शाहरूख एक्टिविस्ट नहीं हैं राजदीप सरदेसाई

         
हिन्दी फिल्मों के बादशाह शाहरूख खान की नई फिल्म 'माई नेम इज़ खान' 12 फरवरी को प्रदर्शित होने जा रही है। शाहरूख का कसूर है कि उन्होंने अपने पड़ोसी देश के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध की बात कही है। उन पर आरोप है कि वे पाकिस्तान समर्थक हैं। देशद्रोही हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठन उन से माफी मांगने को कह रहे हैं। शाहरूख खान का कहना है कि उन्होंने कोई ग़लती नहीं की, फिर माफी किस बात की। वे भारतीयता के बारे में पैसोनेट हैं। वे कहते हैं कि मेरी देशभक्ति पर सवाल उठे तो क्या इसे मुझे समझाना पड़ेगा। मैं बंबई में रहता हूँ। मुम्बईकर हूँ। 20 साल से रह रहा हूँ। यह एक आजाद मुल्क है और प्रत्येक भारतीय को हक़ है जब तक वह अपने टैक्स देता है और कोई आपराधिक कर्म नहीं करता तब तक वह निर्बाध रूप से अपना काम कर सके। मैंने मुम्बई से सब कुछ कमाया है। मेरा मुम्बई पर जितना हक़ है उससे ज्यादा मुम्बई का मुझ पर हक़ है। यह मेरी अस्मिता का प्रश्न है कि मैं पहले भारतीय हू¡ बाद में मुम्बईकर। हिन्दी सिनेमा व्यावसायिक सिनेमा है। हमको सबसे बड़ा डर है कि हमारे काम के बाद लोग हंस कर आनंद लें, हमारे काम के कारण लोगों को नुकसान पहुँचे यह हमारा उदेश्य नहीं। मेरी पिक्चर देखने जा रहे व्यक्ति को या उसके परिवार को एक भी पत्थर लग जाए यह कोई भी कलाकार नहीं चाहेगा। जब अपने परिवार के लोगों को मैं फिल्म देखने से सुरक्षा कारणों से मना करता हू¡ तो दूसरे लोगों को कैसे कह सकता हूँ कि वे मेरी फिल्म देखने जाएं।
 शाहरूख की भारतीय जनता से जो अपील है वह हमारे भारतीय कहलाने पर शर्म पैदा कर रही है। एक आजाद मुल्क में शाहरूख खान के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह किसी भी तरह से नस्ली हमले से कम नहीं है। फासीवाद का यह हमला हिन्दी फिल्मों पर नया नहीं है। यह सबको मालूम है कि हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं और कलाकारों को कई तरह के दबावों में काम करना पड़ता है।
 सी एन एन आई बी एन के राजदीप सरदेसाई चाहते हैं कि शाहरूख हर इस तरह के फासीवादी हमले पर बोलें। टैक्सी ड्राइवरों के मुद्दे पर भी उन्हें बोलना चाहिए यानि कि फिल्म अभिनेता के साथ साथ एक्टिविस्ट की भूमिका भी निभानी चाहिए। शाहरूख एक अभिनेता हैं। अभिनेता से नेतागिरी की मांग करना कहाँ तक जाएज है। एक व्यक्ति अपने पेशे में ईमानदार रहे, लगन और मेहनत के साथ काम करे, इच्छा नहीं है तो एक्टिविस्ट न बने, यह गलत कैसे है ? शाहरूख ने अपनी बात साफगोई के साथ रखी कि मैं रियल लाईफ हीरो बनने की कोशिश नहीं करता फिल्मों में बन जाउ¡ यही बहुत है। अब शायद मुझे चड्ढी, बनियान और अन्य चीजों की तरह ही अपनी देशभक्ति का भी प्रचार करना पड़ेगा और इस तरह के अन्य हमलों का विरोध करना पड़ेगा।
  शिवसेना के लोगों ने मुम्बई के मुलुण्ड में भारी तोड़फोड़ किया है। इस फिल्म की अग्रिम टिकटों की बिक्री के समय यह सारी घटना घटी। अपने पहले के बयानों से पलटते हुए 'सामना' में लेख छपा जिसमें कहा गया कि शिवसैनिक अब शाहरूख की फिल्म का विरोध नहीं करेंगे। लेकिन जब 8 फरवरी को फिल्म की अग्रिम टिकटें बिकनी शुरू हुईं तो शिवसैनिकों ने हंगामा और तोड़फोड़ शुरू किया। आज 9 फरवरी की सुबह खबरों में दिखाया गया कि करण जौहर पुलिस सुरक्षा के लिए पुलिस के आला अधिकारियों से मिलने गए। उसके दो घण्टे बाद ही शिवसैनिकों की गतिविधियों की खबरें चैनलों की प्रमुख ख़बर बन गई।
