मुक्ति का महाख्यान और सुकान्त

बांग्ला कविता की बात सुकान्त की कविता के बिना नहीं की जा सकती। सुकान्त का जन्म बांग्ला तिथि के हिसाब से तीस श्रावण 1333 को हुआ और मृत्यु उनतीस बैसाख 1354 को हुई। केवल इक्कीस वर्ष की आयु में अपनी रचनात्मक प्रतिभा से संसार को चकित कर उनकी जीवनलीला समाप्त हुई। बंगाल अपने कवियों और सांस्कृतिक विरासत को लेकर हमेशा गौरवान्वित रहा है। एक से बढ़कर एक कवि उसके पास मौजूद हैं। लेकिन सुकान्त भट्टाचार्य एक कार्र्यकत्ता कवि थे। जनता से जुड़ा हुआ, उनके बीच का, उनका अपना कवि। आजादी के ठीक पहले के जनइतिहास, जनचेतना और जनांदोलनों की साक्षी रही उनकी कविता अपने समय का जीवंत दस्तावेज है। वर्तमान से जुड़नेवाला रचनाकार अपने आप इतिहास बनाता है , उसके वर्तमान के सरोकार इतिहास के सरोकार बन जाते हैं। एक समय में ही वह वर्तमान और इतिहास दोनों को बना रहा होता है और भविष्य पर उसकी ऑंखें टिकी होती हैं। इसे समझने का सबसे अच्छा तरीका सुकान्त की कविता को पढ़ना है। आज भी बंगाल में दुर्गापूजा से लेकर किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम में सुकान्त की कविताओं के रिकार्ड बजाए जाते हैं और उसकी प्रभावकारी क्षमता किसी भी जिंदा इंसान को छुए बिना नहीं रहती। मैंने सुकान्त समग्र 1995 में खरीदा तब मैं बंग्ला टूटी -फूटी जानती थी , लेकिन विभिन्न सांस्कृतिक अवसरों पर सुकान्त की कविताएँ हेमन्त कुमार की प्रभावशाली आवाज में सुनकर इस कवि की रचनाओं को मूल बंग्ला में पढ़ने की ललक ने मुझे अपने हाथ खर्च में से पैसे बचाकर सुकान्त समग्र और और सुकान्त से संबंधित संस्मरणों की एक पुस्तक खरीदने पर बाध्य किया। तब इच्छानुसार पुस्तक पढ़ी, नोट्स भी लिए पर सुव्यवस्थित ढंग से कहीं लिखा नहीं। यों ही पढ़ने के क्रम में लिए गए नोट्स थे। दोबारा सुकान्त को पढ़ने -गुनने का अवसर 'नया पथ' के लिए लेख लिखने के आग्रह ने मुहैय्या कराया। सुकान्त की कविता जनता के लिए लिखी गई है इसलिए सहज हैं। जनता सहजता से अपने कवि और अपनी कविता को पहचान लेती है, उसे किसी व्याख्या विश्लेषण की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन भद्र समाज के लिए व्याख्या की जरूरत होती है। कविता का पैमाना यदि लोकप्रियता है तो सुकान्त की कविता कविता उनके छोटी सी जीवनावधि में ही लोकप्रिय और समादृत हो चुकी थी। सुकान्त ने कैसा जीवन जिया , किन आदर्शों के लिए जान दी, क्या सपना था मुक्ति का यह आज के खाते-पीते मध्यवर्ग के युवाओं को नहीं मालूम। इन्होंने स्वतंत्र भारत देखा है, भारत की उपलब्ध्यिों और सुविधाओं का भोग किया है। पर सुकान्त जैसे भी युवा भारत के सपूत रहे हैं जो स्वतंत्र भारत के लिए लड़े, जनता की मुक्ति के लिए लड़े, विश्व में जहा¡ भी जनमुक्ति की लड़ाई चल रही थी, उसे अपनी लड़ाई समझकर जनता के साथ खड़े हुए। जो स्वतंत्र भारत को अपनी आँखों से देखने के लिए जिंदा नहीं रहे। आजादी के कुछ महीने पहले 13 मई 1947 को सुकान्त की टी बी से मृत्यु हुई। इसके अलावा उनकी बीमारी का बड़ा कारण गरीबी, उपेक्षा तथा रहने की अस्वास्थ्यकर जगह थी। कलकत्तो के जिस इलाके में रहते थे वहा¡ मच्छरों का इतना प्रकोप था कि कमजोर शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता वाले सुकान्त बार बार मलेरिया के शिकार होते थे। तब भी कम्युनिस्ट पार्टी के तमाम तरह के जनजागरूकता के कामों में किशोरावस्था में ही खूब सक्रिय रूप में जुड़ चुके थे। टी बी के अनेक कारणों में से अस्वास्थ्यकर परिवेश, तनाव, काम का दबाव भी है यह आज चिकित्साशास्त्र में स्वीकृत तथ्य है।
सुकान्त को आज के समय में फिर से पढ़ने की जरूरत इस कारण भी है कि आज परिस्थितियाँ एक बार फिर से वैसी ही चुनौती भरी हैं जैसी सुकान्त के समय में थीं। बल्कि प्रच्छन्न दुश्मन के कारण और भी जटिल हो गईं हैं। जिस समय सुकान्त लिख रहे थे तब आर्थिक मंदी का भयावह दौर था जिसका कारण भारत में नहीं भारत के बाहर था पर परिणाम भारत की जनता को भोगना पड़ा। आज जिस आर्थिक मंदी का हल्ला है यह भारत की आर्थिक नीतियों के कारण नहीं अमेरिका की खुले बाजार की नीतियों के कारण है, लेकिन इसकी ऑंच भारत को भी प्रभावित कर रही है। ऐसे में सुकान्त को पढ़ना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इस आर्थिक मंदी का असर पूँजीपति के मुनाफे पर हुआ है , सट्ठाबाजार में लगी उसकी पूँजी पर हुआ है। इसकी आड़ लेकर वह रोज अपने यहा¡ काम करनेवालों की तनख्वाहें कम कर रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति से लेकर भारत की सरकार तक उनके लिए राहत पैकेज की घोषणाए¡ किए जा रही है। कोई यह नहीं कह रहा कि वे अपने यहा¡ काम करनेवालों की छटनी न करें, उनकी तनख्वाहें कम न करें। पहले ही कॉन्ट्रैक्ट पर काम करनेवाला श्रमिक या आजकल की भाषा में ' एग्जेक्यूटिव ' किसी भी तरह की सुरक्षा का हकदार नहीं रह गया है। ऐसे में श्रमिकों के कवि सुकान्त को पढ़ना जरूरी हो जाता है।
सुकान्त का जन्म बंगाल के निम्नमध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। सुकान्त के पिता का नाम निवारणचन्द्र भट्टाचार्य था। सुकान्त का जन्म अपने नानीघर 42, महिम हालदार स्ट्रीट में बांग्ला वर्ष के अनुसार 30 श्रावण 1333 (1926 ई½ को हुआ। सुकान्त के पिता बहुत ज्यादा शिक्षित व्यक्ति नहीं थे। यजमानी और पुरोहिताई की शिक्षा उनकी हुई थी। यही उनका व्यवसाय था। वे धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। संगीत और नाटक में उनकी रूचि थी। तीस वर्ष की आयु में पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने महिमचन्द्र हालदार स्ट्रीट के निवासी सतीशचन्द्र भट्टाचार्य की कन्या सुनीति देवी से विवाह किया। सुनीति देवी का पढ़ने लिखने को लेकर विशेष उत्साह था। बंगाली मध्यवर्गीय स्त्रियों की तरह उन्हें रामायण , महाभारत और कहानी, उपन्यास पढ़ने का शौक था। वे व्यक्तित्वसंपन्न और कड़े स्वभाव की महिला थीं। सुकान्त के ताऊ पण्डित कृष्णचन्द्र स्मृतितीर्थ पढ़े लिखे शास्त्रज्ञ व्यक्ति थे। उन्हीं के प्रयास से निवारणचन्द्र कलकत्ता आए और पुस्तक प्रकाशन के व्यवसाय में सहयोग दिया। शैशवकाल में सुकान्त अपने पिता और ताऊ के साथ बेलेघाटा के हरिमोहन घोष लेन में रहते थे। उनके पास एक टोल और एक पुस्तक की दुकान थी। सुकान्त के पिता के पास पुस्तक के दुकान की जिम्मेदारी थी। छ: भाइयों में सुकान्त का स्थान दूसरा था। बचपन में सुकान्त खूब दुर्बल और काले थे। प्राय: अस्वस्थ रहते थे। नन्हा सुकान्त घर भर का लाडला था। उनके चचरे भाई मनमोहन की पत्नी सरयू देवी (जिन्होंने सुकान्त के संबंध में अपने संस्मरण लिखे हैं½ के भी वे बड़े दुलारे थे। सरयू देवी ने लिखा है कि बालक सुकान्त को आरंभिक लिखना-पढ़ना उन्होंने सिखाया था। इस तरह से सुकान्त का बचपन एक संयुक्त परिवार में बीता। इसमें संस्कृत साहित्य और शास्त्रचर्चा के साथ साथ जमाने की नई हवा का भी दखल था।
