आधुनिकता के अधूरे प्रकल्प में कहानी और यथार्थ
कहानी का उद्भव बताते हुए भारतीय परंपरा में चाहे जातक या पंचतंत्र की कथाओं में जाएं या कथासरित्सागर में एक बात जरूर ध्यान रखने की है कि इन कहानियों का संसार एकांगी नहीं है। सबकी भागीदारी है। उस समय के समाज का पूरा ढाँचा ,संबंध और प्रतिनिधित्व मौजूद है। यानी देखा और जिया गया संसार है और उस पर पुरा हुआ रूपक-प्रतीकों की एक दुनिया है। इन सबसे ऊपर है कभी न खत्म होनेवाली कथा। कल्पना के रुमानी पंखों से सजी हुई। अर्थात इस बहस का कोई अर्थ नहीं कि कहानी को यथार्थवाद ने कितना नुकसान पहुँचाया !
यथार्थ के बिना कहानी नहीं बनती ठीक वैसे ही जैसे कोरी कल्पना कहानी का आधार नहीं हो सकती। मनोवैज्ञानिक निश्कर्षों पर जाएं तो कल्पना भी यथार्थ का एक हिस्सा है। यहाँ चूँकि बहस का यह मुद्दा नहीं है इसलिए मैं अपनी बात इस बिन्दु तक सीमित रखना चाहूँगी कि केवल 'आर्टिफैक्ट' कहानी नहीं हो सकता। यह वैसा ही होगा कि मंडप सजा दिया जाए और दूल्हा-दुल्हन का पता न हो। तय मानिए ऐसी स्थिति में बाराती भी नहीं आएंगे ! कायदे से हमें मात्रा पर विचार करना चाहिए। इसमें आनुपातिक संबंध होना चाहिए।
यहीं कथा के मानकों के आधार पर बहिष्करण के प्रारूप पर भी विचार कर लेना चाहिए। अब तक की कथा आलोचना इसी पैटर्न पर विकसित की गई है। यह एकांगी दृष्टि का प्रचार करनेवाली और बहिष्कारमूलक है !
यथार्थ के साथ ही अनुभूति का यथार्थ भी जुड़ा हुआ है। अनुभूति के यथार्थ पर गंभीर बहस प्रयोगवाद और नई कविता-कहानी के दौर में हुई है। इसका एक राजनीतिक कोण भी है। और निराधार नहीं है। आलोचकों को इस पर विचार करना चाहिए कि अनुभूति की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता की बहस ने हिन्दी कथासाहित्य के मूल्यांकन को कितनी दूर तक प्रभावित किया है। इस विषय में आलोचना की चुप्पी की कोई राजनीति है ? अब समय आ गया है कि हम वस्तुगत (जितना संभव हो सके) ढंग से अपने दूर-पास के कथा-मानकों पर विचार करें। जो कुछ रह गया है, जिस पर बात ही नहीं हुई है, उन क्षेत्रों पर बात करें। हम पाएंगे कि इसी बातचीत में से समकालीन कहानी के प्रतिमान भी निकल रहे हैं।
अनुभूति की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की बहस ने इस तथ्य को भूला दिया कि स्त्री का लिखा अनुभवजनित होता है। उसके लिखे में उसका अनुभव बोलता है। स्त्री-लेखन आत्मीय भाव से भरा होता है। स्त्री की कोई शैली हो सकती है तो वह 'आत्मीय शैली' है।
नामवर सिंह का छायावाद की विषेशताएं गिनाते हुए यह कहना ग़लत है कि छायावाद आज भी अच्छा लगता है क्योंकि वह आत्मीयता का काव्य है। यह आत्मीयता स्त्रियों का गुण है, आत्मीय शैली भी उन्हीं की है , छायावाद में यदि यह शैली है तो यह स्त्रियों का छायावाद पर उधार है। साथ ही स्त्री की छायावाद में बदलती हुई छवि का संकेतक है।
आधुनिकतावादियों का स्त्री को लेकर संवेदनशील रवैया रहा है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के यहाँ औरत की छवि इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। रवीन्द्रनाथ ने अपने साहित्य के जरिए औरत के संबंध में समाज के संवेदनशील रवैये की बात की है। इस प्रसंग में हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथा-साहित्य कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। स्त्री के प्रति संवेदनशीलता उसका एक हिस्सा है।
जहाँ तक अनुभवपरक साहित्य का मुद्वा है किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अनुभव आधारित कहानियाँ तो प्रयोगवाद के पहले भी लिखी जा रहीं थीं ; औरतें लगातार यह काम कर रहीं थीं पर स्त्री के लिखे को कभी महत्वपूर्ण लेखन में शामिल ही नहीं किया गया। तब अनुभव की नहीं शास्त्रीयता की बात की जा रही थी। कहानी के गुण क्या-क्या होने चाहिए, उसमें कौन-कौन से तत्व होने चाहिए। इन 'गुणों' के आधार पर स्त्री की कहानी को चर्चा से बाहर रखा गया। कहानी के युगों का नामकरण कभी किसी स्त्री के नाम पर नहीं किया गया। इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्रियाँ नहीं लिख रहीं थीं या बुरा लिख रही थीं।
