लोकप्रिय हिन्दी सीरियल कितने परिवर्तनकामी ?




टेलीविजन पर दिखाए जानेवाले कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा समाचार देखा जाता है या फिर टेलीविजन धारावाहिक। ये दोनों टेलीविजन के सबसे लोकप्रिय विधारूप हैं। सबसे ज्यादा दर्शक संख्या को खींचने की ताकत इनमें है। धारावाहिक में एक कहानी चलती है जो अनंतरूपा होती है। इसी तरह से समाचार में भी सूचना पहले स्टोरी बनती है फिर खबर। खबर का ज्यादा से ज्यादा स्टोरी बनना सीरियल की विधागत लोकप्रियता का द्योतक है।


    ऐसी खबरें जिनके दृश्य मौजूद नहीं होते चाहे वे संगीन हत्या , बलात्कार या अन्य आपराधिक खबरें हों या कोई राजनीतिक अपराध से जुड़ी खबर हो , इनका नाटय रूपान्तर दिखाना भी खबर का धारावाहिकीकरण है जिसमें कहानी की भूख आम तौर पर पूरी करने की कोशिश की जाती है। कहानी के सभी आवश्यक तत्व भय, सनसनी, रोचकता, उत्सुकता, समाहार सब कुछ उसमें शामिल होता है। कहने का अर्थ यह है कि टेलीविजन के जितने विधारूप मौजूद हैं उसमें दो विधारूपों में जबर्दस्त प्रतिद्वन्द्विता है। जो चीज दर्शक और माध्यम अध्येता आसानी से महसूस कर सकता है कि इसमें बढ़त सीरियल की है।
  सबसे ज्यादा स्पॉन्सरशिप इन्हीं दो कार्यक्रमों को मिलते हैं। टेलीविजन के प्राइम टाईम में मनोरंजन चैनलों और समाचार चैनलों की होड़ाहोड़ी देखते बनती है। सीरियल के बरक्स मनोरंजनमूलक समाचारों की कई चैनलों पर भरमार होती है। संदेश के संप्रचारकों और कार्यक्रमों के प्रायोजकों के लिए यह समय सबसे मुफीद माना जाता है। इन दिनों टेलीविजन पर दिखाए जानेवाले लोकप्रिय धारावाहिकों में 'बालिकावधू' (कलर्स), 'राजा की आएगी बारात', 'बिदाई सपना बाबुल का', 'मितवा फूल कमल के' (स्टारप्लस), 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो', 'पवित्र रिश्ता' , 'घर लक्ष्मी बेटियाँ' (जी टी वी), ' पिया का आंगन' , 'स्त्री', 'सात वचन सात फेरे' (डी डी नेशनल) आदि हैं। इन धारावाहिकों के ट्रेण्ड को समझने की जरूरत है। क्योंकि सबसे ज्यादा इनकी दर्शकसंख्या है और सबसे ज्यादा ये प्रभाव छोड़ते हैं। 


समाचार में सूचना ग्रहण करने का भाव प्रमुख होता है जबकि सीरियल को फुर्सत का शगल माना जाता है। सवाल है कि फुर्सत के क्षणों में हम ग्रहण क्या कर रहे हैं ? हमारे दिमाग पर आराम के क्षणों में कौन सी चीज बैठाठ जा रही है और क्यों ? मनुष्यता ने लंबे समय के संघर्षों के बाद जिन आधुनिक मूल्यों को अर्जित किया है या अर्जित करने की दिशा में है उन सारी उपलब्धियों को दरकिनार तो नहीं किया जा रहा ?
  
     धारावाहिकों की विधा रूप में खासियत है कि जब भी कोई चैनल सीरियल शुरू करता है वह समाजसुधार के एजेण्डे के साथ शुरू करता है। भारत में कोई भी सीरियल खासकर हिन्दी का सीरियल समाजसुधार के एजेण्डे के साथ आता है।  'बालिकावधू' (कलर्स, सोमवार से गुरूवार रात 8 बजे) सीरियल के केन्द्र में पितृसत्ताक आउटफिट में एक महिला है।




