रवीश कुमार की नजर में 'नई रोशनी'
ब्लॉग वार्ता : इस हिन्दी का क्या होगा
रवीश कुमार
First Published:12-01-10 11:44 PM
Last Updated:12-01-10 11:48 PM
क्या वाकई स्त्री और पुरुष आत्मकथाओं के शीर्षकों और विषयों में फर्क होता है? सुधा सिंह लिखती हैं कि जब पुरुष आत्मकथा लिखता है तो शीर्षक होता है अपनी धरती अपने लोग, सत्य के साथ मेरे प्रयोग आदि। जब स्त्री आत्मकथा लिखती है तो शीर्षक बदल जाते हैं। दोनों की दुनिया में जमीन-आसमान का अंतर दिखता है। ऐसा क्यों होता है कि स्त्री उन परिस्थितियों पर गर्व नहीं करती जिन से लड़ते हुए उसका अस्तित्व विकसित हुआ है। इन पर विजय उसके किसी भी तरह के विजेता भाव को जन्म देने में असमर्थ होता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय की सुधा सिंह का यह ब्लॉग बौद्धिक सवालों से टकराता है। कोलकाता विश्वविद्यालय के जगदीश्वर चतुर्वेदी के ब्लॉग नया जमाना की तरह सुधा सिंह का ब्लॉग ‘नई रोशनी’ विषयों को गहराई से समझने का अच्छा मंच बनता जा रहा है। आप क्लिक कीजिए। यहां आपको स्त्री विमर्थ, स्त्री भाषा, हिन्दी का बाजार, स्त्री अनुभव और मजदूर जैसे लेखों के शीर्षक मिलेंगे। जिनके बारे में अब प्रचलित माध्यमों में लिखने बोलने का चलन सिमटता जा रहा है।
सुधा लिखती हैं कि पुरुष आत्मकथाओं में स्त्री की अनुपस्थिति होती है। पत्नी की सिर्फ औपचारिक भूमिका होती है या फिर मर्दानगी के प्रदर्शन के रूप में एकाधिक प्रेमिकाओं का जिक्र मिलता है। जबकि स्त्री आत्मकथाओं के केंद्र में पुरुष होता है। स्त्री के पूर्ण व्यक्तित्व को आच्छादित करनेवाली पति और पिता की मुख्य भूमिका होती है। पति के अलावा अन्य प्रेम का उल्लेख नहीं होता, कामुकता न के बराबर होती है।
इसके बाद सुधा सिंह भाषा में स्त्री की भूमिका और स्थान पर चर्चा करती है। भाषा विज्ञानी डेल स्पेण्डर की किताब मैन मेड लैंगवेज का जिक्र आता है। इसके हवाले से सुधा कहती हैं कि स्त्रियां इस बात से वाकिफ हैं कि पुरुष श्रेष्ठता एक मिथ है। भ्रम है। सुधा का एक और लेख है। हिंदी के भाषाविद स्त्रीभाषा कब पढ़ायेंगे। वो कहती हैं मौजूदा सिस्टम में बारह चौदह साल की पढ़ाई के बाद अगर कोई सवाल करे कि अपने अध्ययन के आधार पर बताइये कि स्त्री कैसी थी, उसका संसार कैसा था, वह कैसे सोचती थीं तो उत्तर नकारात्मक होगा। भाषा सत्य के साथ घालमेल करने का माध्यम है। इस पर पुरुषों का ही कब्जा रहा है।
स्त्री हीनता के नियम भाषा में कैसे काम करते हैं देखना हो तो भाषा विज्ञान के पाठय़क्रम को देखना चाहिए। स्त्रियां भाषा का इस्तेमाल पुरुषों की तरह खुल कर नहीं करतीं। सुधा कहती हैं कि भाषा को इस तरह से देखना ठीक नहीं होगा। यह एक तरह का पूर्वाग्रह है। चूंकि स्त्रियां भाषा का इस्तेमाल करती हैं इसलिए इसे सिर्फ मर्दों की देन या मिल्कियत नहीं मान सकते। सैंकड़ों बरस के शिक्षा के इतिहास में भाषा को कभी स्त्री संदर्भ में नहीं देखा गया। न ही भाषा के निर्माण में स्त्री की भूमिका को समझा गया।
सुधा को जनसंख्या के आधार पर हिंदी की ताकत को देखने पर भी सवाल करती हैं। कहती हैं कि कितने करोड़ बोलते हैं, यह भाषा की मार्केटिंग है। कोई भी अखबार या चैनल हिन्दी में आने से हिन्दी का भला नहीं करता। इन माध्यमों के लिए तो हिन्दी एक ऊपरी आभूषण है। यह सच है कि हिन्दी चैनलों और अखबारों की बाढ़ आई है लेकिन इससे भी बड़ा सच यह है कि पिछले कई साल में हिन्दी में कोई भी ऐसी खोजी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है जो पूरे देश का ध्यान खीचे। उम्मीद है सुधा के इस सवाल पर इन माध्यमों के ज्ञानी जवाब देंगे। क्या वाकई में हिन्दी पट्टी के पत्रकारों ने अपनी प्रखरता और ताकत खो दी है।