 फिल्म 'माई नेम इज़ खान' के बारे में अभी जो कुछ सामने आया है उससे इतना जाहिर है कि इस फिल्म में सत्ता और प्रशासन के एथनिक सप्रेशन के खिलाफ एक लाईन ली गई है। फासीवादी, नस्लवादी , राष्ट्रवादी पहचानों के ऊपर प्रेम और भाईचारे को , मानवीय रिश्तों को महत्वपूर्ण बताया गया है। भला यह किसी भी फासीवादी दल को कैसे बर्दाश्त हो सकता है। 'माई नेम इज़ खान' की जगह इस फिल्म का कोई और नाम शायद एशिया के संदर्भ में नस्लवादी पहचान की पेचीदगियों को इतनी बारीक़ी के साथ नहीं उभार सकता था। समूची पश्चिमी दुनिया के लिए अदर बना हुआ एशियाई समाज जिसकी ताकत से पश्चिम डरता है और जिसे वह कमज़ोर करना चाहता है अपने को इस नाम से आईडेन्टिफाई करता है। विशेष संदर्भ में फासीवादी ताक़तों के लिए भी यह नाम आसानी से हजम होनेवाला नहीं है। संयोग से फिल्म में काम करनेवाला हीरो भी एक खान ही है। 
 शाहरूख का लंदन में दिया गया बयान कि उन्होंने कोई गलती नहीं की तो क्यों और किससे माफी मांगें करोड़ों भारतीय जनता के दिलों के ज्यादा करीब था। लेकिन यह कोई फिल्म नहीं जिंदगी है ! इसमें 'फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' की तरह जनता निर्दोष को बचाने के लिए हजारों की संख्या में बाहर नहीं निकल जाती है। निकले भी कैसे एक तो वह हिन्दुस्तानी है दूसरे शाहरूख की नियत पर भी संदेह है कहीं वे फिल्म के प्रचार के लिए तो ये सब नहीं कर रहे ? राजदीप सरदेसाई के सवाल के जवाब में शाहरूख ने तकलीफ और व्यंग्य के साथ कहा कि हा¡ प्रचार तो बहुत मिल गया, बहुत नाम कमा लिया। शाहरूख की पिछली फिल्मों के रिर्काड देखें तो साफ है कि बिना किसी विवाद के भी उनकी फिल्मों ने भारत की विदेशों की जनता के दिलों पर राज किया है। उनकी किसी फिल्म की सफलता के लिए विवाद आयोजित करवाना जरूरी तो कतई नहीं।
 शाहरूख की खूबी है कि वे बहुत आत्मीय और निजी होकर बड़ी बात कह जाते हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। मीडिया ने इधर कुछ दिनों से लगातार उनकी गतिविधियों की रिपोर्टिंग की है। उनके लंदन में फिल्म के प्रमोशन से लेकर उनके बच्चों के गेम शो में तक में मीडिया उनके साथ रही है। अपने बच्चों की जीत पर टिप्पणी करते हुए शाहरूख कहते हैं कि उनके बच्चे उनसे ज्यादा निडर हैं। उन्होंने उनसे कहा कि पापा आप इंडिया आ जाओ सब ठीक है हम सबको हरा देंगे। इन बच्चों को मराठी भी आती है और वे एक 'हिन्दू' मा¡ और 'मुसलमान' पिता की संतान हैं। शाहरूख़ का डर निराधार नहीं है कि उनके बच्चे कहीं बाप बनकर उनकी तरह डरने न लगें। वे चाहते हैं देश के सभी बच्चे , सभी नागरिक निर्भय होकर अपनी आजादी को जी सकें। क्या गलत चाहते हैं शाहरूख़। फासीवाद की यह मनोवैज्ञानिक लड़ाई क्या शाहरूख़ हार गए ? भय ही तो पैदा करता है फासीवाद। शाहरूख़ देश के हर नागरिक को निर्भय बनाना चाहते हैं। शाहरूख़ हार नहीं सकते अगर वे वैचारिक समझौता नहीं करते जैसाकि वे अभी टी वी पर कह रहे हैं। व्यक्तियों से मिलना, उनसे संपर्क रखना अलग बात है और इस तरह के फासीवादी हमलों से डरकर वैचारिक रूप में सहमत होना अलग। मैं नहीं जानती गौरी कितनी शर्मिंदा होंगी डरे हुए शाहरूख़ को देखकर। अभी -अभी खबर आ रही है कि घाटकोपर में भी शिवसेना के हमले शुरू हो गए हैं।
 बाल ठाकरे अपनी थोकशाही के जरिए शाहरूख को अपने झण्डे तले ले लेना चाहते हैं। शिवसेना जो इस समय इतना हुंकार भर रही है उसका मकसद शाहरूख के साथ अपनी ट्यूनिंग पैदा करना है। दूसरी ओर यही शिवसेना आई पी एल के मसले पर गुलगपाड़ा मचा के शरद पवार के साथ भी अपने संबंधों को अपनी तरफ झुका कर रखना चाहती है। शाहरूख और आई पी एल दोनों पर शिवसेना की हुंकार हाल ही के विधानसभा चुनावों में शिवसेना की जबर्दस्त पराजय से ध्यान हटाने के लिए और सस्ती लोकप्रियता के जरिए अपने कैडरों को चंगा करने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है। शाहरूख की फिल्म चले या न चले, आई पी एल हो या न हो, आई पी एल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी खेलें या न खेलें, कोलकाता नाईट राइडर में पाकिस्तान के खिलाड़ी खेलें या न खेलें इन सबसे शिवसेना को कोई लेना - देना नहीं है। शिवसेना का मूल उदेश्य है महाराष्ट्र में अपनी खोई हुई जमीन को हासिल करना। 