 इस सीरियल में एक अच्छी बात है। यह रिफॉर्म के एजेण्डे के साथ शुरू होता है। इसका विषय क्षेत्र परिवार है। रिफार्म का एजेण्डा नवजागरण की समस्या है। आजकल विशेष तौर पर राजस्थान, हरियाणा और बिहार की पृष्ठभूमि हिन्दी के लोकप्रिय सीरियलों के केन्द्र में है। ये हिन्दी भाषी प्रदेश तथाकथित हिन्दी नवजागरण के केन्द्र हैं। कलर्स पर प्रसारित होनेवाले 'बालिकावधू' और 'लाडो' सीरियल , जी टी वी का 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' , स्टार पर 'घर की लक्ष्मी बेटियाँ' आदि इसका उदाहरण हैं।
   
     हिन्दी में  सेक्सुअलिटी का मसला परिवार और समाजसुधार के एजेण्डे के साथ प्रवेश करता है। समूचे यूरोप में प्रसारित होनेवाले सीरियलों में सेक्सुअलिटी की थीम एक महत्वपूर्ण थीम रही है। ये संभव ही नहीं है कि सेक्सुअलिटी के बिना सीरियल बने। सेक्सुअलिटी का मतलब स्त्री है। स्त्री का संसार है। उसके बिना सीरियल नहीं बनता। सीरियलों के प्रचलित पैटर्न को गंभीरता से देखने और जानने की जरूरत है कि स्त्रियाँ इन सीरियलों में क्या करती हैं ? स्त्रियों का क्या काम है ? वे उत्पादक वर्ग हैं या अनुत्पादक वर्ग हैं ? यह विचार करने योग्य बात है कि 21 वीं शताब्दी में ऐसे सीरियल इफरात में दिखाए जा रहे हैं जिनमें स्त्रियाँ उत्पादक वर्ग नहीं हैं। अनुत्पादक वर्ग हैं। ये योरोप की परंपरा है। वहाँ इस तरह के सीरियल जिनमें स्त्रियाँ उत्पादक वर्ग नहीं हैं अच्छी उपभोक्ता हैं खूब प्रचलित हैं।
  ये सामान्य ढर्रा है कि स्त्री जो दिखाई जाए वह घरेलु हो , परंपरागत हो। ध्यान रहे कि सीरियल में कहानी महत्वपूर्ण नहीं होती, चरित्र महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि चरित्रों का लोग अनुकरण करते हैं। उसके हाव-भाव नजरिए आदि का अनुकरण करते हैं। चरित्रों के जरिए पूरे बाजार का , उपभोग का ढाँचा तय होता है। चरित्र महत्वपूर्ण होते हैं। चरित्र कैसे हैं इससे तय होता है कि कहानी का प्रभाव क्या होगा। हिन्दी के सीरियलों में चरित्र कैसे हैं ? गौर करें तो ये सभी अनुत्पादक चरित्र हैं। 


हिन्दी के सीरियलों की सामान्य विशेषता है कि इनमें सबसे ज्यादा स्त्री अनुत्पादक चरित्र है। दूरदर्शन से लेकर जी टी वी, स्टार प्लस और नया आरंभ हुआ कलर्स चैनल पर सबसे ज्यादा अनुत्पादक स्त्री चरित्र मिलेंगे। यानि ठेठ देशी से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चैनलों में स्त्री का रूपायन एक जैसा है। वही औरत ग्रहण करने योग्य और स्वीकार्य है जो परंपरागत है। घरेलू है। 


    अचानक सीरियलों में गाँव महत्वपूर्ण हो गए हैं। गाँव के परिवेश में निर्भर स्त्री चरित्रों की खोज करने की जरूरत नहीं है। सारा का सारा सामंती ढाँचा ही स्त्री को निर्भर बनाने पर जोर देता है। मध्यवर्गीय परिवारों का रूपाययन करनेवाले सीरियलों में भी स्वनिर्भर और स्वतंत्र स्त्री की छवि न के बराबर है। वो स्त्रियाँ हैं जो महँगे गहनों कपड़ों में अपने पुरूषों के ओहदे के अनुसार लदी हैं। एक दूसरे के खिलाफ षडयंत्र कर रही हैं।

  
कायदे से ये चैनल ऐसी स्त्री चरित्रों को दिखा सकते थे जो आधुनिक है। स्वनिर्भर है। संघर्ष से पहचान अर्जित करती है। अपने बूते पर खड़ी है। लेकिन ऐसा नहीं है। आधुनिक वेशभूषा में सजी-धजी औरत गहनों और लाउड मेकअप में होती है। स्त्री को चिर युवा के रूप में ही दिखाया जाता है। सास और बहू के संबंधों का रूपायन है पर कम उम्र और बुजुर्ग स्त्रियों की साज सज्जा में ज्यादा अंतर नहीं है।
   

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