हिन्दी कहानी के आरंभ से ही स्त्रियों ने लगातार इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन इन पर कभी चर्चा नहीं हुई। इसका संबंध मानक के निर्माण से है। श्रेष्ठ और कम श्रेष्ठ कहानी के मानक तय कर दिए गए। स्त्री उसमें अपने आप बाहर हो गई। महादेवी की अनुभवाश्रित कहानियों को 'संस्मरण' और 'रेखाचित्र' कहा गया, प्रसाद की ऐतिहासिक कलेवर वाली और निराला की कल्पनाप्रधान कहानियों को कहानी का दर्जा दिया गया। प्रेमचंद और प्रसाद की कहानियों के नाम को रोते रहे कि इनमें यथार्थ नहीं है और निराला की कहानियों में कहानीपन का अभाव आलोचकों को सालता रहा पर रखी गईं वे कहानियों के दायरे में ही।
कायदे से हिन्दी में अनुभव की प्रामाणिकता की बहस को पहले उठना चाहिए था जब औरतों की कहानी को चूल्हे-चक्की की कहानी या संकीर्ण अनुभव की कहानी कहकर अघोषित तौर पर चर्चा से बाहर रखा गया , खारिज किया गया। इस राजनीति पर तब न यथार्थवादियों ने बोलने की जरूरत समझी न आगे चलकर कलावादियों ने। अनुभूति की राजनीति करना एक बात है और अनुभव आधारित कहानी लिखना दूसरी।
यह यथार्थ के सार्वभौमत्व का दौर नहीं है। सार्वभौमत्व का दौर खत्म हो गया है। यह यथार्थ की विशिष्टताओं का दौर है। यह 'छोटा' यथार्थ है लेकिन यथार्थ है। इस छोटे यथार्थ ने हमारा ध्यान कई नई दिशाओं की ओर खींचा है। जिसमें स्त्री और दलित कथा-लेखन शामिल है। इसने कहानी के मूल्यांकन के नजरिए को बदला है। अब कहानी के प्रतिमानों को बताते हुए 'आधुनिक', 'यथार्थवादी', 'जादुई यथार्थवादी' जैसी कोटियों से काम नहीं चलेगा। अनुपस्थित की तलाश करनी होगी। कथा में और कथा के बाहर भी। चुप्पी, अलगाव ,प्रतिरोध, जिजीविषा , संघर्ष, परिवार-समाज की भूमिकाएं देखनी होंगी। रूप पर नए सिरे से बात करनी होगी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि साम्राज्यवाद जहाँ-जहाँ गया है उसने वहाँ-वहाँ यथार्थवाद की बहस को हवा दी है। पहले से मौजूद साहित्यिक विमर्श के रूप को बदला है। जातीय साहित्य-रूपों ने अपनी सत्ता खोई है।
यथार्थवाद-रूपवाद, प्रतिनिधि चरित्र-टाईप चरित्र , शोषण-ग़रीबी का चित्रण जैसे मुद्दे साहित्य के केन्द्रीय मुद्दे बने हैं। लिंगभेद, नस्लवाद, राष्ट्रवाद -घूम-फिरकर इन्हीं मुद्वों पर बहस हुई है। साहित्य का सुख-दुख का साथी होने का भाव, जीवन के उल्लास का रूप, बृहत्तर मानवीय सरोकार गायब हैं।
आज सच्चाई यह है कि कहानी से 'ट्रैजेडी' ग़ायब है। फार्मूलाबध्द तरीके से केवल शोषक-शोषित के खाँचे तय कर देने और शोषण का दुर्दान्त चित्र खींच देने से कहानी नहीं बनती। कहानी बनती है ट्रैजेडी के शिकार लोगों के बोलने से , उनके अनुभवों को कहानी में जगह देने से। ट्रैजिक स्थितियों का कहानी में चित्र हो, लेकिन ट्रैजिक अनुभव गूँगा हो तो कहानी नहीं बनती। 'कफन' कहानी के शिल्प और विषयवस्तु का खूब महिमामय विश्लेषण हुआ है। कहानी का हर आलोचक 'कफन' पर लिखकर ही आलोचनाकर्म के कुंभ-स्नान को पूरा हुआ मानता है। लेकिन इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि यथार्थ के स्थिति-चित्रण और यथार्थ के कहानी में रूपायन से रचना यथार्थपरक नहीं होती बल्कि उस यथार्थ के शिकार या प्रभावित पात्र के अनुभवों को कहानी में बोलना चाहिए।
'कफन' की ट्रैजेडी बुधिया की ट्रैजेडी है, बुधिया गूँगी भी नहीं है ,पशु भी नहीं कि बोल न सके। लेकिन पूरी कहानी में वह चुप है। कुछ है तो प्रसव-पीड़ा में उसकी चीख और मौत की शाश्वत चुप्पी ! इसी तरह से 20वीं सदी में सती प्रथा पर खूब बहस हुई। लेकिन हमें यह नहीं मालूम कि 'सती' क्या बोलती है। राजा राममोहन बोल रहें हैं सती नहीं बोल रही ! औरत के नजरिए से समस्या को नहीं देखा गया। इसी तरह दलित लेखन की स्थिति है। जिसके साथ घट रही है वह नहीं बोल रहा। कहने का मतलब कि दर्शक के नजरिए से साहित्य लिखा जा रहा है। फलत: यथार्थ का चित्रण करने के बावजूद कहानी हस्तक्षेप के लिए बाध्य नहीं करती।
वास्तविकता और कहानी का संबंध या कहानी से यथार्थ स्थितियों में हस्तक्षेप की मांग लगातार की जाती है। यह प्रश्न किया जाता है कि कहानी का प्रभाव क्यों नहीं होता। कहानी आंदोलन क्यों नहीं बन जाती ? कहानी के नाम को दहाड़ें मार-मारकर रो रहे हैं कि इसका जीवन से संबंध नहीं है। यह क्रांतिवाही मशाल नहीं बन रही। कोई आंदोलन या घटना होती है तो उसका कहानी में प्रतिबिंबन क्यों नहीं ?
