गायत्री चक्रवर्ती स्‍पीवाक: वैकल्‍पि‍क नजरि‍ए की तलाश


गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक का सबआल्टर्न स्टैडीज के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। स्त्री और हाशिए के लोगों के सवाल उन्हें उद्वेलित करते रहे हैं।गायत्री चक्रवर्ती के परिप्रेक्ष्य पर भारतीय शक्ति परंपरा के चिन्तन का गहरा असर है। वैचारिक निर्भीकता और विद्वतापूर्ण दार्शनिक अभिव्यक्ति के कारण आज वे सारी दुनिया के दार्शनिकों में स्त्री दार्शनिक के रूप में सबसे ज्यादा जान जाती हैं। स्पीवाक के यहां कार्ल मार्क्‍स की श्रम मूल्य की सैध्दान्तिकी का केन्द्रीय महत्व है।उसने मूल्य के सवाल पर सबसे ज्यादा सवाल उठाए हैं। किन्तु ये सारे सवाल विच्छिन्न रूप में उठाए हैं।श्रम मूल्य के बारे में विचार करते हुए उसने विखण्डन की पध्दति का सहारा लिया है।इस क्रम में माक्र्स की सैध्दान्तिकी की जटिलताओं को नए तरीके से खोला है।ये तथ्य स्टीफन मार्टिन की कृति 'गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक' (2003) में विस्तार से विश्लेषित किए गए हैं।यह पुस्तक पूरी तरह स्पीवाक के कार्यों पर रोशनी डालती है।इस क्रम में यह भी तथ्य सामने रखा गया कि स्पीवाक ने कार्ल मार्क्‍स के अलावा जिन स्रोतों का अपनी व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया उसमें मार्क्‍स की धारणा कर विकृतिकरण ही हुआ है। उसने मार्क्‍स को गलत पढ़ा है। जिन स्रोतों का इस्तेमाल करके स्पीवाक ने श्रम मूल्य पर अपनी राय बनायी है। उसकी कमियों और अराजक रीडिंग का जेरी लियोनार्ड ने विस्तार से सही खुलासा किया है।

मार्क्‍स की बुनियादी समझ से फर्क होने के बावजूद स्पीवाक अपने को वामपंथी मानती है। मार्क्‍स के प्रति नए वामपंथी नजरिए में सबसे बड़ा मुद्दा है 'वर्ग'। मार्क्‍स का मानना था कि वर्गसंघर्ष का अंतिम पड़ाव है वर्ग। वर्ग की धारणा को वर्गीय समाज में त्यागना संभव नहीं है। किन्तु गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने 'वर्ग' की धारणा को अपने चिन्तन से ही बहिष्कृत कर दिया। वर्ग की धारणा का त्याग या उससे मुक्ति का मार्ग अंतत: नए 'वाम' और दक्षिणपंथ की वैचारिक सहयात्रा का सेतु जो है।

स्पीवाक के लेखन पर गौर करें तो पाएंगे कि वह एक भिन्न किस्म की लेखिका है।उसके लेखन में कार्ल मार्क्‍स ,एडवर्ड सईद,देरि‍दा आदि का गहरा प्रभाव है।इसके बावजूद उसे न तो मार्क्‍सवादी कह सकते हैं,और न देरि‍दापंथी और न सईदपंथी ही कह सकते हैं।वह जिस सैध्दान्तिकी का अनुसरण करती है,उसमें किसी एक सिध्दान्त का अनुसरण नहीं मिलता। बल्कि वह अनेक सैध्दान्तिक दृष्टियों का पाठ की व्याख्या के लिए इस्तेमाल करती है। उसके लेखन की पध्दति आलोचनात्मक है और उद्धाटन पर ज्यादा जोर है। वह हमेशा प्रस्तावित और अनौपचारिक भाव से लिखती है। अपने नजरिए को व्यक्त करने के लिए स्पीवाक ने साक्षात्कार की पध्दति का भी व्यापक रूप में इस्तेमाल किया है।इसके अलावा उसकी कई रचनाओं में 'हस्तक्षेप' की पध्दति का भी इस्तेमाल किया गया है।

