागर करना है जहां पर स्त्री अपने को बदल रही है। जैसे - मैं नीर भरी दुख की बदली । विस्तृत नभ का कोई कोना /मेरा न कभी अपना होना/परिचय इतना इतिहास यही। उमड़ी कल थी मिट आज चली।'' '' मैं चली कथा का क्षण लेकर,/ मैं मिली व्यथा का कण देकर,/ इसको नभ ने अवकाश दिया,/ भू ने इसको इतिहास किया,/ अब अणु -अणु सौंपे देता है ,/युग-युग का संचित प्यार मुझे ! कहकर पाहुन सुकुमार मुझे।'' स्त्री का इतिहास क्यों नहीं है , इस बारे में लिखा, '' मैं कैसे उलझूँ इति -अथ में / गति मेरी संसृति है पथ में / बनता है इतिहास मिलन का / प्यार भरे अभिसार अकथ में ! मेरे प्रति पग पर बसता जाता सूना संसार किसी का।''
महादेवी वर्मा के नजरिए पर फ्रायड की बजाय लेनिन के विचारों का ज्यादा असर था। फ्रायड के विचारों की आलोचना के लिए उसने लेनिन के विचारों का सहारा लिया था। लेनिन के विचारों का उनके समूचे सोच पर गहरा असर नजर आता है। मसलन् महादेवी ने बार-बार स्वाधीनता की आकांक्षा को अभिव्यक्ति दी है। इसका अर्थ है कि पूंजीवादी समाज में स्वाधीनता का अभाव वह बार-बार महसूस करती थी। अथवा यह भी कह सकते हैं कि पूंजीवाद औपचारिक तौर जिस स्वाधीनता का वायदा करता है उसे प्रयास करके ही अर्जित किया जा सकता है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि शुध्द स्वाधीनता अथवा शुध्द जनतंत्र जैसी कोई चीज नहीं होती। महादेवी के यहां स्वाधीनता का संदर्भ बदलता रहता है। यह सार्वभौम स्वाधीनता नहीं है। इसी अर्थ में शुध्द स्वाधीनता नहीं है। यह उपलब्ध में से चुनी जाने वाली स्वाधीनता है। यह बिलकुल वैसे ही है जैसे आपके सामने बाजार में अंतहीन चयन के लिए विकल्प होते हैं। यानी स्त्री को अपनी स्वाधीनता को अर्जित करने के लिए नए सिरे से अपनी खोज करनी करनी होगी, स्वाधीनता की खोज करनी होगी। इस पुनर्खोज भी कह सकते हैं। लेनिन जिस तरह ''औपचारिक'' स्वाधीनता और ''सचमुच'' की स्वाधीनता दोनों का ही निषेध करते थे, ठीक वही स्थिति महादेवी की है। वह इन दोनों से परे जाकर स्वाधीनता का नया पंथ निर्मित करती है।
महादेवी की कविता को छायावाद के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने से उसके मर्म को पाना संभव नहीं है। स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने और स्त्रीवाद की विभिन्ना काव्य रणनीतियों के प्रयोगों की रोशनी में रखकर देखने से महादेवी की कविताएं एक नया काव्य वातावरण बनाती हैं। हमने अभी तक छायावाद के अंग के रूप में स्टीरियोटाईप नजरिए से महादेवी की व्याख्याएं की हैं। ये व्याख्याएं महादेवी का उद्धाटन कम और महिमामंडन ज्यादा करती हैं। आज की आलोचना की जरूरत है कि महादेवी को महीयसी के दायरे के बाहर लाया जाए उन्हें एक स्त्री लेखिका के रूप में पढ़ा जाए।

Comments

Anonymous said…
यथार्थ चित्रण...शुभ कामनाएं
Anonymous said…
word verification का सिस्टम हटा दीजिये ..समय व्यर्थ जाता है
vandana said…
Indluence of Lenin instead of Freud...or even Marx. I have been thinking of the same for some time. Very interesting and it will cast Mahadevi Verma, even some of other Chaayavad poetry in a new light.

Do you see sentiments on Poonjivad in any of her poems directly?

Thank you for this

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