यह ध्यान रखें कि आंदोलन का कहानी से कोई मैकेनिकल संबंध नहीं होता है। कहानी सामाजिक रवैये को बनाती है। सामाजिक रवैये में आंदोलन के जरिए कोई बदलाव आया है कि नहीं यह महत्वपूर्ण है। यदि सामाजिक रवैया बदलता है तो कहानी भी बदलेगी। जीवन की कठोर वास्तविकताओं को संबोधित करने से कहानी , कहानी बनती है। कहानी वहाँ नहीं बनती जहाँ हम जीवनशैली को संबोधित करते हैं। जीवनशैली को संबोधित करते हुए पाठक को 'उपभोक्ता' में बदल दिया जाता है। हमें कहानी के 'उपभोक्तावाद' से बचना चाहिए।
कठोर वास्तविकता के चित्रण का एक वैकल्पिक तरीका हजारीप्रसाद द्विवेदी का है। अमूमन हिन्दी में यथार्थ संबंधी जितनी भी बहस हुई हैं वह प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों को केन्द्र में रखकर हुई है। प्रेमचंद ने यथार्थ की इतनी बड़ी लकीर खींच दी कि वैकल्पिक यथार्थ की संभावनाएं खत्म-सी हो गईं। द्विवेदी जी के औपन्यासिक यथार्थ और षिल्प पर बात ही नहीं हुई। जबकि सच्चाई है कि द्विवेदीजी यथार्थ के साम्रज्यवादी एजेण्डे से अपने कथा-साहित्य को मुक्त रखते हैं। यथार्थ के बने-बनाए ख्रांचे से बाहर कथा की विषयवस्तु का चयन करते हैं और उसके अनुरूप ही उसका शिल्प चुनते हैं। द्विवेदीजी का सबसे चर्चित उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' का नायक बाण पुरुष है पर कथा स्त्री के संदर्भ से कही गई है। जिस तरह का देशकाल-वातावरण द्विवेदीजी ने चुना है वह उस समय कहीं नहीं है। जैसी भाषा चुनी है वह प्रचलन में नहीं है। जो समस्या उठाई है वह साहित्यिकों के एजेण्डे में नहीं है। एकमात्र समस्या है स्त्री के उध्दार की। इसमें कहाँ तक सफल हैं या असफल यह अलग बात है। बाण बौध्दिक नायक है, पागल या आवारा नहीं।
आज रचना के सामने सबसे बड़ी चुनौती पाठक तैयार करने की है। द्विवेदीजी बराबर इस बात पर जोर देते रहे कि लेखक को अपना पाठकवर्ग तैयार करना चाहिए। द्विवेदीजी के अनुसार आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाए, बल्कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए पाठक को कैसे तैयार किया जाए। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रचना के नए मानक तैयार किए हैं। वे साहित्य को गप्प मानते हैं। रचना मुख्यत: विनोद है। 'गप्प' को द्विवेदीजी ने अपने उपन्यासों में रचा है। यह कल्पसृष्टि है पर यथार्थ से रहित नहीं।
द्विवेदीजी ने यथार्थ का चयन साम्राज्यवाद के एजेण्डे से नहीं किया है। वे जातीय गप्प रचते हैं और इसमें ऐतिहासिकता , स्मृति और अस्मिता के विमर्श को सामने लाते हैं। पूर्वाख्यानों का प्रयोग करते हैं और कथा के सूत्र एक-दूसरे से गूँथते हुए दिखाई देते हैं। वे संस्कृति को साम्राज्यवादी हमले और वर्चस्व की राजनीति से बाहर रखकर विवेचित करते हैं। द्विवेदीजी की खासियत है कि वे लिंगभेद की साम्राज्यवादी धारणा कि लिंग स्वाभाविक है को अस्वीकार करते हैं। याद कीजिए 'अनामदास का पोथा ' या 'बाणभट्ट की आत्मकथा'।
लिंग होता नहीं है बनाया जाता है। यह सामाजिक निर्मिति है। द्विवेदीजी स्त्री तत्व और पुरुष तत्व की बात करते हैं। बाणभट्ट में स्त्री तत्व ज्यादा जागृत है। लिंगभेद , राष्ट्रवाद, नस्ल, बायोलॉजी आदि से जोड़कर साम्राज्यवाद ने संस्कृति का विमर्श पेश किया है। द्विवेदीजी ने साम्राज्यवाद के विमर्श से इतर संस्कृति के विमर्श को ज्ञान और प्रतिरोध के हथियार के रूप में देखा है। संस्कृति को 'खोज' के जरिए नहीं बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से परंपरा की निरंतरता के क्रम में पढ़ा जाना चाहिए। भारतीय समाज और संस्कृति का एक रूप वह है जिसे द्विवेदीजी भारतीय प्रतीकों , इमेजों, अवधारणाओं में सामने लाते हैं। इस क्रम में भारतीय कथा की परंपरा और आधुनिक दिशा की पहचान के रूप में चार औपन्यासिक कृतियाँ हिन्दी जगत् को देते हैं। पाठात्मकता के देशज रूपों को सामने लाते हैं। उपन्यास को जिस रूप में 'कंसीव' करते हैं वह उपन्यास के ढाँचे के बारे में साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक आधारों का निषेध है।
साम्राज्यवादी धारणा उपन्यास के 'सार्वभौमत्व' को महत्वपूर्ण मानती है। द्विवेदीजी के चारों उपन्यास 'सार्वभौमत्व' की धारणा का निषेध करते हैं। कथानक, पात्र, चित्रण ,परिवेश किसी भी कोटि से द्विवेदीजी का औपन्यासिक कृतित्व साम्राज्यवाद के दायरे में नहीं आता। प्रेम-कथा के जरिए वे शासक और शासित का फर्क मिटा देते हैं। प्रेम को प्रतिवाद की भाषा में प्रस्तुत करते हैं।
