भाषा में वर्चस्व निर्माण की प्रक्रिया
अमूमन भाषा का वर्ग या भाषा का स्त्रीबोध या स्त्री-भाषा जैसे पद-बंध सुनते ही ऐसा मालूम पड़ता है कि भाषा के प्रचलित विमर्श के स्थिर जल में कंकड़ फेंक दिया हो। भाषा में वर्ग और स्त्री बोध या स्त्री-भाषा जैसे विभाजन क्यों। भाषा तो बहता नीर है ,अनंत है, बह्मतुल्य है उसमें विभेद- वर्गीकरण कैसा ? पर यह वर्गीकरण भाषा के भीतर ही मौजूद था , है। भाषा को वैयाकरणिक प्रणाली से नियमित करने और विज्ञान के पद तक पहुँचाने में वर्चस्वशाली पुरुष तबके का हाथ रहा है। इन्होंने भाषा के नियम ,विधान सबकुछ अपने को केन्द्र में रखकर तैयार किए। भाषा का वर्ग या मजदूरों या स्त्रियों की भाषा का अर्थ समाज में बोली जानेवाली भाषा (जो कि पुरुष भाषा है) से एकदम भिन्न कोई भाषा है, ऐसा नहीं है। भाषा वही है जो समाज में प्रचलित है लेकिन उसके शब्द, रूप आदि में स्त्री का संसार शामिल होगा जो समस्त स्त्री जाति के अनुभव और चिंतन का संसार होगा।
भाषा के विकास में वर्गों की भूमिका होती है लेकिन अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग भाषा नहीं होती। रामविलास शर्मा के अनुसार '' भाषा समूचे समाज की संपत्ति है। स्तालिन ने भाषा का वर्ग-आधार माननेवालों का सही खंडन किया था। इसका यह अर्थ है कि भाषा के विकास में वर्गों की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती सामन्तों व्यापारियों, विद्वानों की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं के कारण ही संस्कृत और लैटिन का परिनिष्ठित रूप संभव हुआ और इन भाषाओं का अखिल भारतीय और अखिल यूरोपीय व्यवहार होता था। सामंती व्यवस्था के ह्नास और व्यापारियों द्वारा नए पूँजीवादी संबंधों के प्रसार के साथ मास्को ,लंदन, पैरिस और दिल्ली की बोलियों के आधार पर रूसी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी और हिन्दी भाषाओं का जातीय भाषाओं के रूप में गठन और प्रसार हुआ था। इस प्रक्रिया में पूँजीपतिवर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। साथ ही मज़दूर वर्ग, मध्य वर्ग और शहरों के संपर्क में आनेवाले किसान भी इस जातीय भाषा को अपनी बोलियों के साथ काम में लाकर उसके प्रसार में सहायता करते हैं और बहुधा अपनी बोलियों के तत्व मिलाकर उसे समृध्द करते हैं।''
भाषा में लिंग कब आया ,यह देखना दिलचस्प होगा। हिन्दी में पहले लिंग की जगह 'व्यक्ति' का प्रयोग हुआ करता था। पाणिनि के व्याकरण में लिंग के लिए 'व्यक्ति' शब्द आया है। '' पुरुष या बालक के समान जिनकी बनावट है, वे 'जल' ,'वन','पर्वत' आदि शब्द पुरुष जातीय, पुंवर्गीय, या 'पुल्लिंग' कहलाते हैं। स्त्री के समान जिनका कलेवर है, वे 'नदी', 'लकड़ी', 'मकड़ी' आदि शब्द स्त्रीजातीय, स्त्रीवर्गीय या स्त्रीलिंग' कहे जाते हैं।'' हिन्दी में पुंविभक्ति 'आ' है और स्त्रीविभक्ति 'इ','ई'। संस्कृत में उभयलिंग भी है जिनमें स्त्री या पुरुष से इतर वस्तुओं के नामों को रखा गया है।
