सांप्रदायिकता फासीवाद का स्त्री प्रत्युत्तर -1-
आधुनिककाल के औपनिवेशिक भारत में सबसे ज्यादा राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मुद्दा फासीवाद और सांप्रदायिकता ही रहा है। आज भी इसका राजनीतिक तौर पर विकृत रूप अलग-अलग शक्लों में दिखाई दे रहा है। फासीवादी ताकतों ने सारे विश्व में मानवता के लिए घृणा की फाँस को तैयार किया है। समूचे विश्व को युद्ध के खेमों में बदल दिया है। इसी की पिछलग्गू सांप्रदायिक चेतना का जहर फैलानेवाली शक्तियाँ हैं। सामाजिक विभाजन और घृणा इनका केन्द्रीय एजेण्डा है। विशेषत: औपनिवेशिक देशों में साम्राज्यवादी शक्तियों ने नस्लवाद, जातीय घृणा , लैंगिक भेद-भाव आदि को सचेत रूप से बढ़ावा दिया।
आज सांप्रदायिकता का दायरा व्यक्तिगत संबंधों से लेकर स्थानीय, संस्थागत और राश्ट्रीय राजनीति तक फैला हुआ है जिसका विस्फोट सांप्रदायिक दंगों में दिखाई देता है। सांप्रदायिकता के लिए आज सामाजिक और राजनीतिक संबंधों का पूरा ताना-बाना मौजूद है जिनके ऊपर सांप्रदायिक और फासीवादी शक्तियों की राजनीति चल रही है। यह न केवल सामाजिक चेतना के स्तर को प्रदर्शित करता है बल्कि पॉवर पॉलिटिक्स में वर्चस्व का औजार भी है , केवल राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए नहीं ,राजनीति में बने रहने के लिए भी। यह ध्यान रखना चाहिए कि सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतें इसे एक सतत प्रक्रिया के तहत जारी रखती हैं। विभिन्न सामाजिक संस्थाओं में इनकी निरंतर घुसपैठ जारी रहती है।
भारतीय समाज का जो ढाँचा है उसमें सामाजिक चेतना के बड़े स्तर को धर्म प्रभावित करता है। यह व्यक्ति को एक बृहत्तर सामाजिक पहचान मुहैया कराता है। धर्म मध्यकाल में व्यक्ति की पहचान से एकमेक था। लेकिन भारतीय समाज में आधुनिकता के अधूरे प्रकल्पों ने व्यक्ति की धार्मिक पहचान को बनाए रखा है। इस धार्मिक पहचान का दुरुपयोग राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए किया जाता है। सामान्य विश्वासों के आधार पर निर्मित विशेष धार्मिक -सामुदायिक पहचान का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। फिर भी यह लोगों की भावनाओं से जुड़ा होता है और अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता की चेतना के आधार पर चालित होता है। कोई भी धर्म मनुष्यता की हत्या या संहार का पाठ नहीं पढ़ाता । मानवीय व्यवहार के उन्नयन की शिक्षा सभी धर्म देते हैं। धार्मिक विश्वासों में अवधारणात्मक तौर पर अनेक समरूपताओं के बावजूद क्या कारण है कि धर्मों के बीच और धार्मिक पहचानवाले समूहों के बीच सौहार्द्र या एका नहीं है। इसका कारण है धर्म की वर्चस्वमूलक भूमिका। इसमें हम और अन्य की पहचान की कोटियाँ बहुत साफ-साफ रूप से तय हैं। हम के लिए सामान्य पहचान , सामान्य आचार संहिता और अन्य के लिए हेय और घृणा-भाव ! धार्मिक पहचान की ये कोटियाँ इतनी ठोस हैं कि नई पहचान की कोटियाँ मसलन वर्ग, राश्ट्र आदि कमज़ोर दिखाई देती हैं। जाति को भी धार्मिक पहचान की कोटि के रूप में ही देखा जाना चाहिए। उससे अलग नहीं। यही कारण है कि बरसों बरस साथ रहते हुए भी भारत में सामाजिक सौहार्द्रपूर्ण वातावरण निर्मित नहीं हुआ है। एक राष्ट्र की पहचान के सभी तत्व-भाषा, भौगोलिक सीमा, एक राजनीतिक व्यवस्था और संस्कृति के होते हुए भी साझी संस्कृति का जन्म नहीं हो सका है। इसके अभाव के चिह्न विभिन्न धार्मिक समुदायों मे ही नहीं बल्कि विभिन्न जातिगत पहचान, विभिन्न राश्ट्रीय पहचान, नस्ल भेद आदि में देखे जा सकते हैं। सबसे बड़ी चीज कि लैंगिक विभेद का भी बड़ा आधार धार्मिक कोटियों पर निर्भर होता है।