सुधा हिन्दी में चल रहे अनगिनत धारावाहिकों का भी अलग नजरिया पेश कर रही हैं। कहती हैं कि इन तमाम सीरियलों में स्त्री एक अनुत्पादक वर्ग की तरह पेश की जाती है। वो काम करती कम दिखती है। अर्जित नहीं करती, बल्कि उपभोग की दुकान की तरह पेश की जाती है। यह परंपरा यूरोप से आती है। ये सामान्य ढर्रा है कि जो स्त्री दिखाई जाए वह घरेलू हो।
ध्यान रहे कि सीरियल में कहानी महत्वपूर्ण नहीं होती, चरित्र होते हैं। चरित्र के जरिए पूरे बाजार का उपभोग का ढांचा तय होता है और सभी चरित्र अनुत्पादक हैं। वो स्त्रियां हैं जो महंगे गहनों कपड़ों में अपने पुरुषों के ओहदे के अनुसार लदी है। एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र कर रही हैं। काश ये चैनल दिखा पाते ऐसी स्त्री जो आधुनिक हो, आत्मनिर्भर हो। संघर्ष से पहचान अर्जित करती हो, लेकिन यहां तो स्त्रियां सजी-धजी और लाउड मेकअप में ही नजर आती हैं। चिर युवा।
ravish@ndtv.com
दिल्ली विश्वविद्यालय की सुधा सिंह का यह ब्लॉग बौद्धिक सवालों से टकराता है। कोलकाता विश्वविद्यालय के जगदीश्वर चतुर्वेदी के ब्लॉग नया जमाना की तरह सुधा सिंह का ब्लॉग ‘नई रोशनी’ विषयों को गहराई से समझने का अच्छा मंच बनता जा रहा है। आप क्लिक कीजिए। यहां आपको स्त्री विमर्थ, स्त्री भाषा, हिन्दी का बाजार, स्त्री अनुभव और मजदूर जैसे लेखों के शीर्षक मिलेंगे। जिनके बारे में अब प्रचलित माध्यमों में लिखने बोलने का चलन सिमटता जा रहा है।
सुधा लिखती हैं कि पुरुष आत्मकथाओं में स्त्री की अनुपस्थिति होती है। पत्नी की सिर्फ औपचारिक भूमिका होती है या फिर मर्दानगी के प्रदर्शन के रूप में एकाधिक प्रेमिकाओं का जिक्र मिलता है। जबकि स्त्री आत्मकथाओं के केंद्र में पुरुष होता है। स्त्री के पूर्ण व्यक्तित्व को आच्छादित करनेवाली पति और पिता की मुख्य भूमिका होती है। पति के अलावा अन्य प्रेम का उल्लेख नहीं होता, कामुकता न के बराबर होती है।
इसके बाद सुधा सिंह भाषा में स्त्री की भूमिका और स्थान पर चर्चा करती है। भाषा विज्ञानी डेल स्पेण्डर की किताब मैन मेड लैंगवेज का जिक्र आता है। इसके हवाले से सुधा कहती हैं कि स्त्रियां इस बात से वाकिफ हैं कि पुरुष श्रेष्ठता एक मिथ है। भ्रम है। सुधा का एक और लेख है। हिंदी के भाषाविद स्त्रीभाषा कब पढ़ायेंगे। वो कहती हैं मौजूदा सिस्टम में बारह चौदह साल की पढ़ाई के बाद अगर कोई सवाल करे कि अपने अध्ययन के आधार पर बताइये कि स्त्री कैसी थी, उसका संसार कैसा था, वह कैसे सोचती थीं तो उत्तर नकारात्मक होगा। भाषा सत्य के साथ घालमेल करने का माध्यम है। इस पर पुरुषों का ही कब्जा रहा है।
स्त्री हीनता के नियम भाषा में कैसे काम करते हैं देखना हो तो भाषा विज्ञान के पाठय़क्रम को देखना चाहिए। स्त्रियां भाषा का इस्तेमाल पुरुषों की तरह खुल कर नहीं करतीं। सुधा कहती हैं कि भाषा को इस तरह से देखना ठीक नहीं होगा। यह एक तरह का पूर्वाग्रह है। चूंकि स्त्रियां भाषा का इस्तेमाल करती हैं इसलिए इसे सिर्फ मर्दों की देन या मिल्कियत नहीं मान सकते। सैंकड़ों बरस के शिक्षा के इतिहास में भाषा को कभी स्त्री संदर्भ में नहीं देखा गया। न ही भाषा के निर्माण में स्त्री की भूमिका को समझा गया।
