यक्षिणी प्रश्न
आज स्त्री विमर्श सबसे ज्वलंत मुद्दा है। यह एक तरह से समाज में अब तक परिभाषित स्त्री की भूमिका को बदलने वाला विमर्श भी है।दी गई परिस्थितियों से नकार है। अब तक होता यह आया था कि स्त्री को 'नकार' 'के रूप में चित्रित किया जाता रहा लेकिन नकार के नियम के जनकों को यह आभास भी नहीं रहा होगा कि एक दिन स्त्री इसी को लड़ाई का औजार बना लेगी। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि स्त्री की लड़ाई एक नकारात्मक लड़ाई है।वास्तवमें यह बहुप्रतिक्षित, बहुलंबित और दीर्धकालिक लड़ाई है जो अतिरिक्त धैर्य की मांग करता है। अतिरिक्त सावधानी और चौकन्नेपन की मांग करता है।खुशी की बात है कि स्त्रियों को इसके लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। सदियों के अभ्यास से अर्जित गुण उनके आज के संघर्ष को सघनता प्रदान कर रहा है।घर बाहर की यह जागरुकता उनकी सोच और चिन्तन में आए बदलाव का संकेत है। दिलचस्प बात यह है कि औरत के औरतपन की धारणा के सबसे बड़े बंदी पुरूष ही हैं , स्त्री नहीं।उन्हीं को औरतपने के खात्मे की चिन्ता ज्यादा है। औरतपना यानी लिंगभेद, औरतपना यानी संस्कृति की रक्षा का एकमुश्त ठेका ,औरतपना यानी मातृत्व का गौरवमय सिंहासन ,औरतपना यानी गार्हस्थ्य जीवन का असंतुलित पहिया, औरतपना यानी ढ़ाई पाव सिंदूर, सिक्के के बराबर बेंदी ,मुस्कुराता चेहरा, सब कुछ अच्छा है का भाव लिए!औरतपना यानी और भी इन जैसा बहुत कुछ लेकिन सबसे ऊपर तुलनात्मक तौर पर एक हीन स्थिति ,सुविधाओं के लिए तैयार किया गया एक असुविधाजनक अस्तित्व!
आदिम समाज से लेकर अब तक स्त्री का इतिहास संघर्ष और अनुकूलन का इतिहास है ,जबकि पुरूष का इतिहास विजय और प्राप्ति का।इतना बड़ा असंतुलन विश्व के लगभग सभी समाजों में चलता रहा और इसमें आधुनिक युग के पहले तक कुछ भी अस्वाभाविक नहीं मालूम हुआ! स्त्री और दासों की समान स्तर पर चर्चा अरस्तू ने की है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में नवजागरण का जो स्त्रीविमर्श है वह भी रैडिकल नहीं है, समायोजन वाला है ,खासकर बंगाल के संदर्भ का। आधुनिक कानून और मानव अधिकार आयोग के गठन के बाद स्त्री से जुड़े मुद्दे चर्चा में आए।हाशिए के विमर्शों के लिए दरवाजा खुला।अभी स्थिति कम अज कम इतनी बदली है कि सीधे सीधे स्त्री के लिए पुरानी सामाजिक स्थितियों की वकालत करनेवाला विमर्श के स्तर पर नक्कू बनने की स्थिति में होता है।लेकिन बात जहाँ व्यवहार की होती है वहाँ स्त्री के लिए बुनियादी तौर पर कुछ नहीं बदलता। स्त्री के सामाजिक क्षेत्र इतनी कठोरता से डिफाईन हैं कि सारा प्रयास कॉस्मेटिक चेंज होकर रह जाता है। इसका कारण है कि बरतने का संबंध वर्चस्व से है।वर्चस्व के संबंध गैर बराबरी के संबंध होते हैं। इसमें सम्मान और बराबरी का भाव कभी नहीं होता।इसमें ईमानदारी नहीं होती। इसका आधार छल होता है। अपना स्वार्थ , अपनी खुदमुख्तारी होती है। जाहिर है कि यह दूसरों का स्पेश घेरता है।उसकी स्वतंत्रता उसके अधिकारों का अपहरण करता है और अपने परजीवीपन को तब तक बनाए रखता है जब तक संभव हो।