स्पीवाक को आम तौर पर विखण्डनवादी और उत्तर औपनिवेशिकतावादी आलोचिका माना जाता है। किंतु उनके यहां मार्क्‍सवाद का भी उतना ही गहरा प्रभाव है जितना स्त्रीवाद या विखडन का है। अनेक बुनियादी बिन्दुओं पर उनका एडवर्ड सईद के साथ मतभेद है। खासकर ओरिण्टलिज्म के संदर्भ में साम्राज्यवाद और ओरिएण्टलिज्म के बुनियादी ढांचे को वे स्वीकार नहीं कर पाती।उनकी जिन रचनाओं का स्त्रीवाद और साम्राज्यवाद संबंधी नजरिए के साथ संबंध है,उनमें प्रमुख हैं- 'रानी ऑफ सिरमोर',(1985), 'थ्री वूमेनस टेक्स्ट्स एण्ड ए क्रिटिक ऑफ इम्पीरियलिज्म,(1985) 'इम्पीरिलिज्म एण्ड सेक्सुअल डिफरेंस' ,(1986) इन तीनों रचनाओं के बहाने स्पीवाक ने प्रतिवादी दृष्टियों को उद्धाटित किया है।इन रचनाओं में स्पीवाक ने विभिन्न किस्म की सब आल्टर्न की इतिहास दृष्टियों,अल्जीरियन स्त्रीवादी मेरी अल्मीहेली लुकास , उत्तर औपनिवेशिक आलोचना खासकर वाचिक और मीडिया के संदर्भ में विकसित सर्जनात्मक आलोचना आदि का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया है।' रानी ऑफ सिरमूर'के जरिए स्पीवाक इस तथ्य की ओर ध्यान खींचती है कि भारत के बारे में ओरिएण्टलिस्टों का वर्गीकरण अनुपयुक्त है।भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश में किसी एकायामी या इकहरे वर्गीकरण के जरिए साम्राज्यवाद या स्त्री का यथार्थ नहीं पढ़ा जा सकता।भारत में औपनिवेशिक शोषण के अनेक किस्म के अनुभव रहे हैं॥ अनुभवों के इस वैविध्य को संतुलित नजरिए से पढा जाना चाहिए। ओरिण्टलिज्म में यह खतरा है कि वे अनुभवों के इस वैविध्य की उपेक्षा करते हैं।इसी तरह उत्तर औपनिवेशिकता के हिमायती तीसरी दुनिया के देशों में विस्थापन के महानगरीय जीवन में रूपान्तरण पर सबसे ज्यादा विचार विमर्ष करते रहे हैं। उनके इस नजरिए से भी स्पीवाक ने अपने को अलगाया है। असल में विस्थापन का महानगरीय जीवन में रूपान्तरण यह मोटी और अमूर्त केटेगरी है। भारत में विस्थापन में गुलामों की जिन्दगी से लेकर भारत-पाक विभाजन तक का लंबा कैनवास शामिल है। इस विस्थापन में संस्कृति,भाषा,आर्थिक भूमिका,विभिन सामाजिक समूहों की भूमिका खासकर जाति और वर्ग की अस्मिता की भूमिका प्रमुख रही है।औपनिवेशिक विषय के रूप में स्पीवाक ने स्त्री के सवाल पर खास तौर पर अपने को केन्द्रित किया है। ये सारे ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी ओर ओरिएण्टलिस्ट ध्यान नहीं देते।खासकर एडवर्ड सईद ध्यान नहीं देते।सईद के यहां औपनिवेशिक युग के वर्चस्व और शोषण का अबाधित कथानक है।जबकि स्पीवाक औपनिवेशिकता को अबाधित रूप में नहीं देखती।वह औपनिवेशिकता को ज्यादा जटिल रूप में विश्लेषित करती है।उसके बारे में समग्र राय बनाने की कोशिश करती है।उसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों को खोलती है। जबकि सईद ने सिर्फ नकारात्मक पक्ष पर ही ज्यादा ध्यान दिया है। स्पीवाक का मानना है कि पहली दुनिया का स्त्रीवादी हचन्तन तीसरी दुनिया के स्त्री विमर्श को निर्धारित कर रहा है। पहली दुनिया के अकादमिक जगत में तीसरी दुनिया के अकादमिक प्रयासों का कोई दबाव नहीं है। इस स्थिति को तोडत्रने के लिए गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने एक नयी पध्दति ईजाद की। उसने पहली दुनिया के वर्चस्वशाली विमर्श चुनौती दिए बगैर तीसरी दुनिया के अकादमिक,साहित्यिक रूपों को चुपचाप विमर्श के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया।खासकर 'इम्पीरियलिज्म एण्ड सेक्सुअल डिफरेंस',(1986) और 'हाउ टु टीच ए कल्चरली डिफरेंट बुक',(1991) के बहाने। इन दो पाठ के बहाने वह बताती है कि औपनिवेशिक दौर के भारतीय पाठ को पढ़ाना कितना जटिल है।उसे सामान्य प्रचलित सैध्दान्तिकी के जरिए नहीं पढ़ाया जा सकता। क्योंकि इस पाठ और इसकी रीडिंग में साम्राज्यवादी नजरिए के प्रभाव को भी देखा जा सकता है। साम्राज्यवादी नजरिए के प्रभाव से औपनिवेशिक युगीन पाठ को मुक्त करने के लिए नए किस्म के विमर्श को विकसित करना होगा। वह उन तमाम केटेगरी को चुनौती देती है जो हाल के वर्षों में सामने आई हैं।खासकर सब आल्टर्नाइजेशन या थर्ड वर्ल्ड के नाम से जो विमर्श आया है उसे अस्वीकार करती है। वह मानती है कि हमें परा-राष्ट्रीय सांस्कृतिक अध्ययन पर ध्यान देना चाहिए।साहित्य के अध्ययन के क्षेत्र में पश्चिमी जगत में गैर पश्चिमी पाठ के अध्ययन की महत्ता को अकादमिक जगत में स्थापित करती है।

