सीरियल में मातहत भाव




सीरियल, अखबार, विज्ञापन आदि संस्कार विकसित करते हैं। देखना चाहिए कि इनके द्वारा किन चीजों को वैधता प्रदान की जा रही है ? स्त्री की कुटिलता, दुष्टता या चालाकी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है उसका मातहत भाव। उसका समर्पणकारी भाव। इन दो चीजों के अंतर्गत स्त्री की सारी दुनिया निर्मित की जा रही है। स्टार के जितने लोकप्रिय सीरियल हैं जैसे 'राजा की आएगी बारात', 'बिदाई : सपना बाबुल का', 'मितवा फूल कमल के' आदि में स्त्री के मातहत और समर्पणकारी भाव को वैध बनाया जा रहा है। 'राजा की आएगी बारात' की नायिका रानी के साथ साथ इस धारावाहिक के सभी स्त्री पात्र निष्क्रिय और अनुत्पादक चरित्र हैं। उनका कोई निजी स्पेश नहीं है। पति या मालिक के इर्द-गिर्द उनका संसार घूमता है। मानों वे पुरूष चरित्रों के आराम का सामान मात्र हों। किसी चरित्र में कोई विकास नहीं। स्टिीरियोटाईप ये स्त्री पात्र सिर्फ अनुकरण करती हैं। अनुगामी भाव इनका मुख्य भाव है। इनकी अपने बीच की दुनिया कुटिलता, क्षुद्रता, छल, प्रपंच से भरी हुई है। वह भी किसी बड़े उद्देश्य के लिए नहीं विशिष्ट पुरूष या स्वामी को प्रसन्न करने के लिए। यही हाल जी टी वी पर प्रसारित होनेवाले प्रमुख धारावाहिकों का है। 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' , 'पवित्र रिश्ता' (जी टी वी), स्त्री , बैरिस्टर रॉय (डी डी नेशनल) आदि धारावाहिकों में यह स्थिति देखी जा सकती है। 'पवित्र रिश्ता' (जी टी वी) के प्रोमो में स्पष्ट रूप से एक युवक घोषणा करता है कि वह विवाह इसलिए करना चाहता है कि उसे एक अच्छी हाउसवाइफ चाहिए। यानि विवाह में मित्रता, प्यार, सम्मान, निजता कोई भी चीज महत्वपूर्ण नहीं है। व्यक्तित्व के विकास के अवसर महत्वपूर्ण नहीं हैं। क्योंकि किसी भी व्यवस्था में विवाह के अंतर्गत तुलनात्मक रूप से पुरूषों का स्वतंत्र स्पेश बना रहता है। ये चीजें यदि चाहिए तो स्त्री को। उसी के पक्ष से इन सब पर बात करनी होगी।
  दिक्कत यह है कि भारतीय समाज में विवाह को स्त्री के लिए पूरावक्ती कैरियर के रूप में देखा जाता है। जिसमें परिवार के अंतर्गत स्त्री की भूमिकाएँ महत्वपूर्ण होती हैं। स्त्री को विवाह के बाद विवाह के पहले के सभी संबंध , भूमिकाएँ, सामाजिक स्पेश आदि छोड़ने पड़ते हैं। अव्वल तो छुड़वा दिया जाता है या इस तरह की परिस्थितियाँ तैयार की जाती हैं कि वह स्वयं छोड़ देती है। 'कलर्स' पर प्रसारित धारावाहिक 'न आना इस देश लाडो' में एक जुझारू लड़की विवाह के बाद के सारे पारिवारिक नियमों को मानने पर बाध्य की जाती है। परिवार से बगावत करती बहू नियमविरूध्द लगती है। इसलिए इन चैनलों पर प्रसारित धारावाहिकों में जुझारू से जुझारू लड़की की बगावत की सीमा भी तय है। यह बगावत बदलाव के लिए न होकर सुधार के लिए है। 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' (जी टी वी) की ललिया के चरित्र में बगावत है। उसके चरित्र में संभावनाएँ भी हैं। यह अकेला ऐसा सीरियल है जहाँ घरेलु स्त्रियाँ भारी साड़ियों और भारी गहनों से नहीं लदी हैं। ललिया की माँ और गाँव के लोगों का पहनावा स्वाभाविकता के करीब है। एक पात्र है छोटी बहू जो मेकअप की शौकीन है। अन्यथा जमींदार घराने की अन्य स्त्रियाँ सामान्य गहनों में और चरित्र के अनुकूल कपड़ों में स्वाभाविक लगती हैं। सुष्मिता मुखर्जी का चरित्र भी अपने पहनावे और अभिनय में सटीक लगता है। पर यह सीरियल अपवाद है। इसके अलावा प्राय: अन्य सभी सीरियलों में स्त्रियों के कपड़े गहनों के आधार पर नौकरानी और मालकिन का भेद करना मुश्किल है। ठीक इसी तरह से स्त्रियों की काम की जगह और कपड़ों का कोई मेल नहीं है। सोकर उठ रही हैं तो , रसोई में हैं तो, बाहर जा रही हैं तो एक जैसी वेशभूषा है। बाजार और सीरियल की दाँत काटी रोटी की दोस्ती है। सीरियल में कहानी के अनुकूल मेकअप, गहने और वस्त्र नहीं हैं बल्कि बाजार के अनुकूल हैं। सीरियल बाजार में क्या बिकेगा यह तय कर रहे हैं।