साम्राज्यवादी विमर्शों में भारत की भिन्नताओं को गहराई से उभारा गया है। द्विवेदीजी के यहाँ आदान-प्रदान , साझेपन, संस्कृति की अंतनिर्भरता पर जोर है। ऐसा करते हुए अतीत के प्रति किसी तरह का विमोह पैदा नहीं करते। अपदस्थीकरण और असहमति के तत्व का व्यापक इस्तेमाल करते हैं। जाति नहीं एथनिक पहचान , पेशे पर जोर देते हैं। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में जनप्रिय मसलों पर बात , भाषा का यह रूप विचार और भाषा की अनंत भूख पैदा करती है। यह जातीय भाषा के चक्करों में नहीं पड़ती।
यह हिन्दी कथा साहित्य की नई दिशा थी लेकिन औपनिवेशिक विमर्श के साम्राज्यवादी एजेण्डे ने भारतीय बौध्दिकता को जकड़ रखा था। वह द्विवेदीजी के संकेतों को अपना नहीं सकी। राहुल के अलावा और किसी के यहाँ भाषा, चिन्तन और सांस्कृतिक विमर्श का यह रूप दिखाई नहीं देता।
आज की कहानी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपना वृतान्त खो रही है, स्मृति खो रही है, आनंद खो रही है, ट्रैजेडी खो रही है। इन्हें हासिल करना उनका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। आज रचना का संदर्भ प्रेस और अखबार नहीं बना रहा ; सैटेलाईट और टेलीविजन बना रहा है।
समकालीन कहानी को बड़ी चुनौती कथा के भीतर से मिल रही है उससे कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती कथा के बाहर से मिल रही है। मीडिया के संप्रसार के इस दौर में मनोरंजन और अवकाश का एकमात्र साथी कहानी नहीं रह गया है। सच कहें तो मीडिया ने 'मनोरंजन' और 'अवकाश' की परिभाषा बदल दी है।
आज अवकाश काम का विपयर्य नहीं बल्कि काम की पूर्व तैयारी है। खाली समय हमारे पास नहीं है। ऐसे में कहानी के लिए जगह बनाना अपने आप में चुनौती है। दूसरी चीज कि मीडिया अंतहीन कहानी है। मीडिया में कहानी का 'सागा' चलता रहता है। चाहे मनोरंजन के चैनल हों या खबरिया चैनल अथवा रियलिटी चैनल , सब पर एक से अधिक कहानी चलती रहती है। ये सभी कहानियाँ सातत्य में होती हैं और संपूरक भी। इनकी एक-दूसरे पर अंतनिर्भरता बनी रहती है।
'परजानिया' में काम करनेवाली नायिका भारत-पाक संबंधों पर आधारित एनडीटीवी के पैनल डिस्कशन में भी बोलेगी और 'हंसेगा इंडिया' में निर्णायक बनी राखी सावंत के आनेवाले सीरियल 'हमारी बहू राखी सावंत' का स्क्रिप्ट और चरित्र लाफ्टर शो में छाया रहेगा। 'सनसनी', 'वारदात',' डायल 100' जैसे कार्यक्रम सत्यकथाओं की भूख को तृप्त करते हैं। यानी टीवी एक बड़ा कहानीकार है। वह छोटे-छोटे आख्यानों के जरिए 'बड़े नैरेषन' की तलाष में रहता है। यह दीगर बात है कि बड़ा नैरेशन बन नहीं रहा। नट, बाजीगर, साधू, बाबा, नेता, राजनेता ,अभिनेता सब टेलीविजन में चरित्र हैं। माध्यम के रूप में अखबार, रेडियो या फिल्म से कहानी को इतनी चुनौती नहीं मिली जितनी कांटे की टक्कर टेलीविजन दे रहा है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि टेलीविजन कहानी को खा जाएगा। कहानी रहेगी क्योंकि मीडिया कभी पुराने रूपों को नष्ट नहीं करता। समकालीन कहानी को इस सत्य के रू-ब-रू अपने प्रतिमान गढ़ने होंगे क्योंकि पुराने प्रतीकों के देवता बहुत पहले ही कूच कर गए हैं। मैदान खाली है लेकिन सरपट भी !
बाख्तिन ने उपन्यास पर विचार करते हुए कहा था कि आज कहानी के लिए मानकीकरण या वर्गीकरण सबसे बेकार की चीज है। जब तक हम मानक बनाते हैं सत्य बदल जाता है। इसलिए अच्छा है कि कहानी को कहानी रहने दिया जाए। समकालीन कहानी में 'अंतहीनता' और 'सातत्य' की संवृत्तियाँ जनमाध्यमों विशेषत: टेलीविजन के दबाव से पैदा हुई हैं। आज पाठक के पास अनेक विकल्प हैं। तू नहीं और सही और नहीं और सही। वह सूचनाओं की जाँच भी एक से अधिक स्त्रोतों से कर सकता है। इस स्थिति ने कहानी में ' यथार्थ ' के रूप को बदला है। आधुनिकता के प्रकल्प की यह खासियत है कि वह कभी पूरा नहीं होता। उसे कभी पूर्ण प्रकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह हमेशा एक अधूरा प्रकल्प है। इसलिए आधुनिक कहानी हमेशा अधूरी होगी। उसके प्रतिमान तभी स्थिर किए जा सकते हैं जब कहानी स्थिर हो जाए। ऐसा न हो तो बेहतर !