सुकान्त पर जिस दूसरी स्त्री का प्रभाव पड़ा वह रिश्ते की बहन रानी दीदी थीं। रानी दीदी के माध्यम से रवीन्द्र साहित्य से सुकान्त का परिचय हुआ। मूलत: सुकान्त के भीतर कविता का संस्कार पैदा करने में भाभी सरयू देवी और दीदी रानी का योगदान था। इन दोनों महिलाओं के सानिध्य ने सुकान्त के भीतर संवेदनशीलता का बिरवा रोपा। बंगाल के एक निम्नमध्यवित्त परिवार में जन्मे सुकान्त का रवैय्या औपचारिक शिक्षा को लेकर बहुत उत्साहजनक नहीं था। स्कूल की पढ़ाई और स्कूल जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। पर घर के भीतर ही साहित्य और देश-दुनिया की समस्याओं पर गंभीर चर्चा ने सुकान्त के भीतर देश के लिए कुछ कर गुजरने और साम्रज्यवाद से लड़ने की भावना पैदा की। दूर के रिश्ते में काका सरोज भट्टाचार्य और ताऊ के लड़के गोपालचन्द्र और राखालचन्द्र के जरिए आधुनिकता की नई हवा घर में प्रवेश कर रही थी। बांग्ला साहित्य का यह प्रगतिवादी दौर था। ऐसी प्रगतिशीलता जो सब कुछ को तहस नहस कर देना चाहती थी। ऐसे ही महोल में सुकान्त का बचपन बीता। कुछ बड़े होने पर मुहल्ले के शिक्षक अहीनबाबू ने सुकान्त और उनके छोटे भाई को पास के ही कमला विद्यामंदिर में भर्ती करा दिया।
एक छात्र के रूप में सुकान्त प्रतिभाशाली थे। लगनशील और तेज। शर्मीले और अल्पभाषी सुकान्त के बुध्दीदीप्त चेहरे पर नजर ठहर जाती थी। बांग्ला भाषा पर लिखने और बोलने में दक्षता के कारण स्कूल में उनकी ख्याति थी। अपनी उम्र की तुलना में अध्ययन कहीं ज्यादा था। छोटी अवस्था में ही सुकान्त ने 'संचय' नाम की एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली। 'ध्रुव' नामक नाटक में सुकान्त ने ध्रुव की भूमिका निभाई थी। लेकिन स्कूल के कायदे कानून और शिक्षकों के अनुशासन के कारण स्कूली शिक्षा के प्रति एक वितृष्णा का भाव भी सुकान्त के मन में था। स्कूल जाने को लेकर केई उत्साह सुकान्त के मन में नहीं रहा। जाहिर है अभिभावकों को इससे निराशा होती थी। सुकान्त के जीवन में सबसे गहरा आघात इसी बाल्यावस्था में लगा। मात्र छ: सात वर्ष की उम्र में रानी दीदी की मुत्यु का दुख झेलना पड़ा। सुकान्त भावनात्मक तौर पर रानी दीदी से बहुत गहरे जुड़े हुए थे। संयुक्त पारिवार के जीवन पर भी इसका असर पड़ा। सुकान्त के ताऊ उत्तरपाड़ा रहने चले गए और सुकान्त के पिता अपने परिवार के साथ कॉलेज स्ट्रीट में एक भाड़े के घर में रहने चले आए। छ: महीने बाद सब एक साथ बेलेघाटा के घर में रहने चले आए पर इसके बाद भी परिवार में पहले की वह स्थिति नहीं लौटी।
सुकान्त में काव्य प्रतिभा थी। इसकी झलक बालक सुकान्त की जसीडीह की यात्रा के दौरान लिखी यह कविता में मिलती है। सुकान्त के चचेरे भाई मनोज भट्टाचार्य ने सुकान्त की कॉपी में लिखी इस कविता को नोटिस किया-
रमा रानी दो बहनें , परियों जैसी,
सब कहें दोनों लड़कियाँ लक्ष्मी कैसी
दो बहनें रमा रानी-
सभी करते हैं चर्चा
दो बहनें बड़ी अच्छीं
उजागर करेंगी कुल को
सीता जैसी।
इसमें रमा है मनोज बाबू की ममेरी बहन और रानी सुकान्त की दीदी जो चार वर्ष पहले मर गई थीं। संथाल परगना घूमने गए सुकान्त ने वहाँ के प्राकृतिक परिदृश्य का जैसा सुन्दर चित्रण किया है वह उनकी अद्भुत वर्णन शक्ति का परिचायक है। यह गद्यात्मक वर्णन सुकान्त की भाषा पर पकड़, सुन्दर शब्दचयन आदि को दर्शाता है। निश्चय ही यह बालक सुकान्त की परिपक्व अभिव्यक्ति है। रानी दीदी की मृत्यु के कुछ वर्ष बाद सुकान्त के जीवन में एक और मुश्किल घड़ी आई। सुकान्त की माता बहुत ज्यादा अस्वस्थ हो गईं। उन्हें कैंसर हो गया था। और 1931 ई में उनकी मृत्यु हुई। बहुत कम समय में ही सुकान्त से माँ और बहन की छाया छिन गई। इसके एक वर्ष बाद ही चचेरे भाई गोपाल भट्टाचार्य की मृत्यु हुई। कहने का मतलब कि सुकान्त के बचपन पर मृत्यु और अवसाद की छायाएँ थीं। अंतर्मुखी स्वभाव के सुकान्त के मन पर इन घटनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा। सुकान्त ने कविता, कहानी को अपने अकेलेपन का साथी बना लिया। उनकी किशोर कविताओं में मृत्यु का अवसन्न प्रभाव देखा जा सकता है।
प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी करके सातवीं कक्षा के छात्र के रूप में सुकान्त बेलेघाटा के देशबन्धु हाईस्कूल में भर्ती हुए। वहीं अरूणाचल बसु से मित्रता हुई जो अंत तक बनी रही। अरूणाचल बसु साहित्य प्रेमी थे। शिक्षक के रूप में नवद्वीप देवनाथ से निरंतर सुकान्त को प्रोत्साहन मिलता था। नवद्वीप देवनाथ के प्रोत्साहन और अरूणाचल बसु के सहयोग से कक्षा के छात्रों के द्वारा लिखित पत्रिका ' सप्तमिका ' का संपादन सुकान्त ने किया। इस पत्रिका के सबंध में जो बैठकें सुकान्त के घर पर हुआ करती थीं उसमें अनेक साहित्यिक मित्र भाग लिया करते थे। इन सबके प्रयास से पत्रिका नई सज-धज के साथ मुद्रित होकर प्रकाशित हुई। सुकान्त के अंतर्मुखी मन को जैसे अभिव्यक्ति का रास्ता मिल गया। इसी पत्रिका में सुकान्त ने बांग्ला साहित्य में विधा के रूप में समादृत 'छड़ा' (बाल कविता½ लिखा , शीर्षक था 'सुचिकित्सा'। इसमें प्रच्छन्न रूप से भारत की प्राचीन चिकित्सा व्यवस्था के साथ आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा पध्दति की तुलना करते हुए इसकी यांत्रिक पध्दति का उपहास किया गया है-
कलकत्ता गए बैद्यनाथ , सर्दी हुई भारी
हाँच्छी हाँच्छी करते जुलाब लिया सूँघी नसवारी
डाक्टर बोला, ये क्या, '' बहुत कठिन बहूरानी,
राम राम ! ये सब क्या सुचिकित्सा है ?
मेरे पास आओ 'एक्सर'े करूँ देखूँ
रोग है कितना बड़ा , असल-नकल जाचूँ।
थर्मामीटर मुँह में रखकर सीधे लेटो
आईसबैग माथे पर एक दिन तो रखो
पहले 'इंजेक्शन' दूँगा फिर 'ऑक्सिजन'
रोग भगाने का करता हूँ मैं आयोजन।''
गाँव के भोले बैद्यनाथ को आश्चर्य हुआ भारी
सर्दी होने पर इतना कुछ ? धन्य डॉक्टरी!!
सुकान्त की काव्य और लेखन प्रतिभा जब प्रस्फुटित हो रही थी वह सन् चालीस का जमाना था। विश्व और भारत के स्तर पर यह बहुत ही हलचल और आंदोलन भरा समय था। इस समय सबके एकजुट होने की जरूरत थी। किसी भी किस्म का विघटनकारी मुद्दा आंदोलन की ताकत को कम कर सकता था। सुकान्त की काव्यप्रतिभा सब पर उजागर हो चुकी थी। सुकान्त का स्वभाव से ही विद्रोही मन इन आंदोलनों का असर ग्रहण कर चुका था। जरूरत सही दिशा में निकास की थी। यह काम देशबन्धु हाई स्कूल के मित्र अरूणाचल बसु के संसर्ग से पूरा हुआ। अरूणाचल बसु सुकान्त के आंतरिक मित्र साबित हुए। सुकान्त के साथ उनका पत्र व्यवहार अंतिम समय तक बना रहा। उन्होंने सुकान्त को यह बोध कराया कि कविता केवल आत्मविनोदन का साधन नहीं है बल्कि कविता से जनांदोलन का उपकरण बनाया जा सकता है। शर्मीले सुकान्त के अंतर्मुखी व्यक्तित्व को एक बड़े हेतु से जोड़ देने का श्रेय अरूणाचल बसु को है। इससे कौन अपरिचित है कि कवि जीवन में इस तरह के आत्मीय मित्र की क्या अहमियत होती है। मुक्तिबोध आजीवन इसी आत्मा के मित्र की खोज करते रहे ! अरूणाचल बसु अपनी माँ सरला बसु के साथ बेलेघाटा के एक लड़कियों के स्कूल के कम्पाउण्ड में रहा करते थे। सरला देवी स्वयं भी एक लेखिका थीं। इस कारण भी वे सुकान्त की कवि प्रतिभा का सम्मान करती थीं। मातृहीन सुकान्त को वे माँ की तरह स्नेह करती थीं। सुकान्त अक्सर शाम को अरूणाचल बसु के घर चले जाते और उनके माता-पिता से गप्प करते। अरूण्ााचल, उनकी माँ और पिता और सुकान्त के बीच अक्सर साहित्यिक गप्पबाजियाँ हुआ करतीं। तीस के दशक में बहुत तेजी के साथ फासीवादी गतिविधियाँ बढ़ गईं थीं। इटली, जर्मनी और जापान तेजी के साथ सारी दुनिया को एक भयानक युध्द की तरफ ठेलने की दिशा में बढ़ रहे थे। युध्द रोकने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के साथ समझौता करने के रूस के सारे प्रयास व्यर्थ साबित हो गए थे। लेखक और बुध्दिजीवियों में काफी हलचल थी। युध्द और फासीवाद के खिलाफ उनमें भी लामबंदी बढ़ रह थी।
सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुध्द का आरंभ हो गया। ऑस्ट्रिया , चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार के बाद हिटलर ने 1 सितंबर 1939 को पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया फिर उसने ब्रिटेन और फ्रांस के विरूध्द युध्द की घोषणा कर दी। हिटलर तब अबाधित गति से एक के बाद एक देश जीतता जा रहा था। फ्रांस का पतन हुआ। सन् 1940 में जर्मनी ,इटली और जापान के बीच उपनिवेशों के बँटवारे के लिए एक समझौता हुआ। सन् 1941 की मई तक प्राय: सभी यूरोपीय देश हिटलर के अधीन हो चुके थे। अंत में 22 जून 1941 को हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया। युध्द का एक नया अध्याय आरंभ हुआ।
22 जून की सुबह जर्मनी ने रूसी- जर्मन अनाक्रमण संधि भंग करके हिटलर की जर्मन सेना ने बिना किसी युध्द की घोषणा के बाल्टिक सागर से काले सागर तक सभी जगहों से सोवियत रूस पर आक्रमण किया। जर्मन सरकार ने बाद में घोषणा की कि सोवियत बोल्शेविकवाद समस्त यूरोप के लिए सामरिक कारणों से खतरा है। असल में समाजवादी रूस विश्वसाम्राज्यवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती था। विशेषकर जर्मनी, इटली और जापान के साम्राज्यवादी विजय अभियान के लिए रूस सबसे बड़ी बाधा था। हिटलर चाहता था सारी दुनिया के गरीबों, मजलूमों , वंचितों और शोषितों के लिए साोवियत रूस ने जो आशा जगाई है उसे नष्ट कर दिया जाए। विश्व के मानचित्र पर फासीवाद के खिलाफ खड़ी एक सशक्त व्यवस्था को नष्ट कर दिया जाए। इस कारण स्टालिन ने लिखा था ''फासिस्ट जर्मन के विरूध्द यह युध्द कोई साधारण युध्द नहीं है, यह दो सेनाओं के बीच युध्द नहीं है, यह जर्मनी फासीवाद के विरूध्द रूस की समस्त जनता का महान युध्द है। जनता और स्वदेशप्रेमियों के इस युध्द का लक्ष्य केवल अपने देश की सुरक्षा नहीं है बल्कि जर्मन फासीवाद की पराधीनता में बंधी हुई समस्त यूरोपीय जनगण को मुक्त करना इस युध्द का लक्ष्य है।'' इस युध्द को ठीक ही 'जनयुध्द' (पीपुल्स वार) कहा गया। सन् 1941 में ही जापान ने एशियाई भूखण्ड पर भी आक्रमण किया। ब्रिटिश उपनिवेश सिंगापुर पर उसने आक्रमण किया। सिंगापुर , मलेशिया, बर्मा पर अधिकार करते हुए वह भारतवर्ष की तरफ बढ़ा। ब्रिटेन ने जर्मनी के विरूध्द युध्द की घोषणा कर दी। इसके साथ ही भारतरक्षा आर्डिनेंस पास करके सभा , समिति के आयोजनों पर रोक लगा दी। यह एक दमनकारी कानून था। सितंबर में राष्ट्रीय कांग्रेस ने घोषणा की कि इस युध्द से उसका कोई सरोकार नहीं है। राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीयों के लिए स्वशासन के अधिकार की मांग की। मजदूरों में भी युध्द विरोधी आंदोलन शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार के कोरे दावों का किसी ने विश्वास नहीं किया। 2 अक्टूबर को बंबई में 90 हजार मजदूरों ने युध्द के विरूध्द हड़ताल की। युध्द के कारण चीजों के दाम तेजी से बढे। महँगाई भत्तो की माँग के साथ बंबई, कानपुर, असम, धनबाद और बांग्लादेश में मार्च 1940 ई में हड़ताल हुई। सन् 1938 में कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन माक्र्सवाद का विचारधारात्मक तौर पर ट्रेड यूनियन और छात्र आंदोलन के रूप में इसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था। स्वराज के दावों को न मानने के कारण सारे देश में कांग्रेसी मंत्रियों ने इस्तीफा दक दिया। अक्टूबर 1940 में गाँधीजी ने व्यक्तिगत रूप से कानून की अवहेलना शुरू की। अंग्रेज सरकार की क्रूर दमननीतियाँ भी भारत में चल रहे आंदोलनों को कमजोर नहीं कर सकीं। मई 1941 में अंग्रेज सरकार ने सारे भारत में 20 हजार कार्यकत्तर्ााओं और नेताओं को गिरफ्तार किया।
द्वितीय विश्वयुध्द में निर्णायक मोड़ था सोवियत रूस के खिलाफ हिटलर के युध्द की घोषणा। जवाहरलाल नेहरू ने दिसम्बर 1941 ई में घोषणा की '' विश्व की तमाम प्रगतिशील ताकतें अब उस समूह के साथ हैं जिसका प्रतिनिधित्व रूस, ब्रिटेन, अमेरिका और चीन करते हैं।'' भारत में कम्युनिस्ट पार्टी को लगभग चार सालों के लिए ( 1938 से 1942 तक ) गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी ने पुरजोर ढंग से फासीवाद विरोधी गतिविधियों को चलाए रखा। इस युध्द को 'जनयुध्द' का नाम देते हुए कम्युनिस्ट पार्टी ने जनरक्षा समितियों का गठन करके मोहल्लों में जनजागरण अभियान चलाना आरंभ किया। छोटे-छोटे दलों का गठन किया। इसी समय बांग्ला भाषा में 'जनयुध्द' समाचारपत्र का निकलना शुरू हुआ इसने फासीवाद के विरोध में जनमत तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस समय इन गतिविधियों और जनता के साथ जुड़ाव के कारण कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ। इस दौरान कलकत्ताा शहर की हालत काफी खराब थी। हर तरफ भय और आतंक का वातावरण था। बमबारी के भय से लोग शहर छोड़कर भाग रहे थे। जापानी विमानों की कलकत्तो के आसमान में निरंतर उपस्थिति दिखाई पड़ रही थी। रात को शहर भर की बत्तिायाँ बुझा दी जाती थीं। इस निस्तब्धता को केवल सेना की गाड़ियाँ और सैनिकों के बूटों के स्वर तोड़ते थे। सुकान्त की कविता और गद्य में जिस भय और आतंक की मौजूदगी दिखाई देती है वह उनका अपना देखा-भोगा सत्य है। कल्पना या फंतासी नहीं। हिन्दी में इस तरह के आतंककारी माहौल और संशयात्मक स्थिति का जिक्र मुक्तिबोध के यहाँ मिलता है। निश्चित तौर पर मुक्तिबोध बड़े माप के कवि हैं लेकिन कविता की संरचना में भय और आतंक की स्थितियाँ बुनी हुई लगती हैं। उन्होंने प्रभावोत्पादकता के लिए कल्पना और फंतासी का प्रयोग किया गया है। फंतासी के जरिए मुक्तिबोध सचेत ढंग से सामयिक स्थितियों और वास्तविकता के साथ उसका संबंध जोड़ते हैं। यह वास्तविकता बहुत कटु, विडम्बनापूर्ण और अवसादमूलक है जो मोहभंग करती है। तमाम जनतांत्रिक उपलब्ध्यिों और खूबियों पर वास्तविकता भारी पड़ती है। अधूरी आजादी की तस्वीर पेश करती है। लेकिन सुकान्त के यहाँ भय की स्थितियाँ लड़ने के लिए उत्प्रेरित करती हैं। एक रूमानी आह्वान है। दुश्मन द्वार पर है और अपने घर की रक्षा करनी है, इसलिए इसमें कहीं अवसाद नहीं है। कुछ नया कर गुजरने का जोश है।
इस समय कांग्रेस के भीतर भी वामपंथी विचारधारा का दबदबा बढ़ रहा था। गाँधीजी की इच्छा के विरूध्द सुभाषचन्द्र बोस त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन दक्षिणपंथियों के दबाव के चलते उन्हें पद छोड़ना पड़ा। सुभाषचन्द्र बोस ने फारवर्ड ब्लाक का गठन किया। नजरबंदी के दौर में अंग्रेज पुलिस को चकमा देकर देश छोड़कर जर्मनी चले गए। वहाँ से जापान पहुँचे और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। इस समय जगह जगह लेखक बुध्दिजीवियों के ऊपर हमले हो रहे थे। फासीवाद समर्थकों द्वारा फासीवाद विरोधी लेखक और बुध्दिजीवियों के खिलाफ लामबंदी तेज हो गई थी। 8 मार्च 1942 को ढाका में एक फासीवाद विरोधी सम्मेलन का आयोजन हुआ। बांग्ला के प्रतिष्ठित लेखक और बुध्दिजीवी उसमें आमंत्रित थे। इस सम्मेलन में एक जुलूस का प्रतिनिधित्व कर रहे थे मजदूर नेता और नवोदित साहित्यिक सोमेन चन्दा। फासीवाद के समर्थकों ने रास्ते में उनकी निष्ठुरतापूर्वक हत्या कर डाली। इसी दिन जापानियों ने रंगून पर कब्जा किया। इस घटना का तीव्र प्रतिवाद लेखक बुध्दिजीवियों ने किया। कलकत्ताा के यूनिवर्सिटी इन्स्टीटयूट हॉल में 28 मार्च को रामानन्द चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में फासीवाद विरोधी लेखकों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। इसमें अनेक गैर कम्युनिस्ट लेखकों ने भी भाषण दिए। इसी सम्मेलन में ' फासीवाद विरोधी लेखक संघ' का जन्म हुआ। इस उत्तोजनापूर्ण राजनीतिक-साहित्यिक माहौल में सुकान्त राजनीति के संपर्क में आए। वे बहुत निकट से कलकत्ताा के वातावरण को देख रहे थे। शहर छोड़कर नागरिकों का पलायन और शहर का निर्जन होते जाना सुकान्त की आँखों के सामने था। कलकत्ताा में शाम के बाद से ही सन्नाटा छा जाता था।
