फिलीस्तीन मुक्ति सप्ताह- फिलीस्तीन जनता का महान् कवि महमूद दरवेश - विजया सिंह



फिलिस्तीन के राष्ट्रीय कवि महमूद दरवे मातृभूमि के प्रेम और उस पर इस्राइली कब्ज़े के दर्द से सराबोर हैं। उनकी कविता दे निकाला झेलते व्यक्ति की टूटन, पीड़ा को तो व्यक्त करती ही है किन्तु उसके वापस लौटने की जीजिविषा को भी रेखांकित करना नहीं भूलती। महमूद दरवे की कविता में मातृभूमि के कण-कण के प्रति सकर्मक प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कविता का एक उदाहरण देखें-

मैं वहाँ से आया हूँ

मैं वहाँ से आया हूँ और मेरे पास स्मृतियाँ हैं,
मैं औरों की तरह नश्वर हूँ और मेरे पास माँ है,
और है एक घर अनेक खिड़कियोंवाला,
मेरे पास भाई, बंधु हैं
और एक कारागार भी है, जिसकी
खिड़कियाँ सर्द हैं।
वह लहर भी मेरी है जिसे अभी-अभी
समुद्री चिड़िया ने निगल लिया है,
मेरे पास मेरे विचार हैं,
और एक अतिरिक्त घास की पत्ती भी।
ब्दों के दूर तक फैले किनारे पर बैठा,
वह चंद्रमा भी मेरा है,
और चिड़ियों की अनकही उदारता,
और जैतून वृक्ष की अकल्पनीय अनश्वरता भी।
जिस भूमि, पर मैंने तलवारों के साए में गति पाई है
उसका जीवंत रीर अब निष्क्रिय बोझा भर है।
मैं वहाँ से आया हूँ।
मैंने खुले आका को उसकी माँ को सौंप दिया है,
जब वह माँ के लिए विलाप कर रहा था।
और मैं भी रोया,
लौटते बेसब्र बादल को अपनी पहचान बताने के लिए।
मैंने रक्त के आँगन में लिथड़े सारे ब्द सीख लिए हैं,
ताकि भंग कर सकूँ नियमों को।
मैंने सारे ब्दों को कंठस्थ कर उन्हें
खंडित कर दिया है ताकि
नवीन ब्द-सृजन कर सकूँ: मातृभूमि...।
                      