यथार्थ के बिना कहानी नहीं बनती ठीक वैसे ही जैसे कोरी कल्पना कहानी का आधार नहीं हो सकती। मनोवैज्ञानिक निश्कर्षों पर जाएं तो कल्पना भी यथार्थ का एक हिस्सा है। यहाँ चूँकि बहस का यह मुद्दा नहीं है इसलिए मैं अपनी बात इस बिन्दु तक सीमित रखना चाहूँगी कि केवल 'आर्टिफैक्ट' कहानी नहीं हो सकता। यह वैसा ही होगा कि मंडप सजा दिया जाए और दूल्हा-दुल्हन का पता न हो। तय मानिए ऐसी स्थिति में बाराती भी नहीं आएंगे ! कायदे से हमें मात्रा पर विचार करना चाहिए। इसमें आनुपातिक संबंध होना चाहिए।
यहीं कथा के मानकों के आधार पर बहिष्करण के प्रारूप पर भी विचार कर लेना चाहिए। अब तक की कथा आलोचना इसी पैटर्न पर विकसित की गई है। यह एकांगी दृष्टि का प्रचार करनेवाली और बहिष्कारमूलक है !
यथार्थ के साथ ही अनुभूति का यथार्थ भी जुड़ा हुआ है। अनुभूति के यथार्थ पर गंभीर बहस प्रयोगवाद और नई कविता-कहानी के दौर में हुई है। इसका एक राजनीतिक कोण भी है। और निराधार नहीं है। आलोचकों को इस पर विचार करना चाहिए कि अनुभूति की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता की बहस ने हिन्दी कथासाहित्य के मूल्यांकन को कितनी दूर तक प्रभावित किया है। इस विषय में आलोचना की चुप्पी की कोई राजनीति है ? अब समय आ गया है कि हम वस्तुगत (जितना संभव हो सके) ढंग से अपने दूर-पास के कथा-मानकों पर विचार करें। जो कुछ रह गया है, जिस पर बात ही नहीं हुई है, उन क्षेत्रों पर बात करें। हम पाएंगे कि इसी बातचीत में से समकालीन कहानी के प्रतिमान भी निकल रहे हैं।
अनुभूति की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की बहस ने इस तथ्य को भूला दिया कि स्त्री का लिखा अनुभवजनित होता है। उसके लिखे में उसका अनुभव बोलता है। स्त्री-लेखन आत्मीय भाव से भरा होता है। स्त्री की कोई शैली हो सकती है तो वह 'आत्मीय शैली' है।
नामवर सिंह का छायावाद की विषेशताएं गिनाते हुए यह कहना ग़लत है कि छायावाद आज भी अच्छा लगता है क्योंकि वह आत्मीयता का काव्य है। यह आत्मीयता स्त्रियों का गुण है, आत्मीय शैली भी उन्हीं की है , छायावाद में यदि यह शैली है तो यह स्त्रियों का छायावाद पर उधार है। साथ ही स्त्री की छायावाद में बदलती हुई छवि का संकेतक है।
आधुनिकतावादियों का स्त्री को लेकर संवेदनशील रवैया रहा है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के यहाँ औरत की छवि इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। रवीन्द्रनाथ ने अपने साहित्य के जरिए औरत के संबंध में समाज के संवेदनशील रवैये की बात की है। इस प्रसंग में हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथा-साहित्य कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। स्त्री के प्रति संवेदनशीलता उसका एक हिस्सा है।
जहाँ तक अनुभवपरक साहित्य का मुद्वा है किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अनुभव आधारित कहानियाँ तो प्रयोगवाद के पहले भी लिखी जा रहीं थीं ; औरतें लगातार यह काम कर रहीं थीं पर स्त्री के लिखे को कभी महत्वपूर्ण लेखन में शामिल ही नहीं किया गया। तब अनुभव की नहीं शास्त्रीयता की बात की जा रही थी। कहानी के गुण क्या-क्या होने चाहिए, उसमें कौन-कौन से तत्व होने चाहिए। इन 'गुणों' के आधार पर स्त्री की कहानी को चर्चा से बाहर रखा गया। कहानी के युगों का नामकरण कभी किसी स्त्री के नाम पर नहीं किया गया। इसका यह अर्थ नहीं कि स्त्रियाँ नहीं लिख रहीं थीं या बुरा लिख रही थीं।
हिन्दी कहानी के आरंभ से ही स्त्रियों ने लगातार इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन इन पर कभी चर्चा नहीं हुई। इसका संबंध मानक के निर्माण से है। श्रेष्ठ और कम श्रेष्ठ कहानी के मानक तय कर दिए गए। स्त्री उसमें अपने आप बाहर हो गई। महादेवी की अनुभवाश्रित कहानियों को 'संस्मरण' और 'रेखाचित्र' कहा गया, प्रसाद की ऐतिहासिक कलेवर वाली और निराला की कल्पनाप्रधान कहानियों को कहानी का दर्जा दिया गया। प्रेमचंद और प्रसाद की कहानियों के नाम को रोते रहे कि इनमें यथार्थ नहीं है और निराला की कहानियों में कहानीपन का अभाव आलोचकों को सालता रहा पर रखी गईं वे कहानियों के दायरे में ही।