एक तरफ द्वितीय महायुध्द का भय और आतंक दूसरी तरफ गली मोहल्लों में तेज होती राजनीतिक गतिविधियाँ। सुकान्त ने अपने मोहल्ले में समिति बनाई। अनेक स्वयंसेवी कार्यों में उत्साह के साथ भागीदारी की। मोहल्ले में सुभाषचन्द्र बोस के आगमन के समय जनहित के कामों के लिए जो समिति बनी उसमें सुकान्त ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। राजनीति के प्रति सुकान्त की रूचि इसके बाद बढ़ती ही गई। रेडियो सुनना , अखबार पढ़ना रोज की दिनचर्या में शामिल हो गया। सन् 1942 ई में कलकत्ताा पर बमबारी हुई। सुकान्त रिलीफ के कामों में लग गए। इसके लिए बड़े भाई की फटकार भी सुननी पड़ी। सन् 1942 में कांग्रेस ने 'भारत छोड़ो का नारा दिया। कलकत्ताा की राजनीति में अति परिचित पोस्टरबाजी के रूप में कविता लेखन की शैली में सुकान्त ने दिवाल पर कविता लिखी :
हर दीवार पर लिख रहा हूँ मन के विचार
मैं एक बेरोजगार हूँ, मुझे यह आजादी है ।
सुकान्त की कविता की एक दिशा है विद्रोह दूसरा है प्रेम। सुकान्त के विद्रोह को प्रेम से अलग करके नही पढ़ा जा सकता। छोटी अवधि के लिए ही सही सुकान्त ने अपने जीवन में प्रेम का अनुभव किया था। प्रेम के रोमांच और व्यथा का उल्लेख मित्र को लिखे एक पत्र में किया है। यह किशोरावस्था का रोमान्टिक प्रेम था। सुकान्त ने लिखा किया-''आज प्रतीत होता है/बसंत मेरे जीवन में भी आया था।'' (अवैध)
बमबारी के भय से शहर छोड़कर जानेवालों में सुकान्त की यह प्रेमिका भी थी। इस प्रक्रिया में सुकान्त का यह प्रेम हजारों वंचितों के प्रेम में बदल गया। देश और दुनिया के इस हलचल भरे राजनीतिक माहौल में परिदृश्य तेजी से बदल रहा था। गाँधीजी ने कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने घोषणा की जापान को अहिंसात्मक तरीके से रोकना होगा, ब्रिटिश सरकार से असहयोग करना होगा, फासीवाद के विरोध में मित्र राष्ट्रों के लिए नैतिक समर्थन है और भारतवर्ष को किसी भी तरह से इस युध्द में नहीं घसीटा न जाए। कांग्रेस ने 8 अगस्त 1942 को 'भारत छोड़ो' आंदोलन की शुरूआत की। गाँधीजी ने नारा दिया ' करेंगे या मरेंगे '। जगह जगह कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया। जनता ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। थानों, रेलवे स्टेशनों, डाकघरों में आग लगा दी गई। रेल की पटरियाँ उखाड़ फेंकी गईं, यातायात व्यवस्था को ठप्प कर दिया गया, सारे भारत में जगह जगह जनअसंतोष फूट पड़ा। अंग्रेज सरकार का भयावह दमनचक्र बदस्तूर जारी था। कांग्रेस से बिल्कुल भिन्न नीति मुस्लिम लीग की थी। सांप्रदायिक राजनीति के बीज पड़ चुके थे।
सुकान्त राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर चुके थे। वामपंथी राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ती जा रही थी। तेरह चौदह वर्ष की आयु में ही अपनी कविताओं के कारण सुकान्त की ख्याति हो गई थी। उनका परिचय बांग्ला के बड़े बड़े कवियों रचनाकारों से हो रहा था। अल्पायु में परिपक्व भाव की कविताए¡ सबको चकित कर देनेवाली थीं। सुभाष मुखोपाध्याय से सुकान्त का परिचय अन्य साहित्यिकों से परिचय का आधार बना। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, बुध्ददेव बसु और बांग्ला के अन्य साहित्यिकों से सुकान्त का परिचय हुआ। इस समय तक सुकान्त 'वैशम्पायन', ''कोन बन्धुर प्रति'' आदि कविताएँ लिख चुके थे। जो बाद में 'पूर्वाभास' , 'घूम नेई' आदि संकलनों में शामिल हुईं। सुकान्त समग्र में सुकान्त के निम्नलिखित काव्य संकलन शामिल हैं- 'छाड़पत्र', 'घूम नेई', 'पूर्वाभास', 'गीतिगुच्छ', 'मीठेकॅड़ा' और 'अभियान'। इसके अलावा 'हड़ताल' नाटिका, 'अप्रचलित रचना' और पत्रों के संकलन हैं।
पढ़ने लिखने में अभिरूचि न होने के कारण परिवारीजन सुकान्त को लेकर असंतुष्ट थे। एक कम्युनिस्ट छात्र कार्यकत्तर्ाा के लिए उस समय की नीतियों के अनुसार अच्छा छात्र होना भी जरूरी था। सांस्कृतिक कार्यक्रम तब वामपंथी आंदोलन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। माक्र्सवाद के प्रचार के लिए बहस-मुबाहिसे, विमर्श, नकली संसद और दूसरी तरफ गीत, नाटक, कविता पाठ आदि का आयोजन। इनमें उस समय के तमाम बुध्दिजीवी भाग ले रहे थे। सलिल चौधरी, ज्योतिरिन्द्र मैत्र, शम्भु मित्र, सुचित्रा मित्र, सुभाष मुखोपाध्याय आदि थे। सुकान्त की कविताएँ इसमें एक नया मोड़ थीं। 1942 ई में फासीवाद विरोधी लेखक और शिल्पी संघ ने 'एकसूत्र' नाम से एक काव्य संकलन प्रकाशित किया। इसमें तत्कालीन सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों की कविताएँ थीं। इस संकलन में 'मध्यवित्ता, 42' नाम से सुकान्त की एक कविता शामिल की गई।
कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर सुकान्त की गतिविधियाँ केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी तक सीमित नहीं थी। वे एक सक्रिय कार्यकत्तर्ाा थे। पार्टी के जागरूकता अभियानों में सदैव तत्पर रहते थे। घर के पास ही कम्युनिस्ट पार्टी का 'जनरक्षा समिति' के नाम से दफ्तर था। सुकान्त वहाँ जाकर पोस्टर तैयार करने, स्थानीय लोगों से बातचीत और उन्हें जागरूक करने और रात में ब्लैकआउट के घुप्प अंधेरे में पोस्टर लगाने का काम करते। सुशील मुखर्जी के नेतृत्व में गठित इस जनरक्षा समिति का प्रमुख काम था-खाद्य सामग्री के लिए आंदोलन करना, राशन की दुकानों पर लाईन लगवाना ताकि कोई बीच में क्रम भंग करके घुसे नहीं। सुकान्त खाद्य सामग्री के लिए लाईन लगवाने के काम में स्वयंसेवी की भूमिका अदा करते थे।
सुकान्त की प्रकृति भावुक और गंभीर थी। निम्नमध्यवित्ता परिवारों में जैसा अमूमन होता है बच्चे प्राय: उपेक्षित रहते हैं। मातृहीन सुकान्त के लिए घर में कोई आकर्षण न था जो बाँध सके। किशोर सुकान्त ने राजनीति के साथ अपने को ज्यादा से ज्यादा जोड़ लिया। राजनीतिक सरोकारों से जुड़कर काव्यप्रतिभा ज्यादा सोद्वेश्य और गंभीर हुई। सन् चालीस बंगाल के संदर्भ में बयालीस का अकाल विशेष मायने रखता है। यह बांग्ला साहित्य में तेरह सौ पचास के मनवन्तर के नाम से जाना जाता है। इसमें धन जन की अत्यधिक हानि हुई। यह सरकारी कुप्रबन्धन के कारण पैदा हुआ अकाल था, इसे रोका जा सकता था। सुकान्त की कविता इस मानवीय त्रासदी की सबसे बड़ी कविता है। सुकान्त युवा कवि हैं। इनमें रोमान्टिसिज्म खूब होता है। सुकान्त के साथ ऐसा नहीं है। यथार्थ की ठोस भूमि पर उनकी कविता पनपी है। युवा सुकान्त ने कम लिखा लेकिन जो लिखा उसका बड़ा हिस्सा उस समय की दो बड़ी मानवीय त्रासदियों - युध्द और अकाल पर है। सुकान्त ने स्वयं को अकाल का कवि कहा। सुकान्त का नाटककार और पत्रकार रूप भी है। 'अभियान' नामक एक नाटक 'जनयुध्द' के लिए लिखा। सुकान्त की लिखी कई कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिका ' अरणि ' में प्रकाशित हुईं। सुकान्त की जो कविताए¡ और कहानिया¡ आदि छपा करती थीं उनसे सुकान्त को बहुत कम पैसे मिलते थे। अपने अर्थाभाव का उल्लेख अपने मित्र को लिखे एक पत्र में उन्होंने किया है। सघन और अस्वास्थ्यकर वातावरण में रहने के कारण सुकान्त बार बार मलेरिया से ग्रसित होते। 