वर्चुअल रियलिटी
संचार की नई तकनीकी शून्य में पैदा नहीं होती।वह किसी वैज्ञानिक के दिमाग का खुमार नहीं है। वह सिर्फ ख्यालों से पैदा नहीं होती।वह मन की उचंग नहीं है।संचार तकनीकी के नए रूप के आने के पहले कभी भी तकनीकी शून्य नहीं था।संचार तकनीकी के पुराने रूप अप्रासंगिक नहीं होते। वहां कभी शून्य पैदा नहीं होता है।संचार तकनीकी का मनुष्य के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया से गहरा रिश्ता है।मनुष्य इतिहास में जितना आगे बढ़ता गया उसके अनुरूप संचार तकनीकी का जखीरा भी पैदा करता गया।संचार तकनीकी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना पुराना मनुष्य का अस्तित्व है।मनुष्य की ऐतिहासिकता का तकनीकी की ऐतिहासिकता के साथ अन्योन्याश्रित संबंध है।
संचार की नई तकनीकी तब पैदा होती है जब प्रचलित संचार तकनीकी रूपों के जरिए यथार्थ के विस्तार में मदद मिलनी बंद हो जाती है।संचार के तकनीकी रूपों का यह ऐतिहासिक कार्यभार है कि वे यथार्थ के विस्तार ,सृजन , निर्मिति और संप्रेषण को संभव बनाते हैं।यही वजह है कि संचार तकनीकी का कोई भी रूप मरता नहीं है।व्यवस्था बदल जाने के बावजूद नहीं मरता।आप समाज में सब कुछ बदल सकते हैं।कोई रूप या संरचना अप्रासंगिक हो सकती है।किंतु संचार तकनीकी के रूप कभी अप्रासंगिक नहीं होते।मानव सभ्यता के विकास से लेकर आज तक के सभी सम्प्रेषण रूपों और कलाओं का बचे रहना, समस्त संचार तकनीकी रूपों का विकसित समाज व्यवस्था से लेकर अविकसित समाज व्यवस्था तक यहां तक कि समाजवादी व्यवस्था में भी पुराने संचार तकनीकी रूप बचे रहते हैं। इन रूपों का बचे रहना इस बात का प्रमाण है कि संचार तकनीकी जन्म लेते ही भौतिक शक्ति बन जाती है।वह व्यवस्था से अपने को स्वायत्त बना लेती है।संचार तकनीकी का पुरानी,मौजूदा और आने वाली तीनों ही किस्म के तकनीकी रूपों से गहरा संबंध होता है। इसका समाज,संस्कृति, राजनीति,अर्थनीति,संचार आदि सभी क्षेत्रों पर असर होता है। संचार तकनीकी का प्रभाव सिर्फ संप्रेषण या संचार तक ही सीमित नहीं होता।जिन लोगों के बीच संचार हो रहा है उन्हीं तक प्रभाव सीमित नहीं रहता।बल्कि संचार तकनीकी सार्वजनिक प्रभाव पैदा करती है।हमेशा नई चुनौतियों और जरूरतों के साथ नई आकांक्षाओं को व्यक्त करती है।तकनीकी बगैर आकांक्षा या इच्छा के फलती-फूलती नहीं है।किसी भी तकनीकी का जन्म बृहत्तर सांस्कृतिक, भाषायी, संस्थानगत और तकनीकी संदर्भ में होता है। इस परिप्रेक्ष्य में वर्चुअल रियलिटी या आभासी यथार्थ तकनीकी या एनवायरनमेंट के आगमन पर विचार करें।
वर्चुअल रियलिटी यानी आभासी यथार्थ एक तकनीकी है।यह अवधारणा नहीं है।यह एनवायरमेंट है।वातावरण है। साहित्य के लोगों में यह भ्रम है कि यह अवधारणा है। उम्र में संचार तकनीकी रूपों में सबसे छोटी है।इसका जन्म 1989 में हुआ था।सात जून 1989 को कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनी ऑटोडेस्क और कम्प्यूटर कंपनी वीपीएल ने वर्चुअल तकनीकी की सबसे पहले घोषणा की।'टेक्स्पो 89' के अवसर पर जारी अपने ब्रोसर में इसके बारे में कहा गया कि वर्चुअल रियलिटी वस्तुत: कायिक जगत को पेश करती है।वह कला के सदृश सामंजस्यपरक,स्वप्न की तरह असीमित, और क्षति न पहुँचानेवाली है।इस शताब्दी के अंत तक यह व्यापक स्तर पर उपलब्ध होगी।ऐसी स्थिति में इसका कायिक जगत को प्रस्तुत करने वाले माध्यम के रूप में इस्तेमाल नहीं होगा,बल्कि अतिरिक्त यथार्थ के सृजन के लिए इस्तेमाल होगा।वर्चुअल रियलिटी ने नए विचारों के महाद्वीप और अनंत संभावनाओं के द्वार खोले हैं।
