अस्मिता स्त्रीभाषा और संस्कृति

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध्द में स्त्री अस्मिता संबंधी बहस अपने चरम पर दिखाई देती है। इस संदर्भ में स्त्री से जुड़े सवालों का अस्मितामूलक स्वरूप सबसे पहले बहस के केन्द्र में आया। आधुनिककाल के आरंभ में साहित्य में स्त्री की पहचान दिखाई देने लगी थी किन्तु स्त्री की अस्मिता का केन्द्र में आना बाकि था। अलग-अलग अस्मिताओं के सवाल परवर्ती पूँजीवाद की देन है। परवर्ती पूँजीवाद ने सार्वजनीन को नष्ट किया और बड़ी अस्मिताओं के लिए चुनौती खड़ी की। इसी संदर्भ में स्त्री राजनीति, स्त्री संगठन और स्त्री अस्मिता का एक-दूसरे से संबंध बनता है। आधुनिककाल मे स्त्री संगठन बने और स्त्री के सार्वजनिक स्पेश के साथ उसका राजनीतिक स्पेश भी बनना शुरु हुआ। अब गौण अस्मिताएँ प्रमुख हो उठीं। अब तक जिन पर बात नहीं की गई थी उन पर बात शुरु हो गई। अस्मिता का बोध दूसरों के साथ ज्यादा मजबूत और स्वस्थ संबंध को जन्म देता है। न सिर्फ अपनी पहचान बल्कि दूसरों की पहचान को समझने में मदद करता है। एक नागरिक , एक जाति, एक समुदाय आदि के रूप में पहचान दूसरों के साथ हमारे संबंधों में शक्ति और गर्मी पैदा करता है। अस्मिता की पहचान एक अस्मितावाले और अन्य अस्मितावाले लोगों के साथ हमारे संबंधों की पुनर्व्याख्या करता है। एक अस्मिता के दायरे में आनेवाले लोग एक-दूसरे के प्रति संवेदनशीलता और जिम्मेदारी का भाव प्रकट करते हैं। एक समुदाय से संबंध्दता का भाव स्वार्थों की दुनिया से ऊँचा उठाता है। आत्मीयता का संबंध विकसित करता है। चिंता का एक सामूहिक दायरा निर्मित करता है जिसमें साझी समस्याओं पर विचार संभव हो पाता है। अस्मिता की राजनीति का एक अन्य पहलू है कि इसमें स्वीकार और बहिष्कार साथ शामिल होता है। जहाँ इसमें दूसरे लोग शामिल होते हैं वहीं बहुत से लोग बहिष्कृत भी। एक बड़ी अस्मिता के अंदर कई छोटी-छोटी अस्मिताएँ शामिल होती हैं।
स्त्री की अस्मिता के सवाल ज्यादा टेढ़े हैं। सामाजिक संरचना के अंदर सबसे पहले स्त्री की अस्मिता का लोप हुआ। स्त्री की यदि अस्मिता होती तो अस्मिता की खोज का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल नहीं बन पाता। जैसाकि एंगेल्स ने 'परिवार ,राज्य और व्यक्तिगत संपत्ति' पुस्तक में लिखा है कि इस संसार में सबसे पहला वर्ग- विभाजन स्त्री-पुरुष के बीच हुआ। एंगेल्स द्वारा परिवार के भीतर स्त्री के शोषण की पहचान के बावजूद भी बाद के मार्क्सवादियों ने स्त्री के शोषण के इस रूप पर विचार नहीं किया। वर्ग-शोषण की अवधारणा के अंदर ही स्त्री के शोषण के सवाल को समाहित कर लिया। उसकी अस्मिता को खोजने के क्रम में पितृसत्ता, वर्चस्व, सामाजिक संस्थाएँ, विधिक व्यवस्थाएँ आदि सब पर सवाल उठाना पड़ेगा। स्त्री सिध्दान्तकारों ने इन समस्त संस्थाओं को प्रश्नों के दायरे में खड़ा किया है और इनके झूठ तथा अन्याय को उजागर किया है। सामाजिक असमानता और लिंगभेद से सांस्कृतिक उत्पादन का सीधा संबंध बनता है। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर स्त्री विरोधी साहित्य लिखा गया है। स्त्री विरोध के कई सूक्ष्म स्तर हैं। स्त्री राजनीति, स्त्री संगठन, स्त्री आंदोलन और स्त्री जागरण के साथ स्त्री अस्मिता के प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठे हैं। आधुनिक काल में विभिन्न स्त्री संगठनों का जन्म हुआ और स्त्री राजनीति का आरंभ हुआ। यही वजह है कि आधुनिककाल में स्त्री ,राजनीति और अस्मिता को प्रमुख सवाल बनाया गया है।
स्त्रीवादी लेखिकाएँ स्त्री अस्मिता को एक नहीं कई रूपों में देखती हैं। किसी के यहाँ लिंग , किसी के यहाँ शरीर , किसी के यहाँ मन, किसी के यहाँ अनुभूति प्रमुख है।
स्त्री अस्मिता का प्रमुख आधार है स्त्री को पुरुष संदर्भ के बाहर लाना और स्त्री संदर्भ में रखकर देखना। स्त्री और पुरुष द® अलग अस्मिताए¡ हैं। भाषा और विचार के जन्म के पहले स्त्री और पुरुष का जन्म हुआ है। स्त्री और पुरुष का प्रकृति से संस्कृति में रूपान्तरण वैसे ही है जैसे लड़का धीरे -धीरे मर्द और लड़की धीरे-धीरे औरत बनती है। इसी क्रम में दोनों की भूमिकाएँ तय होती हैं। इसी संदर्भ में लिंग के संबंध और पहचान का जन्म होता है। भाषा के जरिए लैंगिक चिह्न अभिव्यक्त होते हैं। संस्कृति के क्षेत्र में स्त्री की सबसे पहली अभिव्यक्ति भाषा के जरिए साहित्य के क्षेत्र में हुई है। कविता संभवत: पहला विधा है जिसमें स्त्री लेखन पहले-पहल मिलता है। आधुनिक युग में कहानी स्त्री अभिव्यक्ति के सबसे करीब है।

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