1944 ई में अकाल का प्रकोप कुछ कम हुआ तो किसानों का अपने गाँवों में लौटना आरंभ हुआ। सुकान्त की इस समय की कविताओं में इसकी झलक है। 'फसल की पुकार', ' किसानों का गीत', 'नई फसल' आदि कविताएँ। सुकान्त की इच्छा थी कि वे जनता के कवि बनें। इसके लिए जनता से जुड़ने, उसके सुख दुख की अभिव्यक्ति में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। 1944 ई में ही विश्वयुध्द की समाप्ति हुई। भारत में स्वधीनता आंदोलन तेज हो उठा। 1946 ई में वायु सेना की हड़ताल हुई। इसी वर्ष ऐतिहासिक नौसेना विद्रोह हुआ। 22 फरवरी को बंबई के समस्त मजदूरों ने हड़ताल किया। कलकत्तो में आजाद हिन्द सेना के कैप्टन रशिद अली खान की मुक्ति के लिए मुस्लिम स्टुडेन्ट्स लीग के आह्वान पर छात्रों की हड़ताल हुई। इसमें कलकत्तो की मिलों में काम करनेवाले मजदूर और अन्य संगठन भी शामिल हुए। आंदोलन अत्यंत उग्र हो उठा। कलकत्तो में जगह जगह अंग्रेज सेना के साथ जनता लड़ रही थी। अंग्रेज सरकार को अच्छी तरह समझ में आ गया था कि वह भारत में और नहीं टिक सकती। जनता का आक्रोश दबाए नहीं दब रहा था। अंतत: राजनीतिक चक्र की गति कुछ ऐसी घूमी कि अंग्रेजों का सांप्रदायिक आधार पर दो देशों का फार्मूला भारत के नेताओं को स्वीकार करना पड़ा। जनकवि सुकान्त की कविताओं में इन उथल पुथल भरे दिनों की विद्रोही छवि अंकित है।
सुकान्त भट्टाचार्य युध्द और अकाल का सबसे बड़ा कवि है। सुकान्त का सारा आक्रोश और आवेश निरीह जनता को युध्द और अकाल में झोंक देने के कारण साम्राज्यवादी के खिलाफ व्यक्त हुआ। द्वितीय विश्वयुध्द का प्रथम विश्वयुध्द के बाद की आर्थिक मंदी की स्थितियों से गहरा संबंध है। प्रथम विश्वयुध्द के समय माँग बढ़ने के कारण उत्पादन में तेजी आई। चीजों के दाम में वृध्दि और कालाबाजारी से पूँजीपतियों ने खूब मुनाफा कमाया। लेकिन युध्द के बाद माँग में कमी आने के कारण पूँजीपति वर्ग के लिए संकट पैदा हो गया। युध्द के समय में जो हर क्षेत्र में अतिरिक्त माँग दिखाई दे रही थी वह अचानक कम हो गई। मंदी के जो लक्षण आज देखे जा रहे हैं वह प्रथम विश्वयुध्द के बाद पैदा हुए लक्षणों की समरूपता में हैं। आंकड़े बताते हैं कि नौकरियों में कमी, डाक्टरी और कानून के पेशों पर ज्यादा दबाव, जीवनयापन के साधनों का संकुचन और नए रोजगार के अवसर के न पैदा होने के कारण बेकारी में बेतहाशा वृध्दि देखी गई। इस आर्थिक संकट के समय पूँजीवाद ने अपनी प्राणरक्षा के लिए जो उपाय अपनाए उसमें अपने देशों में इजारेदार पूँजीवाद को विशिष्ट क्षेत्रों में विकास के अवसर मुहैय्या कराना, उनके हितों को ध्यान में रखकर बैंक, बीमा और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, भूमिव्यवस्था में फेरबदल आदि हैं। लेकिन इन सबका एक दूसरा पहलू भी है। वह यह कि अपने लिए इन अबाध सुविधाओं को वह तभी हासिल कर पाता है जब वह लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों का हनन करे। इसके लिए तमाम कानून लागू करके पूँजीवादी सरकार अधिकार हासिल करती है। मजदूर आंदोलनों के दमन करके और उनके अधिकारों के हनन की कीमत पर यह संभव होता है। आज जिस आर्थिक मंदी का हल्ला है उसमें और किसी तरह के खर्चे में कटौती न करके केवल श्रमिकों की छँटनी की जा रही है , उनके वेतन कम किए जा रहे हैं। प¡wजीपति से कोई नहीं कहता कि कम मुनाफे से काम चलाओ।
फासीवादी व्यवस्था केवल शोषण और दमन की परिचित संरचना में ही नहीं आती बल्कि लोकलुभावन नारों और जनता के गैरजरूरी लेकिन समाज में मौजूद अभावों को संबोधित करते हुए आती है। प्रकटत: यह पूँजीवाद विरोधी मालूम होती है पर पूँजीवाद से इसका नाभिनालबध्द संबंध है। यह इजारेदार पूँजीपति वर्ग के घृणिततम राजनीतिक रूप की चरम अभिव्यक्ति है। तथाकथित उच्च नैतिक मूल्यों, प्राचीन संस्कृति, परंपरा और कौलीन्यबोध के स्तर पर यह जनता का विभाजन करती है। प्रथम विश्वयुध्द से लेकर द्वितीय विश्वयुध्द के दशक तक फासीवाद का यह घिनौना चेहरा अपने नग्न रूप में संसार के सामने आ चुका था। साम्राज्वादी उपनिवेश होने के कारण भारत की स्थिति और भी जटिल थी। इतनी बड़ी आबादी और संसाधनवाला यह देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सबसे महत्वपूर्ण उपनिवेश था। भारतीय उपमहाद्वीप में साम्राज्यवाद के सबसे ज्यादा दाँव लगे हुए थे। बांग्ला साहित्य में रवीन्द्रनाथ , जीवनानन्द दास, नजरूल, बुध्ददेव बसु प्रभृति रचनाकारों की रचनाओं में फासीवाद विरोधी स्वर सुने जा सकते हैं। जनोन्मुखी चेतना के प्रचार प्रसार के लिए साहित्य में लगातार चिंता देखी जा सकती है। इस समय कम्युनिस्ट पार्टी की चिंता थी भारत की स्वतंत्रता, जापान के भारत पर आक्रमण को रोकना, जेलों में बंद कांग्रेसी नेताओं को छुड़ाना, ध्वंसात्मक गतिविधियों से जनता को विमुख करना, कांग्रेस-लीग की एकता के लिए प्रयास करना, राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्रीय मुक्ति हासिल करना। इस मुक्तिसंग्राम में मध्यवित्ता का सुविधाभोगी और दोहरा चरित्र सुकान्त की कविता में अभिव्यक्त हुआ है। ''मध्यवित्ता' 42'' कविता में-
पृथ्वी पर फैले संक्रामक रोग से
आज सभी पीड़ित हैं
पा रहा हू¡ पूर्वाभास उसीका
चल रही पुरवैय्या अभी
थिर रह सकू¡ , उपाय नहीं
फाड़ दिए हैं पाल
हिंसक हवाओं ने
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रात दिन कटते हैं भय के आगोश में
लोभी बाजार रोगी और बेरंग
सारे देश में अवतरित मौसमी नेता
धरती फाड़कर प्रकट हुए 'देशप्रेमी'।
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इधर देश के पूरब में
फिर से बमबरसानेवाले खून पी रहे हैं
असम ,चटगांव में क्षुब्ध है जनता
इस कविता में जापान द्वारा असम और चटगांव में बम बरसाने का जिक्र है। मध्यवर्ग की दोरंगी नीतियों की आलोचना करते हुए लिखा अब जनता के हित से अलग मध्यवर्ग का कोई हित नहीं होना चाहिए। मध्यवर्ग को अपनी क्षुद्र स्वार्थपरता छोड़कर जनता के हित के साथ अपने हित को जोड़ देना चाहिए तभी मुक्ति संभव है। मुक्ति का कोई अन्य पथ नहीं है। ''उनके हित अपने हित , /आज मन ने एक जाना।'' (मध्यवित्ता '42)
कलकत्ताा के भय और दहशत के माहौल का जिक्र सुकान्त की कविताओं में है। जब महानगर के चहल पहल भरे रास्तों पर शाम से ही सन्नाटा खिंच जाता था, रात को पूरे शहर की बत्तिाया¡ हवाई हमले की आशंका से बुझा दी जाती थीं। इन तमाम एहतियातों के बावजूद फासीवादी हमलावर की बमवर्षा से कलकत्ताा बच नहीं सका। 'सितबंर '46' कविता में फासीवाद के भय और संत्रासजनक स्थिति का उल्लेख है-
कलकत्तो में शान्ति नहीं है।
खूनी कलंक पुकारता है आधी रात को
रोज शाम,
मूच्र्छित शहर की
धड़कने तेज हो जाती हैं।
गाँव-सा सन्नाटा आजकल खिंच जाता है
शाम से निर्जन शहर के रास्तों पर
स्तबध आलोकस्तंभ
भीत उजाला करते हैं।
कहा¡ दुकान बाजार
कहा¡ वह जनता की भीड़?
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ट्राम नहीं, बस नहीं-
साहसी पथिकविहीन
इस शहर में आतंक फैल रहा है।
खाली खाली घर सब
मानों कब्र हों
मरे हुए लोगों का स्तूप
छाती पर रखे
चुपचाप भयभीत निर्जन।
बीच बीच में शब्द केवल
मिलिट्री ट्रकों का गर्जन
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कलंकित काले काले रक्त जैसा
अंधकार फैलता है तन्द्राहीन शहर पर;
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रूध्दश्वास यह शहर
छटपटाता है सारी रात-
कब सुबह होगी?
जीवनदायिनी स्पर्श
मिलेगी सुनहले धूप की ?