वर्चस्व की जितनी भी शक्तियाँ हैं वे अनिवार्य रूप से स्त्री के खिलाफ हैं । उसकी स्वतंत्रता और मुक्ति के खिलाफ हैं। यही कारण है कि स्त्री का स्वाभाविक रुझान सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों के खिलाफ रहा है। विडम्बना भी यही है कि साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतों ने बहाना कोई भी हो स्त्री के खिलाफ ही मोर्चा खोला है। उनका हर युद्ध , हर दंगा अंतत: स्त्री की देह , मन और परिवेश पर हमला बन जाता है। स्त्री के संघर्ष की लड़ाई को पीछे ठेलनेवाला बन जाता है। यही कारण है कि स्त्री ने फासीवाद और सांप्रदायिकता के घिनौने चेहरे को अपने लेखन के जरिए जब-तब उजागर किया है।
फासीवाद और सांप्रदायिकता से लड़ने का सर्वोत्तम तरीका है कि मानवीय व्यवहार और साझा संस्कृति के रूपायन पर जोर दिया जाए। इससे अपरिचय के तन्तु टूटते हैं और परिचय और प्यार का संबंध बनता है। एक हमलावर माहौल में सबसे पहले अपरिचय की स्थिति निर्मित की जाती है। आपसी प्रेम और मानवीय व्यवहार पर हमला बोला जाता है। इसका प्रतिरोध निर्मित करने का तरीका कठिन स्थितियों में उन्हीं विषयों पर लिखना हो सकता है जिन पर हमला बोला जा रहा है। स्त्री का इन विषयों पर लिखना कोई आसान काम नहीं होता । स्त्री स्वयं भी इन हमलों का प्रमुख लक्ष्य होती है। स्त्री जब लिखती है तो उसका अनुभव बोलता है। स्त्री लेखन की यह विशेषता है कि वह अनुभवपरक होता है। दूसरी विशेषता है कि वह आत्मीय शैली में होता । इसी अर्थ में स्त्री विमर्श की प्रकृति एक सहिष्णु विमर्ष की है। इसे बार-बार बताए जाने की जरुरत है। स्त्री विमर्श खूंखार औरतों का विमर्श है , जिसमें कुछ बिगड़ी हुई बदमिजाज़ औरतें शामिल हैं, जैसे दुष्प्रचारों को रोकने के लिए यह बताया जाना जरूरी है कि स्त्री विमर्श एक सहिष्णु विमर्श है। लेकिन यह सहिष्णुता सहने के लिए नहीं है जैसाकि स्त्री की परंपरित भूमिका की मांग है। यह सहिष्णुता 'अपने साथ-साथ सबके लिए विमर्श में जगह' के अर्थ में है। सभी वादों का , सभी मुद्दों का, सभी अनुशासनों का स्त्री विमर्श में स्वागत है। लेकिन स्त्री विमर्श का हिस्सा बनते ही वाद, मुद्दे और अनुशासन वे नहीं रह जाते जो पहले थे। इसी अर्थ में स्त्री विमर्श एक 'सबवर्सिव' विमर्श है।
स्त्री लेखन में सांप्रदायिकता, फासीवाद, राजनीति और धर्म के सवालों को एकांगी बहस के रूप में ट्रीट नहीं किया गया है। तीनों के अंतर्संबंधों पर स्त्री रचनाकारों की पैनी नजर है। इन तीनों में धर्म मध्यकालीन कोटि है। धर्म को आधार बनाकर की जा रही सांप्रदायिक राजनीति को स्त्री रचनाकार समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश कर रहीं हैं। इस प्रक्रिया में उनकी नजर वर्तमान पर ही नहीं अतीत का हिस्सा बने इतिहास पर भी है। इस चीज को कमलेश बख्शी की कहानी ' आओ दंगा-दंगा खेलें ' के अतिरिक्त भी कई कहानियों में देखा जा सकता है। सांप्रदायिक शक्तियों के द्वारा व्याख्यायित धर्म का अर्थ समझने का प्रयास करती हुई लेखिका टिप्पणी करती है ' धर्म का अर्थ क्या है ? एक-दूसरे को मारना ?' इस कहानी में दंगों की साक्षी तीन पीढ़ियाँ हैं - माँ जिसने दंगा देखा , माँ के पिता जो विभाजन की त्रासदी के बाद विक्षिप्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं और भाई-बहन जिसमें भाई दंगाइयों से चाल को बचाने के लिए अन्य लड़कों के साथ मिलकर बारी-बारी से पहरा देता है।