सुधा को जनसंख्या के आधार पर हिंदी की ताकत को देखने पर भी सवाल करती हैं। कहती हैं कि कितने करोड़ बोलते हैं, यह भाषा की मार्केटिंग है। कोई भी अखबार या चैनल हिन्दी में आने से हिन्दी का भला नहीं करता। इन माध्यमों के लिए तो हिन्दी एक ऊपरी आभूषण है। यह सच है कि हिन्दी चैनलों और अखबारों की बाढ़ आई है लेकिन इससे भी बड़ा सच यह है कि पिछले कई साल में हिन्दी में कोई भी ऐसी खोजी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है जो पूरे देश का ध्यान खीचे। उम्मीद है सुधा के इस सवाल पर इन माध्यमों के ज्ञानी जवाब देंगे। क्या वाकई में हिन्दी पट्टी के पत्रकारों ने अपनी प्रखरता और ताकत खो दी है।
सुधा हिन्दी में चल रहे अनगिनत धारावाहिकों का भी अलग नजरिया पेश कर रही हैं। कहती हैं कि इन तमाम सीरियलों में स्त्री एक अनुत्पादक वर्ग की तरह पेश की जाती है। वो काम करती कम दिखती है। अर्जित नहीं करती, बल्कि उपभोग की दुकान की तरह पेश की जाती है। यह परंपरा यूरोप से आती है। ये सामान्य ढर्रा है कि जो स्त्री दिखाई जाए वह घरेलू हो।
ध्यान रहे कि सीरियल में कहानी महत्वपूर्ण नहीं होती, चरित्र होते हैं। चरित्र के जरिए पूरे बाजार का उपभोग का ढांचा तय होता है और सभी चरित्र अनुत्पादक हैं। वो स्त्रियां हैं जो महंगे गहनों कपड़ों में अपने पुरुषों के ओहदे के अनुसार लदी है। एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र कर रही हैं। काश ये चैनल दिखा पाते ऐसी स्त्री जो आधुनिक हो, आत्मनिर्भर हो। संघर्ष से पहचान अर्जित करती हो, लेकिन यहां तो स्त्रियां सजी-धजी और लाउड मेकअप में ही नजर आती हैं। चिर युवा।
ravish@ndtv.com
Comments
सुधा जी आप जैसा बोद्धिक व्यक्तित्व छुपा हुआ था मुझ से उजागर हो गया है, कमाल का लेखन है।
वैसे कुछ आलोचना करने का मन कर रहा है।
पुरुष आत्मकथा में नारी का बहुत महत्व होता है और आजतक मैने कोई ऐसी आत्मकथा नही पढ़ी जिसमें मां का जिक्र ना हो, हां पत्नी की उपस्थित धूमिल लगती है आत्मकथाओं में सो महिला की सामाजिक स्थित और उसकी इन्स्टिंक्ट दोषी है यहां। संघर्ष के दिनों मे पारिवारिक जीवन से अलग हटकर पुरुष पब्लिक प्रापर्टी बनता है और बीबी-बच्चे आदि को अस्तित्व गौड़ हो जाता है। ऐसा महिलाओ के साथ भी होता है। आप श्रीमती इन्दिरा गांधी, सरोजनी नायडू, और सुचेता कृपलानी, राजकौमारी अमृत कौर.....आदि-आदि के बारे मेम ही पड़ ले पुरुष का कोई खासा स्थान नही है और न ही इन्हों ने पुरुष को अपनी सफ़लता में सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया। वैसे सफ़लता की सीढ़ियां जैसी कोई चीज़ नही होती है!
ज़ेन्डर की बाते सिर्फ़ एक मानसिक कल्पना है बस, प्रकृति ने जैसा स्वभाव दिया है वैसी ही हरकते हम करते है, अलाहिदा बाते सिर्फ़ अपवाद होती हैं।
हमारी संस्कृतियां भी किसी हद तक जिम्मेंदार हैं\
आर्यों के आने से पहले भारत की भूमि मातृ प्रधान थी और महिला का स्थान सर्वोपरि रहा।
किन्तु आर्यों की पितृ प्रधान संस्कृति में भी....अत्र नारी पूजंयन्ते रमन्ते तत्र देवता...की बात है ..सम्मान है। अब समाज़ में रोग हो जाये तो कोई क्या करे।
ये तो वही बात हुई न कि महानगरों में पबों में बैठे लोगों को नही मालूम कि उनकी सारी अयास्सिया देहात के मजदूर और किसान की मेहनत, बेबसी और दुख के बदले है।
हम कुच न कर सके तो उनका सम्म्मान और हक देने में मदद कर सकते है, महिलाओं की भी स्थितियाम कही कही ऐसी है जिसे नज़र्न्दाज़ किया जाता है।
एक पते की बात बताऊ, भारत की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक व्यवस्था को कैंसर हो चुका है.....सावधान....