सुकान्त जब युध्द की स्थितियों का चित्रण करते हैं तो उन्हें किसी भूमिका की जरूरत नहीं होती। यह युध्द फासीवादी शक्तियों के साथ लामबंद मुट्ठी भर सुविधाभोगी लोगों के खिलाफ जनतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रही जनता का युध्द है, कल कारखानों में शोषित मजदूरों का युध्द है। अब और समय नहीं है कि अहिंसा के लंबे रास्ते का अवलंबन किया जा सके। समय हो गया है सीधी लड़ाई का। पुकार हो गई है और देर नहीं की जा सकती। 'मजूरदेर झॅड़' कविता में पूँजी के दलालों और शोषकों के खिलाफ लड़ाई का उद्बोधन है। बहुत से लोगों के हितों के खिलाफ कुछ लोगों को खड़ा करने के पुराने नियम को उलटने का आह्वान है। विकास के लिए जिनकी गति है उनलोगों के खिलाफ इन शोषक साँपों की गति है-''सूर्जोलोकेर पथे जादेर जात्रा/तादेर विरूध्दे ताई सापेरा।'' इन शोषक साँपों को जनतांत्रिक धरना प्रदर्शनों को छिन्न-भिन्न करने , तोड़ने में कोई परेशानी नहीं होती। धरना-प्रदर्शन जो निर्लज्ज भूख का चरम चिह्न हैं। जागरूक जनता को और भूल नहीं करना चाहिए, यही सटीक समय है-
लेकिन यही वह समय है
सचेतन जनता! अब और भूल न करो-
विश्वास करो मत इन साँपों का
सघन काले चमड़े से जो स्वयं को ढके रखते हैं
संकट के समय जो बुलाते हें
अपने से कम चमकीले विषाक्त दासों को।
जिन्हें जनप्रदर्शनों को छिन्न भिन्न करने में जरा भी लज्जा नहीं होती
वे जनप्रदर्शन जो निर्लज्ज भूख का चरम चिह्न हैं। (मजूरदेर झड़)
सुकान्त की कविता में युध्द और अकाल की स्थितिया¡ अलग-अलग चित्रित नहीं हैं। दोनों एक दूसरे की अनुषंगी हैं। युध्द के जो कारक हैं वे ही अकाल के भी जनक हैं। 'डाक' कविता में इसे देखा जा सकता है-
चेहरे पर हंसी लिए हुए अहिंसक बुध्द की
भूमिका नहीं चाहता। युध्द की पुकार हो गई है
गोलियों से छलनी छाती, उध्दत सिर-
घूम रहा है हाथों हाथ हिसाब-किताब का खाता,
सुनो हुंकार करोड़ों अवरूध्द कंठों की।
अकाल को भगाओ, शोषकों को भगाओ-
संधिपत्र फाड़ो, पाँवों तले कुचलो।
स्वाधीनता संग्राम में सभी दलों का लक्ष्य स्वतंत्रता पाना ही था। अत्याचार और शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ने, एकजुट होने की जरूरत है। कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ जिस स्तर का दुष्प्रचार हो रहा था उसका माखौल उड़ाते हुए सुकान्त ने लिखा -
तुम किस दल के हो? जिज्ञासा उद्वाम:
'गुण्डों' के दल में आज तक लिखवाया नहीं क्या नाम? (डाक½
युध्द के बाद पैदा हुई भूखमरी के लिए दायी शक्तियों को जनता में जबाव देना होगा। युध्द के बाद जनता अपना असल और सूद दोनों चाहती है-
लाखों लाख प्राणों के दाम
बहुत दिए, उजाड़ ग्राम।
इसलिए आज सूद और मूल
युध्दोपरांत प्राप्य मेरा, करूँगा वसूल। (बोधन½
सुकान्त ने अपनी कविताओं में प्रश्न केवल शोषकों से ही नहीं किए बल्कि जनता से भी उनके कई सवाल हैं। एक और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह जिरह किसी भी तरह की मध्यवर्गीय कुण्ठा और ग्लानि के रूप में नहीं की गई है। जनांदोलनों के साथ गहरे जुड़े होने और जनता की शक्ति में विश्वास के कारण निराशा ,कुण्ठा और ग्लानि सुकान्त की कविताओं में नहीं है। दुख और पीड़ा वर्तमान को लेकर है, भविष्य को लेकर नहीं। एकमात्र लक्ष्य है मुक्ति। इसके लिए वे जनता के साथ उसकी लड़ाई में शामिल हैं। सीधे सीधे प्रश्न हैं शोषित और शोषक दोनों पक्षों से। यहा¡ मुक्तिबोध जैसा संकट नहीं है कि ''प्रश्न जितने बढ़ रहे घट रहे उतने जबाव''। यह कवि जनता की तरफ से जनता में खड़े होकर अपने दिए का प्रत्युत्तार चाहता है। सिर्फ सूखा प्रत्युत्तार नहीं बाकायदा बही खाते के साथ हिसाब करना चाहता है कि जितना जनता से शासकवर्ग ने ले लिया उसका असल और सूद कितना बनता है। शासकवर्ग पर जनता का कितने का कर्ज़ है इसका न सिर्फ हिसाब करना है बल्कि चुकता न होने पर बदला भी लेना है। इसलिए इसमें मध्यवर्ग की मुक्तिबोधीय कुण्ठा नहीं है कि 'लिया ज्यादा, दिया बहुत कम'।
सुनो मालिको , सुनो कालाबाजारियो!
महलों में तुम्हारे जमा हुए कितने नरकंकाल-
दोगे हिसाब?
प्रिया को मेरी छिन लिया
बर्बाद किया घर-बार,
यह बात क्या मैं मरते दम तक
भूल सकता हूँ\
आदिम हिंस्र मानवता का यदि मुझसे कोई वास्ता है
खोया है जिस श्मशान में स्वजनों को
वहीं चिता सजाऊ¡ तुम्हारी।
सुनो रे जमाखोरों ,
फसल देनेवाली धरती में
इस बार तुम्हें ही गाडूँगा।
बहुत दिनों बाद
भविष्य के किसी जादूघर में
नृतत्वविद् हैवानियत से पोछेंगे माथा तुम्हारा
काम होगा उनका जमाखोरों और मनुष्य की
हव्यिों का मिलान करके पता करना
तेरह सौ साल के मध्यवर्ती मालिक, जमाखोर
मनुष्य थे क्या? जबाव दे नहीं पाएँगे वे।
जनता के साथ कवि कदम कदम पर है। उसकी हर लड़ाई का साक्षी और उससे संलग्न। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की मिलीभगत के विरूध्द वह जनता को जगा रहा है-
टुकड़े टुकड़े करके फेंकों आज
अपने अन्याय और भीरूता की कलंकित कहानी।
शोषक और शासक की निष्ठुर एकता के विरूध्द
एकजुट हों हम।
सुकान्त का राष्टप्रेम साम्राज्यवाद और अन्याय के खिलाफ संघर्ष से जुड़ा है। सुकान्त ने राष्ट्रीय चेतना का इस्तेमाल जनता का जोड़ने के लिए किया है न कि तोड़ने के लिए जैसाकि बुर्जुअाजी करता है। 'मिथ्या अतीत प्रेम' और 'मेरा भारत महान' जैसी थोथी चेतना की अभिव्यक्ति यहा¡ नहीं है। यहा¡ भारत की उस जनता का आह्वान है जो हमेशा न्याय के साथ है, संघर्षशील परंपरा की वाहक है। मुर्दा अतीतप्रेम का यहा¡ लेश भी नहीं है-
यह यदि नहीं होता तो आए भयानक विपत्तिा हम पर
जिसमें अन्याय मिट जाए , आश्रय मिट जाए ;
यह यदि नहीं होता समझूँगा तुम मनुष्य नहीं हो-
गुप चुप देशद्रोहियों के साथ लगे फिरते हो।
भारतवर्ष की मिट्टी ने तुम्हें सींचा नहीं
तुम्हें अन्न नहीं दिए, भुजाओं में बल नहीं
पूर्वजों का खून नहीं, इसी से
आज भारत में तुम्हारा कोई आश्रय नहीं। ¼ बोधन ½
युध्द और दुर्भिक्ष की मारी जनता की दुर्दशा और संघर्षशक्ति के कई चित्र हैं। 'मृत्युजयी गान',
'कनभॉए', ' फसलेर डाक' ' एई नवान्न ' आदि कई कविताए¡ हैं। जापान की सहायता से ब्रिटिश साम्राज्य को निकाल बाहर करने और देश को मुक्त कराने की सुभाषचन्द्र बोस और भारत में एक बडे हिस्से की जो धारणा थी उससे सुकान्त कभी सहमत नहीं थे। सुभाषचन्द्र बोस का कहीं नाम लिए बगैर जापानी आक्रामकों की घोर निंदा की है। असम, चटग्राम और कलकत्ताा के कई इलाकों में बम बरसानेवाले जापान के खिलाफ सुकान्त ने कई कविताओं में लिखी। 'चटग्राम:1943' शीर्षक कविता में सोवियत जनता के साथ भारत की जनता को जोड़कर देखा है। स्तालिनग्राद की जनता ने जो रक्ताक्त संघर्ष किया था वही संघर्ष फासीवादी ताकतों के विरूध्द चटग्राम की जनता को करना है। फासीवादी ताकतों के हर कदम को बहुत गंभीरता के साथ सुकान्त जाँच रहे थे। लाल फौज की अग्रगति हिटलर के लिए संकट साबित हो रही थी। मित्र राष्ट्रों के हाथों अफ्रीका, भूमध्यसागर और बलकान इलाके में पराजित होकर फासीवाद के आका मुसोलिनी को इटली में मार्च 1943 में मज़दूर आंदोलन के दबाव के कारण प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। सुकान्त ने इस घटना पर जनता का अभिनंदन करते हुए 'रोम' नामक कविता लिखी। जिसका आरंभ है '' साम्राज्य स्वप्न नष्ट हुआ/भागा है छत्रपति, बेड़ियों से बना दुर्ग/शताब्दियों का भूलुण्ठित।'' (रोम½ एक तरफ फासीवाद के छत्रप के पतन और जनता की विजय पर कविता लिखी वहीं दूसरी तरफ जननायक लेनिन पर कविता लिखी। जिसमें उन्होंने कहा कि लेनिन ने जनता के जरिए अन्याय के बाँध को तोड़ा है। साम्राज्यवादी अन्याय के खिलाफ लेनिन प्रथम प्रतिवादी स्वर हैं। घर घर में लेनिन की संख्या बढ़े। प्रत्येक