सररसरी तौर पर स्पीवाक के लेखन पर नजर डाले तो पाएंगे कि साठ और सत्तर के दशक में फ्रांसीसी सांस्कृतिक सैध्दान्तिकी का जब बिगुल बज रहा था,खासकर ब्रिटिश और अमेरिकी अकादमिक जगत सांस्कृतिक सैध्दान्तिकी में डूबा हुआ था ऐसे देरि‍दा की चर्चित कृति 'ऑफ ग्रामोटोलॉजी' का सन् (1976)में अंग्रेजी अनुवाद पेश करके हलचल पैदा कर दी।देरि‍दा की यह कृति 1967 में पहलीबार प्रकाशित हुई थी। इस कृति के अंग्रेजी में आने के बाद जहां एक ओर अनुवाद के बारे में नए सिरे सक बहस छिड गयी वहीं दूसरी ओर देरि‍दा आलोचना के केन्द्र में आ गए और समूचा सांस्कृतिक विमर्श क्षितिज से गायब हो गया। इसके बाद स्पीवाक ने कई बार यह भी कहा कि देरीदा मेरे शिक्षक हैं और मैं विखण्डनवादी हूँ।स्पीवाक का मामला यहीं पर नहीं थमा। जब उनके ऊपर हमले हो रहे थे तो लोग यह भूल ही गए कि उनका परंपरागत माक्र्सवाद से भी गहरा संबंध रहा है।सारा डेनिस और स्टीफन जॉनसन को उन्होंने एक साक्षात्कार जो ' न्यू कोलोनियलिज्म एण्ड दि सीक्रेट एजेण्ट ऑफ नॉलेज' शीर्षक से छपा ,इसमें कहा '' मैं मार्क्‍सवादी सांस्कृतिक आलोचक नहीं हूँ।'' और रॉबर्ट युंग से कहा '' मैं पुरानी फैशन की मार्क्‍सवादी हूँ।'' कोलिन मेककैव ने स्पीवाक को ''स्त्रीवादी मार्क्‍सवादी विखण्डनवादी'' कहा।