लेकिन भाषाओं के विकास के नाम पर विश्व की अन्य भाषाओं की तरह ही हिन्दी में भी वस्तु या जीव के स्त्री या पुरुष होने और बताने को ज्यादा महत्व दिया गया। उभयलिंग को हटाकर संस्कृत के अकारान्त नपुंसक लिंग शब्द हिन्दी में पुल्लिंग बन जाते हैं। संस्कृत के नकारान्त नपुंसक शब्द, भाववाचक नपुंसक लिंग संज्ञाएं सब हिन्दी में पुल्लिंग हो जाती हैं। प्रथमा एकवचन में 'आत्मा' जैसा शब्द अपवाद है जो स्त्रीलिंग है अन्यथा जो पुल्लिंग थे वे तो रहे ही और उभयलिंग को भी पुल्लिंग बना लिया गया। किशोरीदास वाजपेयी ने इस पर लिखा है ''न जाने क्यों हमारी आत्मा ने स्वीकार न किया' ! मेरा आत्मा अच्छा नहीं लगता ; यद्यपि 'परमात्मा' पुंवर्ग में ही है! इसी तरह 'देह' हिन्दी में स्त्रीवर्ग में चलता है; यद्यपि शरीर आदि पुंवर्ग में। परंतु पुस्तक, देह ,आत्मा जैसे अपवाद अंगुलियों पर ही गिने जा सकते हैं। व्यापकता पुंवर्ग की ही है। --------शब्दों की अपनी गति होती है। संभव है, अधीनता और स्वतंत्रता के कारण स्त्री-पुरुष का वर्ग भेद जनता ने कर दिया हो। परमात्मा के अधीन आत्मा और आत्मा के अधीन देह। सो 'परमात्मा' पुंवर्ग में रहा और उसके अधीन 'आत्मा' स्त्रीवर्ग में ! 'देह' भी स्त्रीवर्ग में इसीलिए कि 'आत्मा' से संचालित है। 'शरण' भी स्त्रीरूप में चलता है।''
हिन्दी के ई' प्रत्यय जिससे स्त्रीलिंग बनाया जाता है , के बारे में राय देखिए-'' पुंविभक्ति-युक्त 'घंटा' आदि से लघुता प्रकट करने के लिए 'ई' प्रत्यय होता है--'घंटी'।'' निष्कर्ष यह कि भाषा के नियम स्वाभाविक नहीं हैं ,वे बनाए गए हैं। भाषा के नियमों की मूल संकल्पना पुरुषकेन्द्रिक है। पुल्लिंग क्रिया को स्त्रीलिंग बनाने के लिए 'ई' प्रत्यय अनिवार्य रूप से लगता है। पांडित्य, महत्ता प्रकट करनेवाले शब्द पुंवर्गीय हैं। इसके पीछे पुरुष-श्रेष्ठत्व ही प्रमाण है। शक्ति स्त्रीलिंग है इसलिए शक्ति के प्रतीक स्त्रीलिंग हो गए।
किसी संवेदनशील वैयाकरण की नजर से यह बात छिपी नहीं रह सकती ''प्रधानता और अप्रधानता में मानव भावना कारण है और भावना में स्वार्थ कारण है। सृष्टि में पुंवर्ग अधिक शक्तिशाली दिखाई देता है और इसलिए सवारी या लादने के काम में पुंवर्गीय पशुओं को ही अधिक पसंद किया जाता है। इसीलिए घोड़े ,ऊँट तथा हाथी की ओर ध्यान जाता है और झट कह दिया जाता है- 'घोड़े यहाँ हल भी जोतते हैं।' चाहे घोड़ियों से भी हल खिंचवाया जाता हो; परन्तु बोलने में 'घोड़े' ही आएगा। '' यह भी गौरतलब है कि हिन्दी में अन्य अधिकतर भाषाओं की तरह सामान्य प्रयोग पुंप्रयोग ही होता है।
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