जिंदगी के विस्तार का लेखन है स्त्री आत्मकथा
लेखन का एक बड़ा सरोकार है कि वह जिंदगियों को बचाता है। जीवन के प्रति आशा का संचार करता है। स्त्री लेखन की खूबी है कि यह न केवल आशा का संचार करता है बल्कि जीवन का अनुसरण करते हुए जीवन का विस्तार भी करता है। विशेष तौर पर स्त्री आत्मकथा की खूबी है कि यह जीवन का अनुसरण करती है। यह जीवन को विस्तार देनेवाला है। स्त्री जब आत्मकथा लिखती है तो वह अपनी निजी हानियों से उबरने के लिए आत्मकथा लिखती है। वह दया, करुणा आदि भाव को जगाने के लिए नहीं लिखती है। समाज में स्त्रियों की जो नारकीय अवस्था है वह किसी भी चेतनासंपन्न स्त्री को परेशान कर सकता है। ऐसे में स्त्री आत्मकथा कोई ट्रेन्ड सेट करने, वाद चलाने या इतिहास में अमर होने के लिए नहीं होती बल्कि इस नारकीय अवस्था के मूल्यांकन और पड़ताल के लिए होती है। इसमें वह आत्म (सेल्फ) को परिभाषित करने के संघर्ष से गुजरती है।
स्त्री आत्मकथा के इतिहास, भूगोल या परंपरा से मुक्त होने के पीछे कारण यह कि स्त्री वर्त्तमान में रहना चाहती है। इतिहास उसके वश में नहीं, उसकी शक्तियाँ उसके वश में नहीं, वह कभी किसी भी तरह के इतिहास लेखन के केन्द्र में नहीं रही। ऐसे में स्त्री आत्मकथा में जो कुछ आएगा वह वर्तमानकेन्द्रिक होगा। वर्तमान से लड़ना, संघर्ष करना, उसे बदलने के लिए स्थितियाँ तैयार करना उसके वश में है। इतिहास के धुंधलके की तुलना में वह ज्यादा साफ है और इसमें स्त्री की कुछ उपलब्धियाँ भी नजर आती हैं। इसलिए स्त्री का स्वर्ग-नरक वर्तमान ही हो सकता है अतीत नहीं। अतीत के प्रति आग्रह पुरुष लेखन में दंभपूर्ण ढंग से मिलता है, स्त्री की आत्मकथात्मक लेखन में अतीत का आग्रह नहीं के बराबर है। उदाहरण के लिए महादेवी की कविता। छायावादी कविता में अतीत का आग्रह छायावाद की विशेषता मानी जाती है लेकिन महादेवी के लेखन में अतीत का आग्रह नहीं है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि स्त्री आत्मकथा दूरी बनाने के लिए नहीं अन्य प्रमुख दुनिया से संबंध बनाने के लिखी जाती हैं। साथ ही स्त्री आत्मकथा को खास नियमों या साहित्यिक विधानों में नहीं बाँटा जा सकता। स्त्री के दुख-दर्द और अनुभव का संसार अभिव्यक्ति का कोई भी फॉर्म ले सकता है। लोकगीतों से लेकर मीरा, महादेवी, ललदद्य की कविता में स्त्री आत्मकथा व्यक्त हो सकती है। मुश्किल यह है कि पाश्चात्य साहित्य में आत्मकथा का आरंभ ही तब माना गया, जब सब्जेक्ट के रूप में 'मैं' केन्द्र में आया।
इस 'मैं' की कहानी, इसका अता-पता, इतिहास, भूगोल बताकर, 'मैं' के जिए संसार का बयान करने की शैली को आत्मकथा का नाम दिया गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रथम पुरुष के लिए प्रयुक्त 'मैं' का स्त्री द्वारा प्रयोग, जरुरी तौर पर स्त्रीत्व की पहचान करानेवाला नहीं होता। अत: स्त्री आत्मकथा में आए इस 'मैं' की चौकन्नी पड़ताल करनी चाहिए। कबीर, तुलसी आदि ने जितना अपने देखे-जिए संसार के बारे