स्पीवाक का मानना है कि आलोचक का कार्य है अनुपस्थित को आलोचनात्मक समग्रता में पेश करना। स्पीवाक ने पाठ पर विचार करते समय साम्राज्यवाद,वर्ग और स्त्री की यूरोपीय धारणा का खण्डन करते हुए विचार किया है।'दि रानी ऑफ सिरमूर'इस मूल्यांकन का खास उदाहरण है। मजेदार बात यह है कि एडवर्ड सईद और स्पीवाक ने एक ही स्रोत सामग्री का इस्तेमाल किया है किन्तु भिन्न व्याख्या पेश की है।उदाहरण के तौर पर मार्क्‍स के भारत संबंधी मूल्यांकन को ही लें।

सईद ने मार्क्‍स की उपनिवेशवाद की धारणा की सबसे तीखी आलोचना 'ओरिण्टलिज्म' नामक पुस्तक में पेश की है।सईद ने अपनी किताब के अंतिम अध्याय में रेखांकित किया है कि ओरिएण्टलिज्म की बहस का आधार मार्क्‍स ही रहे हैं और उनका इसमें सबसे ज्यादा अवदान रहा है। मजेदार बात यह है गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने मार्क्‍स के लेखन को सकारात्मक रूप में पेश किया है। इस क्रम में उन्होंने रेमण्ड विलियम्स और फ्रेडरिक जैम्सन के सांस्कृतिक नजरिए से अपने को अलगाया है। गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने सईद की तुलना में ज्यादा विस्तार के साथ अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की संरचनाओं का विश्लेषण किया है।विश्व श्रम विभाजन पर गौर किया है और उसे 'माइक्रो इलैक्ट्रोनिक कैपीटलिज्म''की संज्ञा दी । इसके अलावा उसके अधिरचना के रूपों खासकर सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिरचना पर पड़ने वाले प्रभावों की विस्तार से मीमांसा पेश की है। मार्क्‍सवाद की ग्राम्शीपंथी सैध्दातिकी से स्पीवाक ने चुप्पी के क्षेत्रों को खोलने के लिए 'सबआल्टर्न' अवधारणाओं का इस्तेमाल किया। इसी नजरिए से '' केन दि सबआल्टर्न स्पीक'' शीर्षक निबंध लिखा।इस निबंध में उन्होंने देरि‍दा के माध्यम से सबऑल्टर्न को पढ़ने की कोशिश की, कितु अपने समूचे लेखन में देरीदा को लेकर एक खास किस्म का तनाव भी महसूस करती हैं,देरि‍दा का अतिक्रमण भी करती हैं। खासकर गैर पश्चिमी समाजों के विचारों की परीक्षा करते हुए देरि‍दा के विचारों का अतिक्रमण करती है। स्पीवाक अपने तरीके से विखण्डन की सबऑल्टर्न उत्तर औपनिवेशिक सैध्दातिकी निर्मित करती है।स्पीवाक ने देरि‍दा का बड़े कौशल के साथ इस्तेमाल करते हुए देरि‍दा के उन पक्षों और धारणाओं का ज्यादा इस्तेमाल किया है जो पहली दुनिया के देशों के बाहर ज्यादा उपयोगी हैं।

