ज्ञानविमुख हिन्दी का बुद्धिजीवी

                  
 मार्शल मैकलुहान ने लिखा है कि आधुनिक युग में पुस्तकें यश और अमरत्व प्राप्त करने का जरिया हैं। ऐसा उन्होंने पुस्तक की ताक़त को देखते हुए लिखा था। लेकिन आधुनिक पल्लवग्राही बुद्धीजीवी जो पुस्तक देखे बिना ही पुस्तक की निंदा आलोचना या प्रशंसा लिख- बोल देते हैं के लिए नियिमत लिखना , ज्यादा लिखना , गंभीर लिखना -एक दोष है। गंभीर अकादमिक लेखन के प्रति इधर बड़े पैमाने पर अरुचि बढ़ी है। इसी का परिणाम है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में यू जी सी ने प्रोफेसर के लिए कम से कम न्यूनतम दो शोध प्रकाशनों की आवश्यक शर्त लगाई है। लेकिन हिन्दी के बुद्धिजीवी प्रोफेसर शायद इसे अधिकतम मान बैठे हैं। सभा, संगोष्ठी, पुरस्कारों , सरकारी समितियों की राजनीति में फंसा हिन्दी का प्रोफेसर बेचारा लिखने के लिए समय कहां से निकाले , तिस पर निष्ठुर दिल्ली शहर की भागमभाग। ये कोई बंगाल तो है नहीं कि लेखक, शिक्षक की कोई विशेष ठसक हो।
 बुद्धिजीवी के बदले लगभग क्लर्क में तब्दील हुआ शिक्षक इसे अपनी नियति मान लेता है। वह अमर्त्य सेन या एडवर्ड सईद बनने के सपने नहीं देखता। बल्कि दिल्ली में घर, बच्चों की विदेश में पढ़ाई-नौकरी, सट्टा बाजार आदि उसकी चिंता के केन्द्र में होते हैं। ऐसे में एडवर्ड सईद का अभिप्सित बुद्धिजीवी उसका लक्ष्य कैसे बन सकता है। चॉमस्की की तरह निरंतर गंभीर और नए- नए विषयों पर लिखकर जोखिम उठाना उसके वश की नहीं। इन्हीं कई कारणों से हीनताग्रंथि से युक्त बुद्धिजीवियों की एक बड़ी संख्या हिन्दी में पनपी है जो हिन्दी का खा-पीकर किसी भी तरह के वर्चस्व के आगे 'अष्टावक्र' बन जाते हैं। यह सिर्फ हिन्दी में हो सकता है कि हिन्दी के शिक्षक होकर भाव-भंगिमा में , विचार में हिन्दी से घृणा करें। जितने उत्साह से अंग्रेजीवालों की केवल हाव-भाव में नकल की जाती है, उनके साथ बैठने-उठने की तत्परता दिखाई जाती है , उतनी तत्परता किसी अन्य भारतीय भाषा के विद्वानों के लिए नहीं दिखाई जाती। यह सामाजिक उत्थान का ही नमूना समझिए।
 सईद ने कहा था कि एक राजनीतिक और बौद्धिक के बीच अंतर किया जाना चाहिए। राजनीतिज्ञ का प्रधान गुण है समझौते करना जबकि बौद्धिक अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी किस्म के समझौते से इंकार करता है। यहीं पर उसके साहस के तत्व को देख सकते हैं। यह राजनीतिज्ञों का गुण है कि बताते रहें कि मैंने क्या किया। बुद्धिजीवी के लिए मुख्य हैं उसके आदर्श। राजनीतिक तौर पर सही का अर्थ है दार्शनिक तौर पर गलत। क्योंकि इसका अर्थ है समझौता। सईद ने कहा समझौता और आज्ञापालन।
  लेकिन बुद्धिजीवी के लिए साहस बहुत बड़ी चीज है। साहस का केवल यही अर्थ नहीं है कि चीजों को भिन्न रूप में बताया जाए बल्कि साहस का अर्थ है पूरी तरह से समझौताहीन। बुद्धिजीवी के लिए एटीट्यूट महत्वपूर्ण है। जो सोचता है उसे लागू करने का साहस हो।
 दुर्भाग्य है कि हिन्दी के मध्यवर्गीय बौद्धिकों में अपने वर्ग की कुण्ठाएँ, चालाकियाँ, दोरंगापन और थोथी नैतिकता का दिखावा बहुत है। बातें चाहे क्रांति की करता हो , व्यक्तित्व दमन और कुण्ठा की साकार प्रतिमूर्ति होकर पहला पत्थर मारने का हक़ नहीं छोड़ता। प्रशंसा करने , उत्साहित करने का भाव तो वह कब का छोड़ चुका है। है तो केवल शाश्वत घृणा का भाव। पर मुक्तिबोध जिसे घृणा की हम्माली कहते हैं उसकी टेक तक न बची है।
 सईद ने कहा था कि शिक्षकों, लेखकों और बुद्धिजीवियों में यह आदत होती है कि वे भक्त तैयार करते हैं। लेकिन एक शिक्षक के नाते मेरा यही कर्तव्य है कि मैं अपने छात्र को अपना श्रेष्ठतम दूँ और खास अर्थ में इस लायक तैयार करूँ कि वह मेरी आलोचना कर सके। मैं उसे अपने से स्वतंत्र रखता हूँ जैसा चाहे मार्ग चुनें। लेकिन हिन्दी में सही अर्थों में संसार के हर आपद-विपद के लिए तैयार करनेवाले गुरू तो नहीं रहे पर शिष्य बनाने की परंपरा बड़ी मजबूत है। विद्यार्थी की जगह शिष्य और भक्त बनना सीखाते हैं। ज्ञानपिपासु और स्वाभिमान में अनमनीय होने के बजाए विद्यार्थी बौद्धिक कलाबाजियाँ सीखकर गुरू को गुड़ साबित करने लगता है। सारी लड़ाई ज्ञान के क्षेत्र से बाहर चली जाती है। क्या आपने ऐसे बौद्धिक हिन्दी के अलावा भी कहीं देखें हैं।
 हिन्दी के बुद्धिजीवी की बौद्धिक अपंगता के प्रधान कारण हैं-सत्य से घृणा और ज्ञानविमुखता। इनके कारण ही हिन्दी के इस अनूठे बुद्धिजीवी की सामाजिक पोजिशनिंग हिन्दी क्षेत्र के अलावा कहीं नहीं है। दक्षिण भारतीय, बंगाली, उर्दू आदि तथा अन्य  विषयों के बुद्धिजीवी वैश्विक परिवेश में मिल जाएंगे लेकिन हिन्दी का बुद्धिजीवी इस वैश्विक परिवेश में कहीं नहीं मिलेगा। क्योंकि उसके अंदर ज्ञानपिपासा नहीं है। ज्ञान के उत्पादन और पुनरूत्पादन से उसका अलगाव जबर्दस्त है। पिछले दो सौ सालों में यह देखा गया है कि भारत के मध्यवर्ग के बुद्धिजीवियों का वैश्विक तौर पर विस्तार हुआ है, उसकी अलग से पहचान बनी है। लेकिन हिन्दी में प्रेमचंद की तुलना गोर्की और तॉलस्तॉय आदि से की जाती है, इसके अलावा दूसरा कोई रचनाकार नहीं जिसकी विश्वस्तर पर इस तरह से नामचीन लेखकों से तुलना की जा सके। कहने को हर साल हिन्दुस्तान से विदेशी विश्वविद्यालयों में लेखक-बुद्धिजीवी जाते हैं।
 यह आश्चर्य की बात नहीं लगती कि बोलनेवाली इतनी बड़ी आबादी, सरकारी इमदाद, हिन्दुस्तान और विश्व में कई जगह पठन-पाठन की व्यवस्था होने के बावजूद यूरोप और अमरीका के देशों में संस्कृत के विद्वानों जैसे भरत, भारवि आदि को तो लोग जानते हैं पर हिन्दी के बुद्धिजीवी की कोई पहचान नहीं बनी है।  