मा¡ लेनिन को जन्म दे। समाजवादी राष्टª के रूप में लेनिन के नेतृत्व में सोवियत रूस को सुकान्त आशा भरी नजरों से देख रहे थे। लेनिन का सोवियत संघ जनता की मुक्तिकामी स्वतंत्र चेतना का प्रतीक था । इस भाव को सुकान्त ने 'लेनिन' शीर्षक कविता में व्यक्त किया है। '' लेनिन ने रूस की जनता के सहयोग से अन्याय का तोड़ा है बाँध/ अन्याय के खिलाफ लेनिन हैं प्रथम प्रतिवाद।'' '' क्रांति धड़कती है दिल में, मानों मैं ही हू¡ लेनिन।'' (लेनिन½ कलकत्तो में जापानी बमबर्षक विमान कैसा कहर मचा रहे थे इसकी एक झलक मित्र अरूणाचल बसु को लिखे एक पत्र में सुकान्त ने दी है। जीवन की नश्वरता का भान संकट के समय तीव्र हो उठता है। आश्चर्य इस बात का है कि सुकान्त कुण्ठाग्रस्त, पलायनवादी या वीतरागी नहीं हुए बल्कि साधारण मनुष्य की अप्रतिहत जिजीविषा के गीत गाते रहे। पत्र इस प्रकार है-''भाग्य से अभी भी बचा हुआ हू¡ ; इसी कारण इतने दिनों की चुप्पी तोड़कर एक चिट्ठी भेज रहा हूँ-अप्रत्याशित बम की तरह तुम्हारे अभिमान के सुरक्षित दुर्ग को चूर्ण करने। जिंदा रहना सामान्य तौर पर अस्वाभाविक नहीं है। फिर भी भाग्य से क्यों इसका रहस्योद्धाटन करके अपनी रचनात्मकता का परिचय दू¡ ऐसा अवसर नहीं है, क्योंकि अखबारों ने बहुत पहले ही इस काम को कर दिया है! खैर, इस बारे में नए सिरे से और रोना नहीं रोऊँगा, क्योंकि पिछले वर्ष तुम्हे लिखे इन्हीं दिनों के एक पत्र में मेरी कायरता भरपूर प्रकट थी : इच्छा हो तो पुराने पत्र में इसे देख सकते हो। आज और कायरता नहीं, दृढ़ता। तब मैंने भय का कौशलपूर्ण वर्णन किया था, क्योंकि तब विपत्तिा नहीं थी , विपत्तिा की आशंका थी। अभी तो संकट प्रत्यक्ष है। कल रात को भी आक्रमण हुआ। यह रोज की दिनचर्या के साथ जुड़ गया है। अफवाहों का साम्राज्य भी आक्रमण के साथ बढ़ रहा है। तुम लोगों को यहा¡ के असली समाचार मिले हैं कि नहीं ,नहीं जानता। अत: आक्रमण की एक छोटी-मोटी झलक दे रहा हू¡ : पहले दिन खिदिरपुर, दूसरे दिन भी खिदिरपुर, तीसरे दिन हाथीबागान आदि कई अंचलों में (इस दिन के आक्रमण ने सबसे ज्यादा क्षति की), चौथे दिन डलहौजी के इलाके में ¼ इस दिन तीन घण्टा आक्रमण चला, सबसे ज्यादा भयकारी था, भय के कारण दूसरे दिन कलकत्ताा प्राय: शून्य हो गया ), और पाँचवे दिन अर्थात कल भी आक्रमण हुआ, कल के हमले की जगह मैं नहीं जानता। पहले, दूसरा और तीसरा दिन बालीगंज में मामा के यहा¡ उनके साथ अव्ेबाजी में कटा। चौथा दिन शाम को भाई-भाभी के यहा¡ सीताराम घोष स्ट्रीट में सबसे भयानक रूप से कटा।'' ¼fदसम्बर 1942)
अंग्रेजी कुशासन के कारण सारे भारत में और बंगाल में बार बार अकाल पड़ा। बंकिमचन्द्र के 'आनंदमठ' में इस अकाल का हृदयविदारक चित्र हैं। सन् 1942 में जापान ने बर्मा पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया। बर्मा से भारत में जो चावल आयात किया जाता था वह बंगाल की कुल खपत का 20 प्रतिशत था। ब्रिटेन ने बर्मा में चावल की खेती को खूब प्रोत्साहन दिया था। लेकिन तब भी बर्मा के चावल उत्पादन का प्रतिशत बंगाल में उत्पादित चावल की तुलना में कम था। जो चावल बर्मा से आयात होता था केवल उसके बंद होने भर से बंगाल में अकाल की स्थिति नहीं पैदा हो सकती थी। वस्तुत: बंगाल के अकाल का बड़ा कारण ब्रिटिश भारत पर जापानी आक्रमण का भय था। जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने आपात् स्थिति में अपने सैनिकों के लिए चावल की जमाखोरी की और राशन दुकानों में चावल की आपूर्ति नहीं की गई। 16 अक्टूबर 1942 ई को बंगाल और उड़ीसा के पूर्वी तट पर भयंकर चक्रवाती तूफान आया। इससे फसलों को भारी नुकसान हुआ। किसानों को अतिरिक्त अनाज का उपयोग करना पड़ा और उन्होंने बीज के लिए जो अनाज रखा था उसे भी खाने के काम में लाना पड़ा। सन् 1943 की गर्मियों में फसल रोपने के लिए सरकार ने किसानों को कोई अनाज मुहैय्या नहीं करवाया। सुप्रसिध्द अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार 1943 ई में बंगाल में धान की कोई कमी नहीं थी बल्कि सन् 1941 में जब कोई अकाल की स्थिति नहीं थी तब जितना धान था उससे कहीं ज्यादा धान सन् 1943 में उपलब्ध था। अमर्त्य सेन इस अकाल के कारणों का अध्ययन करते हुए बताते हैं कि सन् 1943 में बंगाल में चावल की कोई कमी नहीं थी फिर भी अकाल की स्थिति पैदा हुई। इसका कारण अफवाहें थीं, यह हल्ला था कि चावल की कमी हो गई है। युध्द के दौरान चीजों के बढ़ते दाम, मुद्रास्फीति की स्थिति के कारण चावल की जमाखोरी करना और बाद में ऊँचे दामों पर बेच कर मुनाफा कमाना इसका बडा कारण था। यह एक विडम्बनापूर्ण स्थिति थी कि बंगाल के पास अपनी जनता के लिए चावल का पर्याप्त भण्डार था लेकिन लोग इतने गरीब हो चुके थे कि खरीदने की स्थिति में नहीं थे। इस अकाल में चार लाख लोग भूख और कुपोषण से मरे। ब्रिटिश भारत में बार बार पड़ने वाले अकालों में यह सबसे भयंकर था। सुकान्त ने अपनी एक कविता में लिखा है कि उन्होंने जन्म से ही अपने देश को गरीब और पराधीन देखा है। ऐसे में अकाल की स्थिति और भी भयानक रूप ले लेती है। '' मेरे सोने के देश में शेष में अकाल आया''। '' भूख ने रास्ते के दोनो तरफ डेरा जमा लिया है।'' 'इतिहासकार' कविता में सुकान्त ने बंगाल के अकाल का कच्चा चिट्ठा सामने रखा है। इसमें एक तरफ पीड़ित सर्वहारा है , दूसरी तरफ जमाखोर पूँजीपति है जिनके गोदाम अनाजों से भरे पड़े हैं। कवि इस अकाल के कारण को लेकर आम आदमी की तरफ से सवाल पूछना चाहता है पर जबाव देने का साहस शासक- शोषक वर्ग के इतिहासकारों में नहीं है। उसमें उन अंग्रेज इतिहासकारों की भूमिका की पडताल है जो अकाल के कारणों पर साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से पन्ने पर पन्ने रँगे जा रहे थे-
आज आया हू¡ तुममें से प्रत्येक के घर-
धरती की अदालत का परवाना लेकर
तुम कैफियत दोगे क्या मेरे प्रश्नों की
क्यों पचासवें बरस में मौत पसरी थी
आज बावनवें बरस में क्या इसका जबाव दोगे?
जानता हू¡ स्तब्ध हो गई है अग्रगामी सोच
तभी दीर्घश्वास के धुए¡ से काला कर रहे हो भविष्य
ऐसा सवाल कोई जनकवि ही कर सकता था जो जानता हो कि कैसे साम्राज्यवादी सत्ताा की ताकत इतिहास की धारा को अपने अनुकूल मोड़ने की कोशिश करती है। ऐसे में रचनाकार कवि की रचनात्मकता में समय का इतिहास खोजा जा सकता है। इतिहास की मनमानी संकल्पनाओं की साक्षी बहुत बार जनता के बीच से निकली रचनाए¡ नहीं देतीं। इस अकाल के कारणों और स्थितियों को सुकान्त ने करीब से देखा था। स्वयंसेवक के रूप में किशोर सुकान्त राशन की दुकान पर जनता की लाइन लगवाया करते थे। सुकान्त अच्छी तरह देख रहे थे कि इस अकाल का सीधा संबंध भारत की पराधीन अवस्था से है। इसकी सच्चाई आजाद भारत की स्थिति से तुलना करके परखी जा सकती है। आजाद भारत की अन्य दिशाओं में उपलब्ध्यिों के अलावा यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि आजादी के बाद से यहा¡ कोई भी अकाल नहीं पड़ा। सुकान्त के लिए जैसे युध्द और अकाल दो अलग स्थितिया¡ न होकर एक दूसरे का बाई प्रोडक्ट हैं, उसी तरह से इनसे मुक्ति का परिप्रेक्ष्य भी राष्ट्रीय मुक्ति से अलग नहीं है। राष्ट्रीय मुक्ति का परिप्रेक्ष्य अकाल पर लिखते हुए कभी ओझल नहीं हुआ। सुकान्त नहीं चाहते कि अकाल के कारण पैदा हुआ जनाक्रोश केवल जठराग्नि की तृप्ति पर तुष्ट हो जाए। वे तत्कालीन अकाल की बड़ी प्रतिक्रिया जनता में चाहते हैं। चीनी , चावल , केरोसीन के लिए लाइन लगाने से बड़ी चीज है मुक्ति के लिए एकजुट होना। जनता के आह्वान के लिए कवि स्वयं को इतिहास में प्रक्षेपित कर लेता है।
'' मैं इतिहास हू¡ मेरी बात पर विचार करके देखो ''
अथवा
'' चावल , चीनी , कोयला, केरोसीन ?