जो चीज हिन्दी की साम्प्रयिकता विरोधी कहानियों में देखने लायक है वह यह कि ये कहानियाँ अत्यंत प्रभावमूलक पक्षधरता के साथ नैरेट की गई हैं जो एक नितांत बर्बर स्थिति के खिलाफ मानवीय संवेदनाओं को जगाने , जिलाए रखने का काम करती हैं। मानवीय भावनाओं के बीच सियासती फैसले बड़ा फ़र्क पैदा कर देते हैं इस त्रासदी को ये कहानियाँ उभारती हैं।
मुसलमान इस देश का हिस्सा हैं। यह धरती उनकी भी उतनी ही है जितनी अन्य किसीकी। वे हमारे साझे इतिहास का हिस्सा हैं। भारत की संस्कृति साझा संस्कृति है और इसका संबंध किसी खास धर्म से नहीं है। यह सभी जातियों की साझा विरासत है। इंदुमति की कहानी 'पाषाण' में धर्मान्धता की कटु आलोचना है। यह कहानी विभाजन के समय की लिखी गई कहानी है। इसमें विभाजन की दिल दहला देनेवाली त्रासदी के चित्रण के साथ-साथ ही एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है। वह है शारीरिक हिंसा की शिकार स्त्री की कोख का फैसला।
सांप्रदायिक उन्माद का सबसे पहला शिकार स्त्री होती है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उसका शरीर और उसकी अस्मिता हमले के केन्द्र में रहती है। सबसे बड़ी बात कि इस विभाजन ने कैसी संतति पैदा की जो '' शेष आयु भर मानवता के प्रति विषवमन करेगी। '' (पाषाण)
सांप्रदायिक दंगों की शिकार स्त्रियों के प्रति समाज का क्या रूख है और क्या होना चाहिए इसे सामने लानेवाली कहानी है ' पाषाण '। स्त्री न जाने कितने किए अनकिए अपराधों की सजा पाती है। प्रेम को अपराध माना जाता है , स्त्री के स्वतंत्र निर्णय को अपराध माना जाता है, व्यक्तित्व का विकास और बराबरी अपराध है, जन्म लेना अपराध है, गरीब की बेटी होना अपराध है और भी न जाने किन-किन अनकिए अपराधों की फ़ेहरिष्त स्त्री के नाम है। समस्त अपराधों की धुरी स्त्री की देह है। देह जब बलात्कृत हो जाता है तो सजा बलात्कारी को नहीं बलात्कृता को मिलती है। स्त्री की देह को यदि सामाजिक प्रतिष्ठा का केन्द्र न बनाया गया होता, उसके व्यक्तित्व और आत्मा के दमन को यदि वैधता न दी गई होती तो जीते जी औरतों को इतनी वर्जनाओं में नहीं जीना पड़ता।
भारतीय समाज का जो ढाँचा है उसमें सामाजिक चेतना के बड़े स्तर को धर्म प्रभावित करता है। यह व्यक्ति को एक बृहत्तर सामाजिक पहचान मुहैया कराता है। धर्म मध्यकाल में व्यक्ति की पहचान से एकमेक था। लेकिन भारतीय समाज में आधुनिकता के अधूरे प्रकल्पों ने व्यक्ति की धार्मिक पहचान को बनाए रखा है। इस धार्मिक पहचान का दुरुपयोग राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए किया जाता है। सामान्य विश्वासों के आधार पर निर्मित विशेष धार्मिक -सामुदायिक पहचान का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। फिर भी यह लोगों की भावनाओं से जुड़ा होता है और अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता की चेतना के आधार पर चालित होता है। कोई भी धर्म मनुष्यता की हत्या या संहार का पाठ नहीं पढ़ाता । मानवीय व्यवहार के उन्नयन की शिक्षा सभी धर्म देते हैं। धार्मिक विश्वासों में अवधारणात्मक तौर पर अनेक समरूपताओं के बावजूद क्या कारण