   सीरियल के स्त्री और पुरूष चरित्र पुंसवादी व्यवस्था के चौखटे में बात करते सोचते हैं। यह अभिनय और संवाद दोनों में अभिव्यक्त होता है। खानदान, परिवार, पुत्र, इज्जत आदि के दायरे में कहानी घूमती है। इन्ही चीजों की चिंता स्त्री और पुरूष दोनों को है। परिवार का मुखिया महत्वपूर्ण दर्जा रखता है। स्त्री यदि इस भूमिका में है जैसे कि 'बालिकावधू' (कलर्स) या 'ना आना इस देश लाडो'(कलर्स) तो यह स्त्रीवादी पुंसवाद की शक्ल में प्रस्तुत किया गया है। जहाँ मुखिया पुरूष है वहाँ सीरियल सीधे सीधे पुंसवादी वर्चस्व के नियमों से चलता है। उदाहरण के लिए देखें-
  '' जो हमरे खिलाफ जाता है वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता। काट के रख देते हैं हम। तुझे इसीलिए बकस रहे हैं कि तेरे पास हमरे खानदान का चश्मोचिराग है। कुल का दीपक। '' -'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' (जी टी वी)
 '' पापा मुझे लगता है शायद हमारे परिवार के लिए ये सबसे बड़ा इम्तिहान है। तो हम इसमें हार कैसे सकते हैं। बचपन से आप के मुँह से सुनती आई हूँ कि जीत हमेशा सचाई की होती आई है। तो फिर हम कैसे हार सकते हैं पापा ! हमेशा आप लोगों की तकलीफें दूर करने में लगे रहे तो फिर आपकी अपनी बेटी इतने समय तक तकलीफ में कैसे रह सकती है ? आप इतनी जल्दी उम्मीद क्यों छोड़ रहे हैं पापा, सब ठीक हो जाएगा। आप फिक्र मत कीजिए। मैं हूँ न। '' बेटा मैं तेरे हौसले और सचाई पर संदेह नहीं कर रहा हूँ। लेकिन पर बाप हूँ तेरा। बचपन में जब तू पेड़ से गिर जाया करती थी और तेरे घुटने में भी जरा सी चोट लग जाया करती थी तो मैं कितना बेचैन होता था। और आज जब तेरे साथ कितना कुछ हो रहा है तो मैं अपने आप को कैसे संभालँ।'' '' संभालना होगा पापा मेरे लिए संभालना होगा। बचपन में आपकी उंगली पकड़ कर चलना सीखा था और अगर आज आपने मेरी उंगली छोड़ दी न तो नहीं चल पाउंगी। (न आना इस देश लाडो, कलर्स, निदेशक- दिनेश महादेवन)
  '' मेरे से पूच्छे बिना इस फोन से हाथ लगाने की हिम्मत कैसे हुई तेरी ? तैने पता नहीं कि जब तक मैं न बोलूँ रोटी का एक टुकड़ा नहीं डाल सकती तू अपने मुँह में। याद रखना सै कि तू इस हवेली की नौकरानी सै। और इस घर की नौकरानियाँ ने मेरे से बिना पूच्छे सांस लेने की भी इजाजत नहीं है। घर की चीजें छूना तो बहुत दूर की बात सै। और तू तेरी हिम्मत कैसे हुई जे फोन इस तक पहुँचाने की ? सबसे साफ साफ कह दिया था कि इस छोरी की कोई मदद नहीं करेगा। जितना इसके लिए ये याद रखना जरूरी है उतना ही तम लोगां के लिए भी ये याद रखना जरूरी है कि ये इस हवेली की नौकरानी है बस नौकरानी।    ये तेरी पहली भूल सै। अरे एक बार की माफी तो इस हवेली के सारे नौकरां तै मिले है। बस एक बार ! आज तै एक टांग से दूसरे टांग पै खड़ी होगी तो म्हारे से पूछ कर खड़ी होगी। ना तो तन्ने भी वही सजा मिलेगी जो बाकी सबने मिले है। आई समझ में।     '' (वही)
  '' इसीलिए कहता था कि लुगाइयों को अपनी औकात में ही रहना चाहिए। अरे पाँव की जूती को कोई अपने सर पे रक्खे है के ? औरतों ने अपना हक दिलाने चली थी बेवकूफ छोरी। इब माँज्जी ने सही जगह दिखाई छोरी को। इब देखना। जे तो शुरूआत है।''  (वही)
  ''कै घूर रही सै। नजर नीच्ची राख । सुनाई न दे रहा कै तन्ने ? नजर झुका। अरे अपने खसम की ऑंखों में देखने की हिम्मत कहाँ से आ गई रे तुझमें ? समझ में न आ रया है कै तन्ने। '' (वही)
  उपरोक्त सभी उध्दरणों में परिवार केन्द्र में है। परिवार के पुराने ढाँचे को पकड़े रखने और उसमें कुछ बदलाव की इच्छा के बीच की जद्दोजहद है। 'न आना इस देश लाडो' की नायिका का नाम सिया है। यह भी प्रतीकात्मक है। परिवार के लिए आजीवन कष्ट सहने वाली स्त्री का। नायिका सिया का जो उध्दरण ऊपर दिया गया है उसमें एक स्वतंत्र लड़की का व्यक्तित्व नहीं बोलता। वह बचपन में मिले मायके के संस्कारों की बात कर रही है और सास के अत्याचारों से मुक्ति के लिए पति के आने तक इंतजार करने को बाध्य है।




                              

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