Comments

Alok Nandan said…
शाहरूख खान को पूरा हक है कि अपनी फिल्म का चाहे जैसे प्रचार प्रसार करें, और साथ ही वह यह चाहते हैं कि लोग निर्भय होकर थियेटरों और मल्टीप्लेक्स में आये...वाजिब बात। फिल्म माइनेम इज किंग खान के अंदर देखने को क्या है यह तो 12 फरवरी को पता चलेगा। आप अभी से इसका महिमामंडन करने पर क्यों तुली हैं...शिवसेना इस फिल्म के कंटेंट को लेकर बवाल नहीं कर रहा है, वह शाहरूख खान के पाकिस्तान प्रेम को लेकर हमलावर मूड में है...और यही उसकी शैली भी है...आस्ट्रेलिया में भारतीयों को साथ जो मार-पीट हो रही है, उस पर भी शिवसेना का रूख पूरी तरह से स्पष्ट है...बाकि लोग तो कागजी निंदा कर रहे हैं। शाहरूख अपने आप को लार्जर दैन लाइफ के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं, बेशक वे करते रहें,एक्टिविस्ट भी बन जाये, उनकी मर्जी। ...
में आपके ब्लाग पोस्ट को निरंतर फालो कर रहा हूँ. शाहरुख ख़ान का आपने अच्छा बचाव किया है. दुर्भाग्यवश में सिनेमा नहीं देखता हूँ. इस कारण मेरे अंदर फिल्मी हस्तियों के प्रति सहानुभूति नहीं पैदा हो पाती है. में इन्हें रोल माडल नहीं मानता हूँ . फिर भी संविधान की ओर से शाहरुख ख़ान को यह हक मिला हुआ है कि वह अपनी बात बेधड़क कह सकें. इस देश में पाकिस्तान को लेकर एक शंका रहती है. हमारी ओर से पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने के असंख्य कोशिशों के बदले में हमें पाकिस्तान की ओर से हमेशा युद्ध झेलना पड़ा, और अब प्रायोजित आतंकवाद के रूप में छद्म युद्ध चालू है. जब तक जिहाद मौजूद है, पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित कर पाना संभव नहीं लगता. वैसे आपका लेख शाहरुख ख़ान के बारे में कम, फासीवाद के खिलाफ ज़्यादा है. आपने खूब जम के अपनी भढ़ास निकाली है.
Madhaw said…
नई रोशनी... आपका ये लेख कोई नई रोशनी नहीं दिखाता... आपने लिखा है कि शाहरूख एक अभिनेता हैं नेता नहीं... आपको ये समझ लेना चाहिए कि पर्दे के पीछे की सच्चाई क्या है... आपने ग़ौर किया कि शिवसेना ने पहले शाहरूख का विरोध किया... फिर पीछे हट गई... और फिर चंद घंटों बाद विवाद को लेकर बेहद आक्रामक तरीके से सड़कों पर उतर आई... और इस बीच करन जौहर इस बारे में मातोश्री नहीं पहुंचे... जबकि वेक अप सिड के वक़्त उन्होने बाला साहेब की चौखट पर मत्था टेका था... अगर इन चीज़ों को समझा जाए तो साफ हो जाता है कि जो विवाद आज सड़कों पर है... वो माइ नेम इज़ ख़ान और सेना की मिलीभगत का नतीजा है... और ये सब कुछ फिल्म की पब्लिसिटी के लिए किया जा रहा है... और शाहरूख खान तो वो शख्सियत हैं जिन्होने विवादों से ही पैसा और पॉपुलैरिटी बनानी सिखी है... ज़रा पीछे चलिए तो 15 अगस्त 2009 को भी अमेरिका से जो विवाद चला था.... वो पब्लिसिटी की तरफ ही इशारा करता है... सब कुछ विवादों में चल रहा है... यहां उनकी फिल्म को अगर इतना नुकसान दिख रहा है तो वे दुबई क्यों चले गए... दुबई में प्रिमियर करने की वजह यही है कि शाहरूख के लिए और उनकी फिल्मों के लिए ओवरसीज़ में एक बड़ा मार्केट है.. तभी तो मुंबई की 25 फीसदी कमाई छोड़कर वे उससे कहीं ज़्यादा कमाने बाहर चले गए... वैसे भी उन्हे पता है कि ये विवाद उनको फायदा ही देनेवाला है... इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आपके इस लेख पर एक फिल्म नहीं देखनेवाला भी कमेंट कर जाता है...