कायदे से हिन्दी में अनुभव की प्रामाणिकता की बहस को पहले उठना चाहिए था जब औरतों की कहानी को चूल्हे-चक्की की कहानी या संकीर्ण अनुभव की कहानी कहकर अघोषित तौर पर चर्चा से बाहर रखा गया , खारिज किया गया। इस राजनीति पर तब न यथार्थवादियों ने बोलने की जरूरत समझी न आगे चलकर कलावादियों ने। अनुभूति की राजनीति करना एक बात है और अनुभव आधारित कहानी लिखना दूसरी।
यह यथार्थ के सार्वभौमत्व का दौर नहीं है। सार्वभौमत्व का दौर खत्म हो गया है। यह यथार्थ की विशिष्टताओं का दौर है। यह 'छोटा' यथार्थ है लेकिन यथार्थ है। इस छोटे यथार्थ ने हमारा ध्यान कई नई दिशाओं की ओर खींचा है। जिसमें स्त्री और दलित कथा-लेखन शामिल है। इसने कहानी के मूल्यांकन के नजरिए को बदला है। अब कहानी के प्रतिमानों को बताते हुए 'आधुनिक', 'यथार्थवादी', 'जादुई यथार्थवादी' जैसी कोटियों से काम नहीं चलेगा। अनुपस्थित की तलाश करनी होगी। कथा में और कथा के बाहर भी। चुप्पी, अलगाव ,प्रतिरोध, जिजीविषा , संघर्ष, परिवार-समाज की भूमिकाएं देखनी होंगी। रूप पर नए सिरे से बात करनी होगी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि साम्राज्यवाद जहाँ-जहाँ गया है उसने वहाँ-वहाँ यथार्थवाद की बहस को हवा दी है। पहले से मौजूद साहित्यिक विमर्श के रूप को बदला है। जातीय साहित्य-रूपों ने अपनी सत्ता खोई है।
यथार्थवाद-रूपवाद, प्रतिनिधि चरित्र-टाईप चरित्र , शोषण-ग़रीबी का चित्रण जैसे मुद्दे साहित्य के केन्द्रीय मुद्दे बने हैं। लिंगभेद, नस्लवाद, राष्ट्रवाद -घूम-फिरकर इन्हीं मुद्वों पर बहस हुई है। साहित्य का सुख-दुख का साथी होने का भाव, जीवन के उल्लास का रूप, बृहत्तर मानवीय सरोकार गायब हैं।
आज सच्चाई यह है कि कहानी से 'ट्रैजेडी' ग़ायब है। फार्मूलाबध्द तरीके से केवल शोषक-शोषित के खाँचे तय कर देने और शोषण का दुर्दान्त चित्र खींच देने से कहानी नहीं बनती। कहानी बनती है ट्रैजेडी के शिकार लोगों के बोलने से , उनके अनुभवों को कहानी में जगह देने से। ट्रैजिक स्थितियों का कहानी में चित्र हो, लेकिन ट्रैजिक अनुभव गूँगा हो तो कहानी नहीं बनती। 'कफन' कहानी के शिल्प और विषयवस्तु का खूब महिमामय विश्लेषण हुआ है। कहानी का हर आलोचक 'कफन' पर लिखकर ही आलोचनाकर्म के कुंभ-स्नान को पूरा हुआ मानता है। लेकिन इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि यथार्थ के स्थिति-चित्रण और यथार्थ के कहानी में रूपायन से रचना यथार्थपरक नहीं होती बल्कि उस यथार्थ के शिकार या प्रभावित पात्र के अनुभवों को कहानी में बोलना चाहिए।
'कफन' की ट्रैजेडी बुधिया की ट्रैजेडी है, बुधिया गूँगी भी नहीं है ,पशु भी नहीं कि बोल न सके। लेकिन पूरी कहानी में वह चुप है। कुछ है तो प्रसव-पीड़ा में उसकी चीख और मौत की शाश्वत चुप्पी ! इसी तरह से 20वीं सदी में सती प्रथा पर खूब बहस हुई। लेकिन हमें यह नहीं मालूम कि 'सती' क्या बोलती है। राजा राममोहन बोल रहें हैं सती नहीं बोल रही ! औरत के नजरिए से समस्या को नहीं देखा गया। इसी तरह दलित लेखन की स्थिति है। जिसके साथ घट रही है वह नहीं बोल रहा। कहने का मतलब कि दर्शक के नजरिए से साहित्य लिखा जा रहा है। फलत: यथार्थ का चित्रण करने के बावजूद कहानी हस्तक्षेप के लिए बाध्य नहीं करती।
वास्तविकता और कहानी का संबंध या कहानी से यथार्थ स्थितियों में हस्तक्षेप की मांग लगातार की जाती है। यह प्रश्न किया जाता है कि कहानी का प्रभाव क्यों नहीं होता। कहानी आंदोलन क्यों नहीं बन जाती ? कहानी के नाम को दहाड़ें मार-मारकर रो रहे हैं कि इसका जीवन से संबंध नहीं है। यह क्रांतिवाही मशाल नहीं बन रही। कोई आंदोलन या घटना होती है तो उसका कहानी में प्रतिबिंबन क्यों नहीं ?