महमूद दरवेश की कविताएँ फिलिस्तीन जनता के स्वतंत्रता-संघर्ष तथा प्रतिरोध का प्रतीक बन गई हैं। दे के भीतर की फूट और बाहर के आक्रमण को झेलते-टूटते लोग, पीढ़ी दर पीढ़ी कुंठित होता युवा वर्ग, असुरक्षा, वर्चस्व, दमन,शोष, बहिष्कार में मरते-जीते-लड़ते इंसानों की व्यथा कथा को कवि बार-बार व्यक्त करता है। साधारण भाषा, सहज और सरल शैली में लिखी उनकी कविताएँ गहरे अनुभवों से लबरेज़ हैं।
महमूद दरवे का जन्म 13 मार्च 1941 में फिलिस्तीन के उत्तरी प्रांत के बिरवा गाँव में हुआ। सन् 1948 में दरवे के परिवार को यह गाँव भी छोड़ना पड़ा क्योंकि वह इस्राइल का हिस्सा बन गया था। उनका परिवार 'दयरू-ए-असाद' में जाकर बस गया था। एक वर्ष के उपरान्त पुन: अपनी मातृभूमि वापस लौटकर वे अपनों के बीच परायों की तरह रहे। उन्होंने इस्राइली कम्युनिष्ट पार्टी की सदस्यता ली और वामपंथी समाचार पत्र में अपनी कविताएँ प्रकाशित करने लगे। उनकी कविताओं को अरब लोगों का बेशुमार प्यार मिला। साथ ही वे इस्राइल के कोप का भाजन भी बने। उन्होंने और उनके परिवार ने इस्राइल के उत्पीड़न को झेला। उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। सन् 1971 में वे सोवियत यूनियन शिक्षा हेतु चले गए।
मिस्त्र में उन्होंने 'अल-अहराम' समाचार पत्र में काम किया और फिलिस्तीन शोध केंद्र (पैलेस्टीनियन रिसर्च सेंटर) के निदेक भी बने। उन्होंने लेबनान की राजधानी बेरुत से निकलनेवाली पत्रिका 'पैलेस्टीनियन इश्यूज़' का संपादकीय कार्य-भार संभाला। सन् 1982 में इस्राइल के आक्रमण के बाद उन्हें बेरुत भी छोड़ना पड़ा। उनका जीवन अरब राष्ट्रों की राजधानियों, म्मान और पेरिस में व्यतीत हुआ।
दरवे फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन की कार्यकारिणी के सदस्य भी रहे। परन्तु उन्होंने 1993 में अमेरिका की मध्यस्तता में फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच हुए 'ओस्लो संधि' के विरोध में इस्तीफा दे दिया। वे इस्राइल द्वारा फिलिस्तीन के कई इलाकों में गैरवाजिब हस्तक्षेप को आधिकारिक मान्यता देने के खिलाफ थे। विचारकों ने उनके पद-त्याग को राजनीति के त्याग के रूप में आकलित किया। और माना कि वे कभी इस्राइल के खिलाफ प्रतिरोध व्यक्त नहीं करेंगे। दरवे ने राजनीतिक विवेक और फिलिस्तीनी स्वायत्तता के लिए संघर्ष का त्याग नहीं किया बल्कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के हाथों की कठपुतली बनने से इंकार किया ।

 वे फिलिस्तीनी जनता की भावनाओं, राजनीतिक क्ति और मनुष्य रूप में स्वयं के दुरूपयोग के खिलाफ खड़े हुए। ओसलो संधि और अमेरिकी हस्तक्षेप के प्रपंच को उनकी दूरंदेशी दृष्टि ने पहचान लिया था। राजनीतिक हथियार बनने की बजाय उन्हें अपनी फिलिस्तीनी पहचान अधिक प्रिय थी।
दरवे की रचनाएँ जन-आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती हैं। जनता के उदबोधन के लिए उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि कविता को फिलिस्तीन के मिथकीय चरित्रों, इतिहास-बोध, वर्तमान संदर्भ और भविष्य की संभावनाओं से संतुलित रूप में जोड़ा।

उन्होंने फिलिस्तीनी लोगों के कष्टों, बहिष्कार की यंत्रणा, मुक्तिसंघर्ष और प्रतिरोधों को पूरे विश्व के सामने मानवीय संवेदनात्मक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया। इसी क्रम में कविता में राजनीतिक जीवन के यथार्थ और अनुभवों का तथ्य और सत्य भी सामने आया। यही कारण था कि दरवे की रचनाएँ अपने पूरे कलेवर में नवीन थी। भावनात्मक जटिलताओं के बावजूद कविता सहज तथा सम्प्रेणीय थी।

दरवे के स्वतंत्र विचारों की वाहक उनकी रचनाएँ ही बनीं। उन्होंने फिलिस्तीनी संगठनों हम्मास और फतह के बीच की प्राणघातक प्रतिद्वन्द्विता का पुरज़ोर विरोध किया और माना कि इन संगठनों की छिछली स्वार्थपरता ने फिलिस्तीन की स्वायत्तता और स्वतंत्रता को और भी मुश्किल बना दिया है।
दरवे ने 1996 में रामल्लाह लौटकर पुन: 'अल-कारमेल' पत्रिका का प्रकाशुरू किया और जीवन के अंतिम काल तक उससे जुड़े रहे। उनके कार्यकाल के दौरान साहित्यिक आंदोलन पूर्णरूप से सफल रहा।