विखण्डनवादी नजरिए का उत्तर औपनिवेशिक मुद्दों पर प्रयोग करते हुए दो स्तरों पर प्रयोग करती है।पहला स्तर है उत्तर औपनिवेशिक की पहचान का,दूसरा स्तर है विखण्डनवाद का।पहले स्तर पर वह उत्तर औपनिवेशिकता को नकारात्मक विज्ञान के रूप में नहीं देखती।जो लोग उत्तर औपनिवेशिकता को नकारात्मक विज्ञान के रूप में देखते हैं उनके लिए इसमें ज्ञान के रूप में कुछ भी सकारात्मक नहीं है।वे पाठ के प्रामाणिक सत्य के बारे में सवाल नहीं उठाते और इसे समझते नही हैं।इसकी विचारधारा की आलोचना करते हुए 'एरर' या विचलन का उद्धाटन करते हैं। इस समझ के विपरीत स्पीवाक पाठ में निहित रणनीति, अनुमान,रेहटोरिक आदि का उद्धाटन करती है।चाहे यह साहित्यिक पाठ हो या राजनीतिक या सांस्कृतिक पाठ हो।इस संदर्भ में वह अपने शिक्षक पाल दे मान की कृति 'एलीगरी ऑफ रीडिंग',(1979)( का व्यापक इस्तेमाल करती है।

स्पीवाक की पाठ की शैली या रेहटोरिक में गहरी दिलचस्पी है।स्पीवाक के अनेक निबंध ज्ञानमीमांसात्मक असफलता का उद्धाटन करते हैं।ज्ञानमीमांसात्मक असफलता के कारण जो विचलन पैदा हुआ है उसकी ओर ध्यान खींचते हैं।ज्ञानमीमांसात्मक असफलता की ओर ध्यान खींचते हुए वह किसी भी किस्म के संशोधन का सुझाव नहीं देती।पाठ में सतह पर जो अर्थ या तर्क दिखाई देता है उसके विपरीत जाकर पाठ में अर्थ की खोज करती है।पाठ में अन्तर्निहित अर्थ की खोज करती है।हाशिए के तत्वों पर ध्यान देती है।उपेक्षित के उद्धाटन पर ध्यान देती है।'थ्री वूमेनस टेक्स्टस एंड क्रिटिक ऑफ इम्पीरियलिज्म' में स्पीवाक ने छोटे चरित्रों ,उपकथा,हाशिए की मंशा, के मूल्यांकन पर अपने को केन्द्रित किया है।इन सबके जरिए वह 19वीं शताब्दी के स्त्री पाठ में सक्रिय अवधारणाओं में व्याप्त नस्ली समझ को सामने लाती है। इस तरह के चरित्रों के उद्धाटन का दूसरा लक्ष्य है अपप्रयोग या दुष्प्रयोग वह पूरे पाठ को सही संदर्भ के बाहर ले जाती है और फिर उसे एक पराए या पृथक तर्क के साथ पेश करती है।स्पीवाक की अपप्रयोग की धारणा स्थानीय है, इसमें रणनीतिक दुरूपयोग की अनंत संभावनाएं हैं।महाश्वेता देवी की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए 'लिटरेरी रिप्रिजेंटेशन ऑफ दि सब ऑल्टर्न'(1988) में स्पीवाक ने अभिजनवादी पश्चिमी साहित्यालोचना की सीमाओं और अनुपस्थित बिन्दुओं का गंभीरता से उद्धाटन किया है।

स्पीवाक अपनी आलोचना में विखंडन की धारणा का निर्धारणवादी पध्दति के रूप में इस्तेमाल करती है।वह जिस बात के लिए तर्क करती है किन्तु उसके लिए राजनीतिक कार्यक्रम का उसके पास अभाव है।इसके परिणामस्वरूप उनका विखंडन सामाजिक जमीन से जुड़ नहीं पाता,विखण्डन जमीन से जुड़े इसके लिए जरूरी है कि उसका राजनीतिक कार्यक्रम भी हो। सिर्फ पाठ के विखण्न के जरिए सबऑल्टर्न को कोई लाभ नहीं मिल सकता।भारत में सबऑल्टर्न की सबे बड़ी मुश्किल यही है।उनके पास कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है।इसके कारण सबऑल्टर्न नये समाज का सपना पेश नहीं कर पाते। इसके बावजूद स्पीवाक के नजरिए की विशेषता है कि उसने विखण्डन के बहाने वायनरी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देती है। वर्चस्वशाली विमर्श वायनरी अपोजीशन के आधार पर ही अपना प्रभुत्व बनाए हुए हैं।