यह ध्यान रखें कि आंदोलन का कहानी से कोई मैकेनिकल संबंध नहीं होता है। कहानी सामाजिक रवैये को बनाती है। सामाजिक रवैये में आंदोलन के जरिए कोई बदलाव आया है कि नहीं यह महत्वपूर्ण है। यदि सामाजिक रवैया बदलता है तो कहानी भी बदलेगी। जीवन की कठोर वास्तविकताओं को संबोधित करने से कहानी , कहानी बनती है। कहानी वहाँ नहीं बनती जहाँ हम जीवनशैली को संबोधित करते हैं। जीवनशैली को संबोधित करते हुए पाठक को 'उपभोक्ता' में बदल दिया जाता है। हमें कहानी के 'उपभोक्तावाद' से बचना चाहिए।
कठोर वास्तविकता के चित्रण का एक वैकल्पिक तरीका हजारीप्रसाद द्विवेदी का है। अमूमन हिन्दी में यथार्थ संबंधी जितनी भी बहस हुई हैं वह प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों को केन्द्र में रखकर हुई है। प्रेमचंद ने यथार्थ की इतनी बड़ी लकीर खींच दी कि वैकल्पिक यथार्थ की संभावनाएं खत्म-सी हो गईं। द्विवेदी जी के औपन्यासिक यथार्थ और षिल्प पर बात ही नहीं हुई। जबकि सच्चाई है कि द्विवेदीजी यथार्थ के साम्रज्यवादी एजेण्डे से अपने कथा-साहित्य को मुक्त रखते हैं। यथार्थ के बने-बनाए ख्रांचे से बाहर कथा की विषयवस्तु का चयन करते हैं और उसके अनुरूप ही उसका शिल्प चुनते हैं। द्विवेदीजी का सबसे चर्चित उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' का नायक बाण पुरुष है पर कथा स्त्री के संदर्भ से कही गई है। जिस तरह का देशकाल-वातावरण द्विवेदीजी ने चुना है वह उस समय कहीं नहीं है। जैसी भाषा चुनी है वह प्रचलन में नहीं है। जो समस्या उठाई है वह साहित्यिकों के एजेण्डे में नहीं है। एकमात्र समस्या है स्त्री के उध्दार की। इसमें कहाँ तक सफल हैं या असफल यह अलग बात है। बाण बौध्दिक नायक है, पागल या आवारा नहीं।
आज रचना के सामने सबसे बड़ी चुनौती पाठक तैयार करने की है। द्विवेदीजी बराबर इस बात पर जोर देते रहे कि लेखक को अपना पाठकवर्ग तैयार करना चाहिए। द्विवेदीजी के अनुसार आज की सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि अच्छी बात कैसे कही जाए, बल्कि अच्छी बात को सुनने और मानने के लिए पाठक को कैसे तैयार किया जाए। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रचना के नए मानक तैयार किए हैं। वे साहित्य को गप्प मानते हैं। रचना मुख्यत: विनोद है। 'गप्प' को द्विवेदीजी ने अपने उपन्यासों में रचा है। यह कल्पसृष्टि है पर यथार्थ से रहित नहीं।
द्विवेदीजी ने यथार्थ का चयन साम्राज्यवाद के एजेण्डे से नहीं किया है। वे जातीय गप्प रचते हैं और इसमें ऐतिहासिकता , स्मृति और अस्मिता के विमर्श को सामने लाते हैं। पूर्वाख्यानों का प्रयोग करते हैं और कथा के सूत्र एक-दूसरे से गूँथते हुए दिखाई देते हैं। वे संस्कृति को साम्राज्यवादी हमले और वर्चस्व की राजनीति से बाहर रखकर विवेचित करते हैं। द्विवेदीजी की खासियत है कि वे लिंगभेद की साम्राज्यवादी धारणा कि लिंग स्वाभाविक है को अस्वीकार करते हैं। याद कीजिए 'अनामदास का पोथा ' या 'बाणभट्ट की आत्मकथा'।
लिंग होता नहीं है बनाया जाता है। यह सामाजिक निर्मिति है। द्विवेदीजी स्त्री तत्व और पुरुष तत्व की बात करते हैं। बाणभट्ट में स्त्री तत्व ज्यादा जागृत है। लिंगभेद , राष्ट्रवाद, नस्ल, बायोलॉजी आदि से जोड़कर साम्राज्यवाद ने संस्कृति का विमर्श पेश किया है। द्विवेदीजी ने साम्राज्यवाद के विमर्श से इतर संस्कृति के विमर्श को ज्ञान और प्रतिरोध के हथियार के रूप में देखा है। संस्कृति को 'खोज' के जरिए नहीं बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से परंपरा की निरंतरता के क्रम में पढ़ा जाना चाहिए। भारतीय समाज और संस्कृति का एक रूप वह है जिसे द्विवेदीजी भारतीय प्रतीकों , इमेजों, अवधारणाओं में सामने लाते हैं। इस क्रम में भारतीय कथा की परंपरा और आधुनिक दिशा की पहचान के रूप में चार औपन्यासिक कृतियाँ हिन्दी जगत् को देते हैं। पाठात्मकता के देशज रूपों को सामने लाते हैं। उपन्यास को जिस रूप में 'कंसीव' करते हैं वह उपन्यास के ढाँचे के बारे में साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक आधारों का निषेध है।
साम्राज्यवादी धारणा उपन्यास के 'सार्वभौमत्व' को महत्वपूर्ण मानती है। द्विवेदीजी के चारों उपन्यास 'सार्वभौमत्व' की धारणा का निषेध करते हैं। कथानक, पात्र, चित्रण ,परिवेश किसी भी कोटि से द्विवेदीजी का औपन्यासिक कृतित्व साम्राज्यवाद के दायरे में नहीं आता। प्रेम-कथा के जरिए वे शासक और शासित का फर्क मिटा देते हैं। प्रेम को प्रतिवाद की भाषा में प्रस्तुत करते हैं।