Comments

पर इस समस्या की ज।द तो बताइये जहाँ प्रहार किया जा सके? समस्या का केवल वर्णन करने के बजाय कुछ समाधान सुझातीं तो श्रेयस्कर रहता।
लेकिन इन हिन्दी बुद्धिजीवी को सम्मान या पहचान ना मिलने का कारण क्या है....क्या वह नया नही सोच पा रहा.....या फिर उस नया सोचा लोगो तक पहुँचता नही...या फिर नयी सोच विवादो मे घिर जाती है और दम तोड़ देती है। या फिर अग्रेजी के आगे हिन्दी बहुत कमजोर साबित हो रही है.....। जब तक सही कारण ना मिल जाए समस्या का निदान संभव नही है..।

आपने अच्छी विचारणीय पोस्ट लिखी।आभार।
बहुत खरी बात कही है आपने। बुद्धिजीवी का शाब्दिक अर्थ (जीविका चलाने के लिए बुद्धि का प्रयोग करने वाला) ही मुखर हो गया है हिन्दी पट्टी में।

यह लक्ष्य बिना ज्ञान प्राप्त किए और खास मेहनत के बगैर ही सिद्ध हो जाय तो कष्ट उठाने की जरूरत क्या है। :)

मेरे सामने यहाँ इलाहाबाद के अनेक चेहरे नाच उठे यह आलेख पढ़ते-पढ़ते।

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