स्पीवाक का मानना है कि वर्चस्वशाली विचारधारा दो स्तरों पर सक्रिय रहती है। पहला, अस्मिता और दूसरा है विषय की खोज। देरि‍दा की 'डिसेंटर' या 'अकेन्द्रित' की धारणा का इस्तेमाल करते हुए विषय को अकेन्द्रित रूप में पढ़ने या अस्मिता को अकेन्द्रित रूप में देखने पर जोर दि‍या । कठमुल्ले तत्वों ने परंपरागत रूप में अस्मिता को व्याख्यायित किया है। जबकि आत्म या विषय को अंतर्निहित या उपलब्ध के रूप में देखने की बजाय निर्मिति के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। निर्मिति के रूप में पढ़ेंगे तो विषय अपरिहार्यत: अकेन्द्रित हो जाएगा। अकेन्द्रित रूप में पढ़ने का अर्थ होगा कि आत्म या विषय भाषायी प्रतीकात्मक व्यवस्था के रूप में उभरकर सामने आएगा।ऐसी स्थिति में विषय में एक नहीं अनेक अर्थ होंगे, विषय में अनेक विषय होंगे, अस्मिता के भी एक नहीं अनेक रूप होंगे।ऐसी अवस्था में पाठात्मकता को लेखक ही नहीं पाठक भी तय करेगा।पाठ का विस्तार होगा।ऐसी अवस्था में पाठात्मकता की सीमाएं खत्म हो जाएंगी। स्पीवाक के शब्दों में आत्म की सीमा खत्म हो जाएगी और आत्म में अन्य की खोज शुरू हो जाएगी। ऐसी अवस्था में अस्मिता और चेतना दोनों ही अपने को पूरी तरह पेश नहीं कर पाएंगे।इसी क्रम में स्पीवाक ने अस्मिता की समस्त धारणाओं को खारिज किया। साथ ही रेखांकित किया शुध्द और मूल या ओरिजनल जैसी कोई चीज नहीं होती। स्पीवाक ने औपनिवेशिकता के कारण बनी तमाम धारणाओं को चुनौती दी। इसी क्रम में स्पीवाक ने लिखा कि 'इण्डियन' पदबंध स्वयं में औपनिवेशिक विमर्श की देन है। इस केटेगरी का अपना भौतिक इतिहास भी रहा है।जिसे परायी ताकतों ने बनाया है। ऐसी अवस्था में 'एशियन' पदबंध के नाम पर इसे अपदस्थ नहीं किया जा सकता है। स्पीवाक का मानना है कि अस्मिता के गैर-पश्चिमी रूपों की खोज का काम सिर्फ फंडामेंटलिस्टों ने ही नहीं किया। अपितु यह तीसरी दुनिया का 'प्रामाणिक' की खोज का नास्टेल्जिया भी मूलत: पश्चिम की देन है। इसमें अनेक किस्म के रेडीकल उपभोक्ता हैं जो 'शुध्द' एथनिक माल खोजते रहते हैं। यह एक तरह का पश्चिम की सभ्यता का मॉडल है जो औपनिवेशिक जगत पर छाया हुआ है। स्पीवाक इस धारणा को नहीं मानती कि उत्तर औपनिवेशिक विषय ही उत्तर औपनिवेशिकता को सम्बोधित कर सकते हैं। इसके विपरीत स्पीवाक का मानना है कि उत्तर औपनिवेशिक विषय व्यापक स्तर पर महानगरीय लोगों को ही सम्बोधित कर रहे हैं। इसका अर्थ यह भी है कि उनके अनुमानों को वरीयता दी जाए यह जरूरी नहीं है।आज सच्चाई यह है कि भारत में अंग्रेजी विभागों में काम करने वालों को भारतीय समाज की वास्तविकता का कोई खास ज्ञान नहीं है।यही स्थिति उनके पश्चिमी सहोदरों की है।