Rangnath Singh said…
शाहरुख ने बिल्कुल सही स्टैण्ड लिया। कारण जो भी उसका परिणाम भला रहा। शिसेना की गुण्डागर्दी का भय खत्म रकने में उनकी भी भूमिका है। शाहरुख के कारण यह 'मुद्दा' बन सका जो कि इसे पहले बन जाना चाहिए था।
प्रणाम!
आपकी यह बात समझने और मानने लायक है कि भारतीय हिंदी सिनेमा में शाहरूख खान वो शख्सियत हैं जो बिना किसी प्रकार के विवाद के भी अपनी फिल्मों को अपने और कहानी के दम पर हिट करवा सकतें हैं। मसलन, उनकी ज्यादातर फिल्में जिस तरह से बिना किसी विवाद के आई हैं और दर्शकों पर गानों के माध्यम से भी प्रभाव छोडी हैं, वह काबिले गौर है। अगर इस तरह से देखें तो यह बात कहीं से भी सच नहीं लगती है और शायद इसीलिए पचती भी नहीं है कि शाहरूख और शिवसेना की कोई सांठ-गांठ थी 'माई नेम इज़ खान' को ज्यादा से ज्यादा लोकप्रिय बनाने को लेकर। शाहरूख कितने बडे एक्टर हैं या वो कितने बडे देशभक्त हैं या वो हिंदुस्तान की बेहतरी के लिए कितने लकी हैं या वो कितने बडे प्रोफेशनल हैं, मैं यहां ना तो यह बताना चाहता हूं और ना ही मैं किसी प्रकार से उनका बचाव करने में मुझे कोई दिलचस्पी है। मुझे दरअसल इस विवाद में कुछ और ही नज़र आता है और वह है शिवसेना की महज सस्ती लोकप्रियता पाने की घटिया महत्वाकांक्षा। मुंबई में पहले लोकसभा और फिर विधानसभा की शर्मनाक हार के बाद शिवसेना को बस ऐसे मौके चाहिए जिसके बदौलत वह अगले चुनाव तक सक्रिय रह सके। उसके कार्यकर्ताओं में कहीं कोई जंग ना लग जाए कि अगले चुनाव में भी उसकी कुछ ऐसी ही दुर्गति हो। इसीलिए वह इस तरह के बवालों में उलझी रहती है। लेकिन इस बार उसका दांव कुछ उलटा पड गया। हाल के दिनों में उसने जिन दो बडी चीजों का विरोध किया वह विशुद्ध रूप से बडी जनसंख्या के मनोरंजन का साधन था। उसने इस बडी जनसंख्या के मनोरंजन के साधनों पर हाथ लगाने की कोशिश की। चाहे वह आई.पी.एल. हो या सिनेमा (माई नेम इज़ खान)। इसीलिए अन्य जगहों के साथ मुंबई वालों ने भी उसकी इस तोड-फोड की चेतना से भरी राष्ट्रीयता की भावना को कोई महत्व नहीं दिया और वही किया जो उनसे अपेक्षा थी। इसीलिए वह बहुत ही बिखरी-बिखरी सी नज़र आई और क्रिकेट के मामले में तो अंततः समझौता भी कर गई। तो यह है शिवसेना, जिसकी राष्ट्रीयता पर अगर प्रश्न चिन्ह लगाया जाए तो शायद कुछ सार्थक कार्य होगा। वरना लिखने और बस लिखने को तो बहुत कुछ है...।
धर्मेन्द्र प्रताप सिंह, एम.फिल.(हिंदी), दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली - 09
सोनू said…
उन्होंने अपने पड़ोसी देश के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध की बात कही है

आखिर क्या है ये ‘सौहार्द्र’ ?

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