साम्राज्यवादी विमर्शों में भारत की भिन्नताओं को गहराई से उभारा गया है। द्विवेदीजी के यहाँ आदान-प्रदान , साझेपन, संस्कृति की अंतनिर्भरता पर जोर है। ऐसा करते हुए अतीत के प्रति किसी तरह का विमोह पैदा नहीं करते। अपदस्थीकरण और असहमति के तत्व का व्यापक इस्तेमाल करते हैं। जाति नहीं एथनिक पहचान , पेशे पर जोर देते हैं। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में जनप्रिय मसलों पर बात , भाषा का यह रूप विचार और भाषा की अनंत भूख पैदा करती है। यह जातीय भाषा के चक्करों में नहीं पड़ती।
यह हिन्दी कथा साहित्य की नई दिशा थी लेकिन औपनिवेशिक विमर्श के साम्राज्यवादी एजेण्डे ने भारतीय बौध्दिकता को जकड़ रखा था। वह द्विवेदीजी के संकेतों को अपना नहीं सकी। राहुल के अलावा और किसी के यहाँ भाषा, चिन्तन और सांस्कृतिक विमर्श का यह रूप दिखाई नहीं देता।
आज की कहानी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपना वृतान्त खो रही है, स्मृति खो रही है, आनंद खो रही है, ट्रैजेडी खो रही है। इन्हें हासिल करना उनका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। आज रचना का संदर्भ प्रेस और अखबार नहीं बना रहा ; सैटेलाईट और टेलीविजन बना रहा है।
समकालीन कहानी को बड़ी चुनौती कथा के भीतर से मिल रही है उससे कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती कथा के बाहर से मिल रही है। मीडिया के संप्रसार के इस दौर में मनोरंजन और अवकाश का एकमात्र साथी कहानी नहीं रह गया है। सच कहें तो मीडिया ने 'मनोरंजन' और 'अवकाश' की परिभाषा बदल दी है।
आज अवकाश काम का विपयर्य नहीं बल्कि काम की पूर्व तैयारी है। खाली समय हमारे पास नहीं है। ऐसे में कहानी के लिए जगह बनाना अपने आप में चुनौती है। दूसरी चीज कि मीडिया अंतहीन कहानी है। मीडिया में कहानी का 'सागा' चलता रहता है। चाहे मनोरंजन के चैनल हों या खबरिया चैनल अथवा रियलिटी चैनल , सब पर एक से अधिक कहानी चलती रहती है। ये सभी कहानियाँ सातत्य में होती हैं और संपूरक भी। इनकी एक-दूसरे पर अंतनिर्भरता बनी रहती है।
'परजानिया' में काम करनेवाली नायिका भारत-पाक संबंधों पर आधारित एनडीटीवी के पैनल डिस्कशन में भी बोलेगी और 'हंसेगा इंडिया' में निर्णायक बनी राखी सावंत के आनेवाले सीरियल 'हमारी बहू राखी सावंत' का स्क्रिप्ट और चरित्र लाफ्टर शो में छाया रहेगा। 'सनसनी', 'वारदात',' डायल 100' जैसे कार्यक्रम सत्यकथाओं की भूख को तृप्त करते हैं। यानी टीवी एक बड़ा कहानीकार है। वह छोटे-छोटे आख्यानों के जरिए 'बड़े नैरेषन' की तलाष में रहता है। यह दीगर बात है कि बड़ा नैरेशन बन नहीं रहा। नट, बाजीगर, साधू, बाबा, नेता, राजनेता ,अभिनेता सब टेलीविजन में चरित्र हैं। माध्यम के रूप में अखबार, रेडियो या फिल्म से कहानी को इतनी चुनौती नहीं मिली जितनी कांटे की टक्कर टेलीविजन दे रहा है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि टेलीविजन कहानी को खा जाएगा। कहानी रहेगी क्योंकि मीडिया कभी पुराने रूपों को नष्ट नहीं करता। समकालीन कहानी को इस सत्य के रू-ब-रू अपने प्रतिमान गढ़ने होंगे क्योंकि पुराने प्रतीकों के देवता बहुत पहले ही कूच कर गए हैं। मैदान खाली है लेकिन सरपट भी !
बाख्तिन ने उपन्यास पर विचार करते हुए कहा था कि आज कहानी के लिए मानकीकरण या वर्गीकरण सबसे बेकार की चीज है। जब तक हम मानक बनाते हैं सत्य बदल जाता है। इसलिए अच्छा है कि कहानी को कहानी रहने दिया जाए। समकालीन कहानी में 'अंतहीनता' और 'सातत्य' की संवृत्तियाँ जनमाध्यमों विशेषत: टेलीविजन के दबाव से पैदा हुई हैं। आज पाठक के पास अनेक विकल्प हैं। तू नहीं और सही और नहीं और सही। वह सूचनाओं की जाँच भी एक से अधिक स्त्रोतों से कर सकता है। इस स्थिति ने कहानी में ' यथार्थ ' के रूप को बदला है। आधुनिकता के प्रकल्प की यह खासियत है कि वह कभी पूरा नहीं होता। उसे कभी पूर्ण प्रकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह हमेशा एक अधूरा प्रकल्प है। इसलिए आधुनिक कहानी हमेशा अधूरी होगी। उसके प्रतिमान तभी स्थिर किए जा सकते हैं जब कहानी स्थिर हो जाए। ऐसा न हो तो बेहतर !
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