स्त्री अस्मिता के आयाम
हिन्दी साहित्य में इन दिनों सन्नाटा है। चारों ओर लोग मुद्दे की तलाश में व्यस्त हैं किंतु मुददा मिल नहीं रहा। सच यह है कि मुद्दे जीवन में हैं और साहित्यकार जीवन को देखना ही नहीं चाहता। आज का सबसे ज्वलंत सवाल अस्मिता की व्याख्या से जुडा़ है। स्त्री ,स्त्री अस्मिता और स्त्री विमर्श अंतनिर्भर हैं। अस्मिता का सवाल व्यक्तिगत अस्मिता का सवाल नहीं है।यह सामाजिक अस्मिता का सवाल है। अस्मिता विमर्श में जो स्त्री है वह सार्वजनीन नहीं है। अनेक विचारक और लेखक हैं जो 'जेण्डर' को अराजनीतिक केटेगरी मानकर मादा प्राणी के रूप में उस पर लिखे जा रहे हैं। वे यह भूल ही गए हैं कि यह राजनीतिक विमर्श है। स्त्री अस्मिता के सवाल हों या स्त्री साहित्य के सवाल हों सबमें एक तत्व साझा है कि ये स्थिरता,कठमुल्लापन,शाश्वतता और कठमुल्लेपन को नकारता है। अस्मिता में प्रवेश काअर्थ है विषम सामाजिक संसार विमर्श में दाखिल होना। जिस तरह पश्चिम और पूरब में अंतर है वैसे ही इन देशों की औरत भी भिन्न है। पश्चिम के स्त्रीवाद और प्राच्य स्त्रीवाद में भी अंतर है। इसकी अनेक ध्वनियां हैं,रंग हैं और विचारधारात्मक पैराडाइम हैं। मूल बात स्त्री एक नहीं अनेक है। उसकी एक नहीं अनेक विचारधाराएं हैं।उसके मूल्यांकन के लिए एकायामी पद्धितशास्त्र मदद नहीं करता बल्कि अन्तविषयवर्ती पद्धतिशास्त्र मदद करता है। स्त्री अस्मिता के लिए सबसे बड़ी चुनौती पितृसत्तात्मक मूल्यों,संबंधों और विचारधारा से आ रही है।
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