स्पीवाक ने ' न्यू कोलोनिलिज्म एंड दि सीक्रेट एजेण्ट ऑफ नालेज' में लिखा तीसरी दुनिया की औरतें अपने को 'फेमिनिस्ट' कहलाने से इसलिए गुरेज करती हैं क्योंकि फेमिनिस्ट विमर्श पश्चिमी विमर्श है।पश्चिम में इसका उदय हुआ है। पश्चिम के कुछ प्रगतिशील तत्वों का विमर्श है।इन लोगों के पास उत्तर औपनिवेशिक समाजों का अनुभव नहीं है अत: ये उत्तर औपनिवेशिक समाजों के सवालों को सम्बोधित ही नहीं कर सकते। 'सब ऑल्टर्न स्टैडीज: डिकंस्ट्रक्टिंग हिस्टीरियोग्राफी'(1985) में स्पीवाक ने औपनिवेशिक चेतना से स्वतंत्र भारत की उत्तर औपनिवेशिक चेतना में रूपान्तरण ,अन्तर्विरोध और विच्छिन्नता की प्रक्रिया और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के उदय की व्याख्या की है।इस क्रम में वर्चस्व के जो रूप औपनिवेशिकता और राष्ट्रीय बुर्जुआ के रूप में उभरकर सामने आए हैं उनकी भी चर्चा की है।इसी संदर्भ में स्पीवाक ने सब आल्टर्न की भूमिका और सीमाओं का भी उद्धाटन किया है। यह सच है कि सब आल्टर्न ने उपेक्षितों के सवालों पर ध्यान दिया। किन्तु इससे औपनिवेशिकता और राष्ट्रीय बुर्जुआजी की वर्चस्वशाली स्थिति को चुनौती नहीं दी जा सकती थी।क्योंकि राष्टौवादी इतिहासकारों ने स्थानीय अभिजन पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और तीसी दुनिया का अभिजन पहली दुनिया के संपर्क और संबंधों में बंधा था। ऐसी स्थिति में सबआल्टर्न के प्रयास असफल साबित हुए। वे ज्ञानमीमांसा के धरातल पर असफल साबित हुए। इसी क्रम में स्पीवाक ने ' केन दि सबआल्टर्न स्पीक'में विस्तार के साथ फूको और दिलित्ज के 'पारदर्शिता' के तर्कों का खण्डन करते हुए लिखा कि ये लोग पश्चिम के द्वारा तीसरी दुनिया के देशों के शोषण से बच नहीं सकते। इस क्रम में स्पीवाक ने 'सती' के सवाल पर विस्तार से रोशनी डालते हुए।इस सवाल को परंपरा और आधुनिकीकरण के अंतर्विरोध, और विधवा की संपत्ति के सवाल से जोड़कर देखा है।