पितृसत्तात्मक मूल्यों की अन्यतम विशेषता है कि यह हर व्यवस्था में माकूल बैठता है। यही वजह है कि किसी भी व्यवस्था में पितृसत्तात्मक मूल्यों के खात्मे के लिए बेचैनी नहीं दिखी।यह सत्ता का विमर्श है आराम का विमर्श है।पितृसत्तात्मक व्यवस्था के समाप्त होने पर भी पितृसत्तात्मक मूल्यों को कहीं से चुनौती नहीं मिली। यह बाजार और मुनाफे के तंत्र में भी आसानी से फिट हो गया। यही कारण है कि स्त्री आज बाजार का हिस्सा बनी हुई है।समाज में स्त्री की भूमिका को, स्त्री के प्रति समाज के रवैये को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। स्त्री के साथ पहला भेदभाव उसकी अबोधावस्था से शुरू होता है जब वह इससे परिचित भी नहीं होती।गाँव के संदर्भ में साधनों की सीमित उपलब्धि में लड़की आसानी से बाहर हो जाती है।स्कूल से ड्रापआउट की बड़ी संख्या लड़कियों की है।औरत अपने लिए पुस्तक में स्त्री से किए जा रहे सामाजिक बरताव को अलग अलग कोणों से देखने की कोषिष है। भँवरी देवी साथिन का किस्सा जनमानस की धुँधली स्मृति में एक निम्नवर्गीय स्त्री पर बलात्कार का किस्सा बनकर रह गया। कारण!स्त्री का बलात्कार पुंसवादी मानसिकता को डिस्टर्ब नहीं करता क्योंकि बलात्कार को न्यायायिक दण्डविधान के रूप वहाँ स्वीकृति है।बलात्कार आपराधिक घटना नहीं है बल्कि पुंसवादी मानसिकता में किसी आपराधिक घटना का हिसाब बराबर करने की प्रकिया है। फिर क्या वजह है कि भँवरी के बलात्कार की बात को मीडिया में उछाला गया उसके कारण को नहीं! कारण था ,भँवरी द्वारा बालविवाह का विरोध!कारण यदि फ्लैश में बार बार आता है तो आधुनिक समाज पर धिक्कार गिरेगा।प्रश्न है कि कब तक हम इसी तरह से रोते बिसूरते रहेंगें, अपने अधिकारों को लेकर लामबंद कब होंगे।स्त्री के सवाल पर जनतांत्रिक विरोध के जो तरीके हैं सबका इस्तेमाल करना होगा।
सेक्सुअलिटी के सवाल पर स्त्री को हमेशा उसे दबाने, छिपाने,शर्म करने को कहा जाता है। स्त्री की सेक्सुअलिटी पुरूष के लिए हमेशा से चुनौती भरी रही है।इस पर नियंत्रण की कोशिश वह अनादिकाल से करता आया है।नग्नता कामुक नहीं होती,कामुक होती है नग्नता को देखने की दृष्टि। स्त्री की सेक्सुअल इमेजों में स्त्री उससे आनंद नहीं पाती बल्कि प्रवोकेटिव भूमिका में होती है।स्त्री आनंद की उपभोक्ता नहीं, उत्प्रेरक होती है।स्वयं से प्यार नहीं बल्कि स्वयं से घृणा के रूप में उसके अस्तित्व को विकसित किया जाता है।इसलिए सेक्सुअलिटी का प्रदर्शन करते हुए भी वह उसमें शामिल नहीं होती। सलज्ज सौंदर्य का महिमामंडन शायद इसी कारण है।जबकि पुरुष की सेक्सुअलिटी शर्म की नहीं प्रदर्शन की चीज होती है।
स्त्री का खाली समय नहीं होता,,उसे निकालना पड़ता है। स्त्री के सवाल , उसकी लड़ाई अकेले की लड़ाई नहीं है।बृहत्तर स्त्री समाज की लड़ाई का हिस्सा है।
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