उन्होंने कई नए रचनाकारों और उनकी रचनाओं से फिलिस्तीनी जनता को परिचित कराया। प्रतिरोध और विवक के कवि दरवे अरब जगत के श्रेष्ठतम रचनाकारों में से एक हैं न्हें कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए गए। उन्होंने युध्द, संत्रास, अनिश्चित और असमाप्त संघर्ष से जुड़े फिलिस्तीनी राष्ट्रीय आत्म-पहचान की छवियों को दो दर्जन से ज्यादा पद्य और गद्य की रचनाओं में उतारा।

सन् 2001 में उन्हें सांस्कृतिक स्वतंत्रता के कार्यों के लिए 'लैनन' सम्मान दिया गया। उनकी अनेक कविताओं का गीत के रूप में संगीतमय रुपान्तरण भी किया गया जिनमें 'रीटा, बड्र्स ऑफ गैलिली', 'आई अर्न फॉर माई मदर्स ब्रेड' जैसी कविताएँ प्रमुख हैं। बीस से ज्यादा भाषाओं में उनकी पुस्तकें अनुदित हुईं हैं

दरवे की कविताएँ फिलिस्तीनी समाज का मानवीय दर्पण हैं। सन् 2000 में इस्राइल के शिक्षामंत्री यॉसी सारिद ने हाईस्कूलों में दरवे की कुछ कविताओं को पाठयक्रम का हिस्सा का बनाने का प्रस्ताव रखा। जिसे इस्राइली प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इस्राइल का स्कूली शिक्षातंत्र अब भी दरवे के विचारों को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं है। एक कविता में कहा है-

'अब, जब मेरे पास जाने के सभी संभावित कारण
एकजुट हो चुके हैं,
मैं मेरा नहीं
मैं मेरा नहीं
मैं मेरा नहीं
दरवे की यह कविता उनकी मृत्यु से आठ वर्ष पहले लिखी गयी थी जो संसार की यथास्थिति के प्रति उनके मोहभंग की सूचक है। मोहभंग का यही दुख रहा होगा जब उन्होंने वितृष्णा के साथ कहा था-'मुझे लगता था कविता सबकुछ बदल सकती है। वह इतिहास बदल सकती है। वह मानवीय बनाती है।....परन्तु अब लगता है कि वह केवल कवि को बदलती है।' दरवे की मृत्यु 14 अगस्त 2008 को 67 वर् की आयु में हृदय-रोग की चिकित्सा के दौरान हुई थी। उनकी कब्र रामल्लाह में है। यासिर अराफ़ात के बाद महमूद दरवे ऐसे व्यक्ति थे जिनके सम्मान में तीन दिनों के राष्ट्रीशोक का पालन किया गया।
फिलिस्तीन राष्ट्र की पहचान और सम्मान को वाणी देने के कारण पूरे मध्य-पूर्व विशेषकर फिलिस्तीन में महमूद दरवे का महत्वपूर्ण स्थान है। ' लवर फ्रॉम पैलेस्टाइन' कविता मातृभूमि के प्रति उनके सक्त प्रेम की अभिव्यक्ति है-
एक प्रेमी फिलिस्तीन से

उसकी ऑंखें फिलिस्तीन हैं
उसका नाम फिलिस्तीन है
उसके कपड़े और उसका दुख फिलिस्तीन है
उसका रुमाल, उसके पैर और उसका रीर फिलिस्तीन है
उसके ब्द र उसकी चुप्पी फिलिस्तीन है
उसकी आवाज़ फिलिस्तीन है
उसका जन्म और उसकी मृत्यु फिलिस्तीन है।
उनका समस्त रचनात्मक कर्म सकारात्मक मानवीय हस्तक्षेप की बात करता है। बकौल महमूद दरवे 'इस मातृभूमि पर ऐसा बहुत कुछ है जिसके लिए हमारा जीना हमेशा बचा रहेगा।
( लेखिका- विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, कलकत्ता विश्वविद्यालय ,कोलकाता )




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