है कि धर्मों के बीच और धार्मिक पहचानवाले समूहों के बीच सौहार्द्र या एका नहीं है। इसका कारण है धर्म की वर्चस्वमूलक भूमिका। इसमें हम और अन्य की पहचान की कोटियाँ बहुत साफ-साफ रूप से तय हैं। हम के लिए सामान्य पहचान , सामान्य आचार संहिता और अन्य के लिए हेय और घृणा-भाव ! धार्मिक पहचान की ये कोटियाँ इतनी ठोस हैं कि नई पहचान की कोटियाँ मसलन वर्ग, राश्ट्र आदि कमज़ोर दिखाई देती हैं। जाति को भी धार्मिक पहचान की कोटि के रूप में ही देखा जाना चाहिए। उससे अलग नहीं। यही कारण है कि बरसों बरस साथ रहते हुए भी भारत में सामाजिक सौहार्द्रपूर्ण वातावरण निर्मित नहीं हुआ है। एक राष्ट्र की पहचान के सभी तत्व-भाषा, भौगोलिक सीमा, एक राजनीतिक व्यवस्था और संस्कृति के होते हुए भी साझी संस्कृति का जन्म नहीं हो सका है। इसके अभाव के चिह्न विभिन्न धार्मिक समुदायों मे ही नहीं बल्कि विभिन्न जातिगत पहचान, विभिन्न राश्ट्रीय पहचान, नस्ल भेद आदि में देखे जा सकते हैं। सबसे बड़ी चीज कि लैंगिक विभेद का भी बड़ा आधार धार्मिक कोटियों पर निर्भर होता है।
वर्चस्व की जितनी भी शक्तियाँ हैं वे अनिवार्य रूप से स्त्री के खिलाफ हैं । उसकी स्वतंत्रता और मुक्ति के खिलाफ हैं। यही कारण है कि स्त्री का स्वाभाविक रुझान सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों के खिलाफ रहा है। विडम्बना भी यही है कि साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतों ने बहाना कोई भी हो स्त्री के खिलाफ ही मोर्चा खोला है। उनका हर युद्ध , हर दंगा अंतत: स्त्री की देह , मन और परिवेश पर हमला बन जाता है। स्त्री के संघर्ष की लड़ाई को पीछे ठेलनेवाला बन जाता है। यही कारण है कि स्त्री ने फासीवाद और सांप्रदायिकता के घिनौने चेहरे को अपने लेखन के जरिए जब-तब उजागर किया है।
फासीवाद और सांप्रदायिकता से लड़ने का सर्वोत्तम तरीका है कि मानवीय व्यवहार और साझा संस्कृति के रूपायन पर जोर दिया जाए। इससे अपरिचय के तन्तु टूटते हैं और परिचय और प्यार का संबंध बनता है। एक हमलावर माहौल में सबसे पहले अपरिचय की स्थिति निर्मित की जाती है। आपसी प्रेम और मानवीय व्यवहार पर हमला बोला जाता है। इसका प्रतिरोध निर्मित करने का तरीका कठिन स्थितियों में उन्हीं विषयों पर लिखना हो सकता है जिन पर हमला बोला जा रहा है। स्त्री का इन विषयों पर लिखना कोई आसान काम नहीं होता । स्त्री स्वयं भी इन हमलों का प्रमुख लक्ष्य होती है। स्त्री जब लिखती है तो उसका अनुभव बोलता है। स्त्री लेखन की यह विशेषता है कि वह अनुभवपरक होता है। दूसरी विशेषता है कि वह आत्मीय शैली में होता । इसी अर्थ में स्त्री विमर्श की प्रकृति एक सहिष्णु विमर्ष की है। इसे बार-बार बताए जाने की जरुरत है। स्त्री विमर्श खूंखार औरतों का विमर्श है , जिसमें कुछ बिगड़ी हुई बदमिजाज़ औरतें शामिल हैं, जैसे दुष्प्रचारों को रोकने के लिए यह बताया जाना जरूरी है कि स्त्री विमर्श एक सहिष्णु विमर्श है। लेकिन यह सहिष्णुता सहने के लिए नहीं है जैसाकि स्त्री की परंपरित भूमिका की मांग है। यह सहिष्णुता 'अपने साथ-साथ सबके लिए विमर्श में जगह' के अर्थ में है। सभी वादों का , सभी मुद्दों का, सभी अनुशासनों का स्त्री विमर्श में स्वागत है। लेकिन स्त्री विमर्श का हिस्सा बनते ही वाद, मुद्दे और अनुशासन वे नहीं रह जाते जो पहले थे। इसी अर्थ में स्त्री विमर्श एक 'सबवर्सिव' विमर्श है।