में बताया है, अण्डाल जिस भाषा में अपनी इच्छाओं की दुनिया को रचती है, मीरा अपने साथ पूरे कुनबे और समाज के दुर्व्यवहार का जिस तरह वर्णन करती है वह 'आत्मकथा' नहीं बन पाया। महादेवी की कविता और आत्मपरक गद्य भी आत्मकथा नहीं कहला सके। स्त्रियों के दुख-दर्द की अभिव्यक्ति करनेवाला लोकगीत और लोकनाटय (जैसे डोमकच-शादी में बारातवाले दिन घर की स्त्रियाँ तरह तरह से वेश बनाकर नाटक करती हैं, इसमें मर्द शामिल नहीं होते) स्त्री के अनुभव संसार का हिस्सा होते हुए भी 'आत्मकथा' नहीं कहलाए।. यानि 'आत्मकथा' की पुंसवादी आलोचना में स्वीकृति तभी है जब 'मैं' इसका नायक बन जाता है। उसके पहले नहीं। स्त्री तो 'सब्जेक्ट' भी नहीं बन पाई है तो आत्मकथा लेखन उनके द्वारा संभव ही नहीं माना गया।
आज स्त्री बहुलता में आत्मकथा लिख रही है तो यह देखा जाना चाहिए कि वह सब्जेक्ट का रूपायन किस तरह कर रही है। यह साफ है कि स्त्री सब्जेक्ट का रूपायन आत्म के प्रोजेक्शन के रूप में नहीं कर रही बल्कि इसके नकारात्मक पक्षों को पीछे छोड़कर लिख रही है। स्त्री की आत्मकथा में हमेशा 'मैं', 'हम' और 'वे' के बीच संतरण बना रहता है। लेखन में एक तरह का बिखराव दिखाई देता है। पाठक जिस उद्वेश्य से स्त्री की कहानी में दाखिल होता है वह खण्डित होता है। इसलिए महत्वपूर्ण यह देखना नहीं है कि स्त्री ने 'मैं' के रूप में अपने को कितना अभिव्यक्त किया है बल्कि देखना यह जरुरी है कि यह स्त्री का 'मैं' क्या बन सकता है ? महत्वपूर्ण यह देखना भी है कि यह स्त्री है जिसने पूरी रचना लिखी है।
स्त्री की आत्मकथा में 'मैं' एक नहीं होता। कम-से कम दो होता है। यह निर्भर करता है बाहरी दबावों पर। अपने आत्मकथात्मक लेखन में स्त्री एक से दूसरे 'मैं' में आती जाती रहती है। पिता के और अन्य सदस्यों के साथ 'मैं' के संबंधों को परिभाषित करते हुए ही स्त्री का दूसरा 'मैं' इन सबको लेकर आलोचनात्मक भी होता है। 'पिंजरे की मैना' इसका उदाहरण है। इस दूसरे आलोचनात्मक 'मैं' का निर्माण कथा के भीतर ही होता रहता है और सशक्तिकरण की स्थिति में, विद्रोह की स्थिति में, नकार की स्थिति में, विशेषकर 'मैं' की 'सोशल पोजिशनिंग' को लेकर दूसरे 'मैं' का निर्माण होता है।
इस सामाजिक आलोचना के साथ स्त्री 'मैं' की कथा अ-राजनीतिक लगते हुए भी अ-राजनीतिक नहीं होती। लिखते समय लेखिका 'मैं' और लेखिका का 'मैं' के बीच अतिक्रमण चलता रहता है। लेखिका 'मैं' लिखने के दौरान कई तरह के परिवर्तनों से गुजरती है, एक रूपान्तरण की प्रक्रिया चलती रहती है। बार-बार अपने ही द्वारा लिखी चीजों से असहमति की स्थितियाँ बनती रहती हैं। इसलिए प्राय: देखने में आता है कि आत्म का उद्धाटन कर रही स्त्री अपने जीवन की कई अंतर्विरोधी स्थितियों का भी उद्धाटन करती है।
एक लेखिका के रूप में हम जिस स्त्री के जुझारु रूप से परिचित हैं, बहुत संभव है कि अपनी आत्मकथा में जीवनस्थितियों का उद्धाटन करती हुई वही रोती-बिसूरती परंपरित नज़र आए। उदाहरण के लिए प्रभा खेतान की आत्मकथा 'अन्या से अनन्या तक' में डॉ सर्राफ पर लेखिका की निर्भरता।
इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि स्त्री के आत्मकथा लेखन का उद्देश्य क्या है ? महत्वपूर्ण है यह जानना कि आत्मकथा के जरिए स्त्री बताना क्या चाहती है? क्यों कहना चाहती है अपनी कथा ? इसलिए कि वह अपने मुक्तिकामी एजेण्डे में 'मेन फ्रॉम मार्स', दूसरी दुनिया के और अपनी दुनिया के भी लोगों को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में शामिल करना चाहती है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि स्त्री आत्मकथा घृणा के प्रसार के लिए नहीं प्रेम के लिए किया गया लेखन है। स्त्री की आत्मकथा में यदि आरंभ से लेकर अंत तक एक सी-दुनिया रहती है तो वह सफल आत्मकथा नहीं कहलाएगी। दुनिया वही नहीं होगी जहाँ से स्त्री ने अपनी कहानी आरंभ की थी और स्त्री की जीवनयात्रा भी वही नहीं होगी जहाँ से चलना आरंभ किया था। दुनिया बदलनी चाहिए और कमज़ोर स्त्री का सशक्त स्त्री में रूपान्तरण होना चाहिए। स्त्री आत्मकथा का सबसे बड़ा एजेण्डा होना चाहिए स्त्री सशक्तिकरण का।
सबसे महत्तवपूर्ण बात यह कि स्त्री आत्मकथालेखन अपनी प्रकृति में आलोचनात्मक होते हुए भी घृणा के प्रसार के लिए किया गया लेखन नहीं है। कुत्सित चटखारेदार वर्णनों में यह नहीं जाता। विवादास्पद लिखने के लिए विवादास्पद लिखना स्त्री लेखन की स्वाभाविक प्रकृति नहीं है। स्त्री आत्मकथा लेखन प्रेम और संवेदना के विस्तार का लेखन है। यह ज्यादा संवेदनशील मानवीय स्थितियों की मांग करता है। पितृसत्तात्मक स्थितियों से लेकर पूँजीवाद की निष्क्रिय उपभोगमूलक स्थितियों से स्त्रीवाद की टकराहट का मूल कारण भी यही है।
भारतीय संदर्भ में स्त्रीवादी लेखन के कई पड़ाव हैं। आधुनिक भारत में स्त्रीवादी लेखन का पहला पड़ाव नवजागरण का समाजसुधार एजेण्डा है। हिन्दी में स्त्रियों का आरंभिक लेखन नवजागरण के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है। कई बार यह पितृसत्तात्मक विचारों को पुष्ट करनेवाला मालूम पड़ता है; काफी रुढ़िवादी लेखन मालूम होता है लेकिन गंभीरता से देखें तो कुछ महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण अंतर नजर आता है। सबसे पहली चीज तो यह कि न तो हिन्दी के आरंभिक दौर के स्त्री लेखन में न ही दूसरे या बाद के अन्य दौर के स्त्री लेखन में कहीं भी नवजागरण के पुरोधाओं को अपना रोल मॉडल मानने की वृत्ति दिखती है। दूसरी चीज कि जिस नवजागरण की उपलब्धियों की चर्चा की जाती है उसमें जाति और वर्ग का एजेण्डा छिपा हुआ था। नवजागरण का सबसे बड़ा वाहक था प्रेस। हिन्दी प्रेस की स्थिति यह थी कि 19वीं शती में निकलनेवाले अखबारों में लगभग 140 अखबार ऐसे थे जो विभिन्न जातियों के अखबार थे। स्त्री लेखन में यह बीमारी नहीं दिखाई देती। स्त्री लेखन मूलत: स्त्रियों के संदर्भ से सामाजिक समस्याओं पर बात करता है।
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