वर्चुअल रियलिटी के बारे में ब्रोसर में दिए गए समूचे पाठ में परंपरागत कलाओं,मनोविज्ञान, पराभौतिकी,दर्शन के ज्ञान मीमांसात्मक रूप,खोज,सरहद,आदि पदबंधों का जिस तरह इस्तेमाल किया गया है। उससे सिर्फ यह संकेत मिलता है कि नई तकनीकी को कैसे वस्तु, विचार, संस्थान आदि के साथ नत्थी करके पेश किया जा रहा है। उपरोक्त पाठ को गौर से पढें तो अनेक चीजें साफ तौर पर नजर आएंगी। यहां पर इसे 'कलाओं के सदृश' ,'अतिरिक्त यथार्थ' और 'नए विचारों का महाद्वीप' कहा गया है।
आरंभ में प्रत्येक तकनीकी रूप की तरह वर्चुअल रियलिटी चंद लोगों,हाशिए के लोगों तक ही सीमित थी।इसे हाशिए की उप-संस्कृति कहा गया।खासकर विज्ञान कथा,साइबरपंक, कम्प्यूटर हैकर कल्चर,कम्प्यूटर कंपनियों और नासा जैसे संस्थान तक ही इसका दायरा सीमित था। आरंभ में इसे अमेरिकी वायु सेना के जहाजों के आवागमन,परमाणु अस्त्रों के रख-रखाव ही सीमित रखा गया।किंतु कालांतर में वैज्ञानिक अनुसंधार्नकत्ताओं ने उसके इस तरह के सीमित उपयोग के दायरे को खत्म करके इसका कला,मनोरंजन,स्थापत्य,डिजायन, चिकित्सा आदि के क्षेत्र में प्रयोग करने का फैसला किया।इसका मिथ और विचारधारा से भी संबंध जोड़ा गया।इस परिवर्तन के कारण कम्प्यूटर के अंदर पैराडाइम शिफ्ट हो गया।कम्प्यूटर की प्रकृति और भूमिका बदल गई।
वर्चुअल रियलिटी के सिध्दान्तकारों ने यूटोपियन भविष्य का सपना पेश किया।पहले यह हाशिए की उप-संस्कृति थी।किंतु मात्र चौदह सालों में यह मुख्यधारा की सस्कृति बन गई है।इसका अर्थ यह है कि वर्चुअल रियलिटी में भी बदलाव आया है। वह निरंतर बदल रही है।उसे उन बाधाओं से भी मुक्ति प्राप्त करनी है जो उसके जन्म के साथ जुड़ी हैं। मसलन् वर्चुअल संस्कृति में सामाजिक आलोचना का अभाव है,इसके यूजरों में नशीले पदार्थों का सेवन खूब होता रहा है।माफिया गिरोहों के साथ इसकी दोस्ती रही है। तमाम असभ्य रूपों का इसने बाजार में तांता लगाया हुआ है। ये सारी इसकी जन्मजात बाधाएं हैं।
क्रिस चेशर ने वर्चुअल रियलिटी को 'रियलिटी इण्डस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स' के समानान्तर रखकर देखने का निषेध किया है।वर्चुअल रियलिटी खर्चीली तकनीकी है।उसका संस्थानगत संदर्भ में जन्म हुआ है।खासकर अमेरिकी संस्थान नासा और वायुसेना के अनुसंधार्नकत्ताओं, वीडियोगेम बनाने वालों,विश्वविद्यालयों, साफ्टवेयर- हाडवेयर निर्माता कंपनियों,मनोरंजन उद्योग इसकी प्रयोगस्थली हैं।
'वर्चुअल रियलिटी' पर बात करते ही सीमुलेशन,हाइपर रियलिटी और पोस्ट मॉडर्निज्म के मसले उठ खड़े होते हैं।यहां इन सब मसलों पर गौर करना अभीप्सित लक्ष्य नहीं है।बल्कि इसके तकनीकी और तद्जनित सांस्कृतिक -वैचारिक पक्ष का मूल्यांकन करना लक्ष्य है।