इन सब दुष्प्राप्य चीजों के लिए लाईन लगानी होगी।
किन्तु समझे नहीं मुक्ति भी है दुर्लभ और बहुमूल्य
उसके लिए भी चाहिए चालीस करोड़ लंबी अविच्छिन्न एक लाईन।''
कवि सुकान्त की कविता में प्रकृति भी शान्त निर्मल नहीं है। वह भी जैसे कुछ कर गुजरने के लिए आंदोलित और तरंगायित है।
मैं इतिहास हूँ, मेरी बात पर विचार करो
याद रखो देर हो गई है, बहुत बहुत देर।
कल्पना करो आकाश में है एक ध्रुव नक्षत्र
नदी की धारा में है गति का निर्देश,
वन की मर्मर ध्वनि में है आंदोलन की भाषा,
और है पृथ्वी का चिर आवर्तन॥ (इतिहासकार½
मज़दूर, नंगी-भूखी जनता, शोषित किसान, धूर्त मध्यवर्ग, शोषक पूँजीपति , साम्राज्यवादी शक्तिया¡ , फासीवादी ताकतें, इनके खिलाफ लड़नेवाली उदीयमान शक्तिया¡ सब सुकान्त की कविता में मौजूद हैं। सबसे प्रमुख बात है कि यह जनता एकदम मूर्ख जनता नहीं है। अचेत है। जगाने की जरूरत है। अदम्य विश्वास है सुकान्त को मज़दूर की शक्ति पर। कहीं वे उसके व्यवहार पर खीझते हैं तो कहीं शाबासी में उसकी पीठ थपथपाते हैं। कल कारखानों के बीच कर्मरत मज़दूर का चित्र बड़े स्वाभाविक ढंग से कविता में आता है। यह मज़दूर जड़ भाग्यवादी नहीं है, इसके हृदय में संघर्ष की रणभेरी बज रही है।
'' यह देश आज है विपन्न, जानता हू¡ आज जीवन निरन्न-
दिन रात मृत्यु का साथ, निश्चित शत्रु का आक्रमण
चित्रित है खून की अल्पना, कानों में आर्तनाद के सुर
तब भी दृढ़ हँ मैं, मैं एक भूखा मज़दूर ।
मेरे सामने है केवल शत्रु एक, एक लाल पथ
शत्रु के हमलों और भूख से अनुप्राणित शपथ।
------------------------
मेरे हाथों के स्पर्श से रोज यंत्रों का गर्जन
याद कराता है प्रतिज्ञा, करता है अवसाद विसर्जन।'' (शत्रु एक½
कविता में मज़दूर की बदहाली है तो किसान भी उजड़ा हुआ है। विद्रोह की सफलता तभी संभव है जब मज़दूर और किसान एक होकर लड़ेंगे। अन्याय के विरूध्द किसान-मज़दूर लड़ते हैं तो कवि के प्राण हर्षित होते हैं।
इस बार लोगों के घर घर जायेगा
सुनहरा नहीं रक्त रंजित धान,
देखोगे सब, जल रहे हैं वहा¡
हू हू कर बांग्ला देश के प्राण।
( दूर्मर ½
कलकत्तो शहर में रहनेवाले सुकान्त ने किसान पर लिखा है, गाँव की प्रकृति, फसलों की शोभा पर लिखा है और घूँघट में छिपी कृषक वधू की आशा भरी आँखों पर भी लिखा है जो अकाल और भूखमरी के बाद सुनहले भविष्य की आशा कर रही है।
अचानक एक दिन पानी भरने गई
कृषकवधू ने रूक कर इधर उधर निहारा
लाज से घूँघट हटाकर उसने जैसे तैसे
देखा धानी फसलों में स्वर्ण युग का संकेत। ¼ चिरदिनेर ½
सुकान्त अपने समय के साथ और अपने प्रिय शहर कलकत्ताा के साथ किस तरह से जुड़े हुए थे इसका पता उनकी अनेक कविताओं में लगता है। रंगीन चमकदार कागज पर श्री भूपेन्द्रनाथ भट्ठाचार्य की भेजी शुभकामना का जबाव उन्होंने इन शब्दों में दिया है -
अंग्रेजी में मिली तुम्हारी दीवाली की शुभकामना
लेकिन मैं निरूत्साह , अन्यमना
सुख नहीं जरा भी, दीपावलि लगे निरूत्सव,
पथराई आँखों से स्वप्न देखता हूँ, शव केवल शव।
सोते हुए सुनता हू¡ कानों मेंर् आत्तानाद खाली,
रो रहा मुमुर्षू कलकत्ताा, रोए ढाका, नोआखालि,
सभ्यता पिस गई फैला बर्बरता का साम्राज्य
इस दुस्समय में लगे व्यर्थ शुभकामना ;
तब भी तुम्हारी रंगीन चिट्ठी का जबाव
देना होगा, वरना सोचोगे प्राणों का अभाव
धरती सूखे , डूबे रक्तप्लावन में।
तब भी तुम्हारा शुभ चाहूँगा मैं मन में,
फिर भी आज अलग से चाहता हू¡ तुम्हारी शान्ति तुम्हारा सुख
मन के अँधेरे कोनों में सौ सौ प्रदीप जलें,
यह दुर्योग कट जाएगा, रात और कितनी देर?
मिलेंगे हम सब, फिर वही विप्लव की टेर
धन नहीं है मेरे पास, रंग नहीं, नहीं रोशनाई-
केवल हैं छन्द, वही भेज रहा हू¡ शुभकामना में।''
(दिवाली½
सूर्य का आवाह्न करनेवाला , धूप के गीत गानेवाला , प्राणों की दीपावलि करनेवाला यह कवि वास्तव में उजास का कवि है, आशा का कवि है, जिजीविषा का कवि है। जब तक लड़ाई पूरी न हो थकना नहीं चाहता, उदास नहीं होना चाहता। स्थिरता से नफरत है, उदासी से घृणा। वह सूर्य से प्रार्थना करता है-
सूर्य, तुम्हें मैं आज निमंत्रित करता हू¡
दुर्बल मन है, दुर्बल काया,
मैं पुराने तालाब का स्थिर पानी
जगाओ मेरे हृदय में प्रतिच्छाया॥'' ¼ धूप का गीत ½
अपनी प्रत्येक कविता में मृत्यु और ध्वंस के खिलाफ दृढ़ भाव से खड़ा यह कवि अपने जीवन की लड़ाई का विजेता न बन सका। राजरोग यक्ष्मा से लड़ते लड़ते जीवनलीला समाप्त हुई। लेकिन कवि ने कब कहा था कि रण में जीतना जरूरी है ? लड़ना जरूरी है यह बार बार कहा। एक कविता में सुकान्त ने लिखा है-
प्रश्न नहीं जीत होगी या हार
प्रण है तोड़ना अत्याचारी जेलों के द्वार।
इतने दिन केवल बेड़ियों की सुनी है झन झन। (जनतार मुखे फोटे विद्युत्वाणी½
एक अन्य कविता में लिखा है कि यह दुनिया बड़ी समझदार है, व्यावहारिक है। नमनीय है। लचीली है। प्रत्येक क्षण अपने आदर्शों से समझौता करनेवालों की है। वही लोग ऊँचाई तक पहुँचते हैं जो ऐसा कर पाते हैं। आदर्शों और लक्ष्य पर चलनेवालों को दुनिया नासमझ का दर्जा देती है। यहा¡ प्रसिध्द लोगों की कीर्तिगाथाए¡ हैं। लेकिन हम तो विजेता नहीं हैं , हमारी कीर्तिगाथा यहा¡ कहा¡ होगी बन्धु हम तो असाधारण और दृढ़ के पुजारी हैं-
''जन्म से पहले ही काल ने ग्रसा ,
जीवन की धारा में हम बुद्बुद् हैं।
यह दुनिया है अत्यंत कौशलपूर्ण
हैं यहा¡ प्रसिध्दियों की नामावलियाँ]
हमारा स्थान नहीं रे वहाँ&
हम तो दृढ़ के पुजारी हैं, विजेता नहीं।'' (बुद्बुद् मात्र½



















किसान का गीत

इस बंजर मिट्टी की छाती चीर कर
अब फसल उगाऊँगा---------
मेरी इन बलिष्ठ भुजाओं से
आज इस बंजरता का संवाद है।
इस मिट्टी के गर्भ में आज मैंने
भावी पीढ़ी की, देखा है
साफ इशारे करते हुए
अकाल में दफन हुई अंतिम कब्र को देखा है :
मेरी प्रतिज्ञा सुनी है क्या ?
( गोपन एक प्रण )
इस मिट्टी से पैदा करूँगा मैं
असंख्य पल्टनों की फसल।
दोनों ऑंखों में
जन जीवन के विनाशकों के लिए है ध्वंस
मेरी प्रतिज्ञा है निर्माण करूँ
हजारों भूखे हाथ
दरवाजे पर दुश्मन के पगचाप हैं
मेरी मुटठी में मेरा दुस्साहस।
जोती हुई मिट्टी के रास्ते
नई सभ्यता का निर्माण करूँ।































पता

पता मेरा पूछा है दोस्त-
पता मेरा,
क्या तुम्हें आज भी न मिला? दिए हैं जो दु:ख क्षोभ न हो ?
पता न लिया दोस्त तुमने तो क्या,
गली गली में रहता हूँ,
कभी पेड़ के नीचे
कभी झोपड़ी में।
मैं एक यायावर
बीनता हूँ राह के कंकर
हजारों जनता जहाँ है ,वहाँ
मैं रोज जाता हूँ।
बन्धु घर का रास्ता ढूँढ नहीं पा रहा
रास्ते के कंकरों से बनाऊँगा
मजबूत इमारत।


दोस्त न देना आज और ज़ख्म
तुम्हारे दिए ज़ख्मों में,
मेरा पता खोजो
उगते हुए सूरज में।
इंडोनेशिया, युगोस्लाविया,
रूस और चीन में
मेरा पता बहुत दिनों से
है वहाँ।
मुझे क्या कभी खोजा है तुमने
देश में?
तब भी क्या नहीं मिला? मतलब
भटके हो गलत रास्तों पर
प्रलय ( दुर्भिक्ष ) के समय से
निशान हैं मेरे जीवन की राहों पर
कुछ दूर जाकर मुड़ गया है जो
पहले ही मुक्ति के रास्ते से।
दोस्त, सावधान यह कुहाशा
सूर्योदय के पहले का है
प्रकाश की आशा में स्वयं को जान अकेला
राह न भूल जाना।
दोस्त, जानता हूँ आज अशांत है,
रक्त, नदी का पानी,
घोसलों में पक्षी और समुंदर।
दोस्त देर हो रही है लेकिन
पता अभी भी नहीं मालूम
दोस्त तुम इतना भूलते कैसे हो?
और कितने दिन ऑंखे तरसेंगी, देखो
पाओगे मुझे जलियाँवाला के रास्ते पर
जलालाबाद होते हुए धर्मतल्ला के बाद
क्षुब्ध इस देश में
देखोगे पता लिखा मेरा हर घर पर।
दोस्त आज के लिए विदा !
देखो उठते हुए ऑंधी तूफान को
पता है मेरा वह,
फिर स्वतंत्र मेरे देश में मिलना मुझसे।






























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