स्पीवाक ने स्वयं को उत्तर औपनिवेशिक सैध्दान्तिकी के अंदर रखने का निषेध किया है। उसका मानना है कि पोस्टकोलोनियल के नाम पर इतिहासकारों ने पुराने उपनिवेशवाद के वर्चस्व पर अतिरिक्त रूप में जोर दिया है।इसके कारण इन लोगों की धारणाओं के आधार पर सामयिक आर्थिक विश्व वर्चस्व को समझना मुश्किल है।खासकर श्वि बैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियों को समझने में ज्यादा मदद नहीं मिलती। स्पीवाक की तीन महत्वपूर्ण कृतियां हैं जिनमें विस्तार से यूरोपीय सैध्दान्तिकी का मूल्यांकन किया गा है। ये हैं ' इन दि अदर वर्ल्ड' ('आउट साइड इन दि टीचिंग मशीन' (ए क्रिटिक ऑफ पोस्ट कोलोनियल रीजन' (। इन तीनों कृतियों पर एडवर्ड सईद के विचारों की गहरी छाप है। स्पीवाक की आलोचना 'व्यवधान' और 'पूरक' का काम करती है। उसने देरि‍दा की इस बात के लिए तीखी आलोचना की कि मार्क्‍स के द्वारा 'पूंजी' के दूसरे खण्ड में औद्योगिक पूंजीवाद का विश्लेषण पेश किया गया है उसे सही ढ़ंग से समझ ही नहीं पाए। स्पीवाक ने भारत की आजादी की इस बात के लिए तीखी आलोचना लिखी है क्योंकि इससे औरतों,मजदूरों,किसानों और अन्य वंचित समूहों के जीवन में सामाजिक क्रांति नहीं हो पायी।सामाजिक क्रांति इसलिए नहीं हो पायी क्योंकि राष्ट्रीय बुर्जुआ ने अपना सामाजिक वर्चस्व बनाए रखा। वर्चस्वशाली ताकतों के खिलाफ वंचित इसलिए नहीं बोल पाए क्योंकि राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया से उन्हें बाहर रखा गया।

प्रसिध्द मार्क्‍सवादी आलोचक टेरी इगिलटन ने स्पीवाक की कृति ' ए क्रिटिक ऑफ पोस्ट कोलोनियल रीडर' की समीक्षा करते हुए लिखा कि गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक की यह पुस्तक उत्तर औपनिवेशिक आलोचना की किताब है। किन्तु स्पीवाक ने उत्तर औपनिवेशिकता की धारणा को बोगस करार देते हुए अपनी किताब की शुरूआत की है। खासकर अमेरिकी उत्तर औपनिवेशिक आलोचना को बोगस करार दिया है। साल किया जाना चाहिए कि यदि यह परंपरा बोगस है तो आप अब तक इसमें क्यों बने हुए हैं ,उन लोगों से भी सवाल किया जाना चाहिए कि जो लोग उत्तर औपनिवेशिकता के नाम पर लिखने वालों को आलोचना का शिकार बनाते रहते हैं ,उन्होंने स्पीवाक को क्यों रियायत दी हुई है

टेरी इगिलटन ने लिखा है कि उत्तर औपनिवेशिक आलोचकों की मुश्किल यह है कि वे अपनी बौध्दिक परंपरा को नहीं जानते,दूसरी मुश्किल यह है कि वे अपने पड़ोसी को नहीं जानते।यही वजह है कि पनी परंपरा और पड़ोसी को लेकर अंतराल में रहते हैं।टेरी इगिलटन ने लिखा है कि स्पीवाक ने अपनी भाषा पर कोई ध्यान नहीं दिया,न उसके फार्म और न शैली पर ही कोई ध्यान दिया। स्पीवाक के लेखन में वैविध्य है,इस वैविध्य का अमेरिकी बाजार के चरित्र के साथ गहरा संबंध है।

स्पीवाक उत्तर औपनिवेशिक है,विखंडनवादी है,मार्क्‍सवादी है,उत्तर आधुनिक है, सांस्कृतिक आलोचिका है, जिसको जो अच्छा लगता है उसी रूप में वर्गीकरण कर देता है। वर्गीकरण में आए विभिन्न नामों और स्पीवाक के लेखन के वैविध्य को ध्यान से देखा जाए तो उसमें वैविध्य वैसे ही है जैसा अमेरिकी बौध्दिक जगत में वैविध्य है।उसे किसी एक स्कूल में बांधकर रखना संभव नहीं है। वह किसी एक स्कूल में फिट भी नहीं बैठती।आज अकादमिक जगत में जो भी विचार फैशन में है ,उनमें से उसने सभी पर लिखा है।खासकर सैध्दान्तिकी बनाने में वह सिध्दहस्त है।

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