स्त्री लेखन में सांप्रदायिकता, फासीवाद, राजनीति और धर्म के सवालों को एकांगी बहस के रूप में ट्रीट नहीं किया गया है। तीनों के अंतर्संबंधों पर स्त्री रचनाकारों की पैनी नजर है। इन तीनों में धर्म मध्यकालीन कोटि है। धर्म को आधार बनाकर की जा रही सांप्रदायिक राजनीति को स्त्री रचनाकार समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश कर रहीं हैं। इस प्रक्रिया में उनकी नजर वर्तमान पर ही नहीं अतीत का हिस्सा बने इतिहास पर भी है। इस चीज को कमलेश बख्शी की कहानी ' आओ दंगा-दंगा खेलें ' के अतिरिक्त भी कई कहानियों में देखा जा सकता है। सांप्रदायिक शक्तियों के द्वारा व्याख्यायित धर्म का अर्थ समझने का प्रयास करती हुई लेखिका टिप्पणी करती है ' धर्म का अर्थ क्या है ? एक-दूसरे को मारना ?' इस कहानी में दंगों की साक्षी तीन पीढ़ियाँ हैं - माँ जिसने दंगा देखा , माँ के पिता जो विभाजन की त्रासदी के बाद विक्षिप्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं और भाई-बहन जिसमें भाई दंगाइयों से चाल को बचाने के लिए अन्य लड़कों के साथ मिलकर बारी-बारी से पहरा देता है।
जो चीज हिन्दी की साम्प्रयिकता विरोधी कहानियों में देखने लायक है वह यह कि ये कहानियाँ अत्यंत प्रभावमूलक पक्षधरता के साथ नैरेट की गई हैं जो एक नितांत बर्बर स्थिति के खिलाफ मानवीय संवेदनाओं को जगाने , जिलाए रखने का काम करती हैं। मानवीय भावनाओं के बीच सियासती फैसले बड़ा फ़र्क पैदा कर देते हैं इस त्रासदी को ये कहानियाँ उभारती हैं।
मुसलमान इस देश का हिस्सा हैं। यह धरती उनकी भी उतनी ही है जितनी अन्य किसीकी। वे हमारे साझे इतिहास का हिस्सा हैं। भारत की संस्कृति साझा संस्कृति है और इसका संबंध किसी खास धर्म से नहीं है। यह सभी जातियों की साझा विरासत है। इंदुमति की कहानी 'पाषाण' में धर्मान्धता की कटु आलोचना है। यह कहानी विभाजन के समय की लिखी गई कहानी है। इसमें विभाजन की दिल दहला देनेवाली त्रासदी के चित्रण के साथ-साथ ही एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है। वह है शारीरिक हिंसा की शिकार स्त्री की कोख का फैसला।
सांप्रदायिक उन्माद का सबसे पहला शिकार स्त्री होती है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उसका शरीर और उसकी अस्मिता हमले के केन्द्र में रहती है। सबसे बड़ी बात कि इस विभाजन ने कैसी संतति पैदा की जो '' शेष आयु भर मानवता के प्रति विषवमन करेगी। '' (पाषाण)
सांप्रदायिक दंगों की शिकार स्त्रियों के प्रति समाज का क्या रूख है और क्या होना चाहिए इसे सामने लानेवाली कहानी है ' पाषाण '। स्त्री न जाने कितने किए अनकिए अपराधों की सजा पाती है। प्रेम को अपराध माना जाता है , स्त्री के स्वतंत्र निर्णय को अपराध माना जाता है, व्यक्तित्व का विकास और बराबरी अपराध है, जन्म लेना अपराध है, गरीब की बेटी होना अपराध है और भी न जाने किन-किन अनकिए अपराधों की फ़ेहरिष्त स्त्री के नाम है। समस्त अपराधों की धुरी स्त्री की देह है। देह जब बलात्कृत हो जाता है तो सजा बलात्कारी को नहीं बलात्कृता को मिलती है। स्त्री की देह को यदि सामाजिक प्रतिष्ठा का केन्द्र न बनाया गया होता, उसके व्यक्तित्व और आत्मा के दमन को यदि वैधता न दी गई होती तो जीते जी औरतों को इतनी वर्जनाओं में नहीं जीना पड़ता।
Comments
स्त्री हो या पुरुष अनुभवपरक लेखन ही सटीक और कारगर होता है.
yh bhi to schchai hai
is ke liye bhi kam kren
ved vyathit