एक जमाना था वर्चुअल रियलिटी का फोकस अमेरिका था।किंतु आज सारी दुनिया इसके निशाने पर है।वर्चुअल रियलिटी का जन्म विज्ञान कथा के गर्भ से सन् 1984 में जन्म हुआ।मजेदार बात यह है कि विज्ञानकथा के रूप में इसका जन्म एक ही साथ अनेक स्थानों पर हुआ।खासकर विलियम गिब्सन के उपन्यास 'न्यूरोमेंशर'(1984) में 'साइबरस्पेस' पदबंध का पहलीबार प्रयोग मिलता है।इसी उपन्यास में 'कनशेंसुअल हेलुसिनेशन' का जिक्र आता है। इसके बाद अचानक कम्प्यूटर उद्योग,सेना,नासा,विज्ञान कहानियों,कला, काउण्टरकल्चर, आदि के क्षेत्र में इस पदबंध का धडल्ले से प्रयोग होने लगा।इन सभी क्षेत्रों में वर्चुअल रियलिटी का विकास हुआ।एपल मशीनटोज और माइक्रोसॉफ्ट के विण्डो सामने आ गए।नासा ने 'वर्चुअल एनवायरनमेंट सिस्टम' की रचना की।मिशेल मेकग्रेवी ने 1985 में 'विविड' यानी 'वर्चुअल एनवायरनमेंट डिसप्ले' प्रकल्प की स्थापना की।सन् 1987 में 'सीमुलेशन ग्राफिक्स सिस्टम' बाजार में आया।वर्चुअल रियलिटी सिस्टम का 1988 में व्यावसायिक इस्तेमाल शुरू हुआ।इसे वीपीएल और ऑटोडेस्क ने तैयार किया था।इन दोंनो कंपनियों ने पहलीबार देखा कि इसका विश्व में बहुत बड़ा बाजार है और इसके बाद नासा के 'विविड' और वीपीएल ने मिलकर वर्चुअल रियलिटी सिस्टम बनाया।जिसमें डाटा ग्लोब की सामग्री का भी इस्तेमाल किया गया।
'विकीमीडिया' इनसाइक्लोपीडिया में लिखा है कि वर्चुअल रियलिटी पदबंध का संभवत: सबसे पहला प्रयोग 1989 में जरोन लनियर ने किया था।लनियर को इस क्षेत्र का सर्वोच्च सिध्दान्तकार माना जाता है।उसने 'वर्चुअल प्रोग्रामिंग लैंग्वेज ''रिसर्च कंपनी की स्थापना की।इसी को वीपीएल कहते हैं।उसने अस्सी के दशक में पहला सिस्टम बनाया।यह पदबंध कृत्रिम यथार्थ से संबंधित है।इस पदबंध का सत्तर के दशक से इस्तेमाल हो रहा है।जबकि साइबरस्पेस का 1984 से इस्तेमाल हो रहा है।वर्चुअल रियलिटी का कम्प्यूटर के बिना अस्तित्व संभव नहीं है।'वर्चुअल रियलिटी मॉडलिंग लैंग्वेज' यानी वीआरएमएल को कभी-कभी 'विरमल' के नाम से भी जाना जाता है।यह विशेष फाइल फारमेट है और त्रिआयामी (थ्री-डाइमेंशनल) है।इसमें इनटरेक्टिव वेक्टर ग्राफिक्स को खासतौर पर वर्ल्ड वाइड वेब के लिए बनाया गया है।वीआरएमएल फाइल्स को 'वर्ल्ड कहते हैं।इसी के जरिए टेक्स्ट का निर्माण होता है।यह जावा या जावा स्क्रिप्ट में लिखा है।वीआरएमएल का पहला रूप सन् 1994 में आया।
यूजर चाहे तो आसानी से वर्चुअल रियलिटी एनवायरमेंट का दुरूपयोग भी कर सकता है।यह बहुत मुश्किल है कि व्यवहार में संतुष्ट करने वाले वर्चुअल रियलिटी एनवायरमेंट को निर्मित किया जा सके।वर्चुअल रियलिटी के सस्ते सॉफ्टवेयर को बाजार में उतारने का श्रेय आटोडेस्क को जाता है। सन् 1989 में वर्चुअल रियलिटी सार्वजनिक एजेण्डा बनी।साइबर पंक मैगजीन 'मोण्डो' ने इस पर सबसे ज्यादा प्रामाणिक सामग्री प्रकाशित की।सन् 1991 में हावर्ड रिंग गोल्ड की कृति 'वर्चुअल रियलिटी' प्रकाशित हुई।सन् 1991 तक आते-आते अमेरिका के बारह विश्वविद्यालयों में इसे पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।उस समय तक दुनिया में इसके 400 सिस्टम थे।इनमें ज्यादातर जापान में थे। सन्््् 1992 में बनी फिल्म 'लॉन मूवरमैन' ने वर्चुअल रियलिटी को जनप्रियता की ऊँचाईयों पर पहुँचा दिया।सन् 1992 तक पांच कंपनियां इसकी मार्केटिंग कर रही थीं।आज यह संख्या काफी बढ़ चुकी है।वर्चुअल रियलिटी का अमेरिकी वायुसेना में सबसे पहले इस्तेमाल थामस फर्नीस थर्ड ने किया।उसके बाद धीरे-इसके गैर सैन्य उपयोग की ओर ध्यान दिया गया। अमेरिका में स्टार वार कार्यक्रम की तैयारियों के सिलसिले में इसका सबसे ज्यादा उपयोग हुआ।यह भी कह सकते हैं कि स्टारवार और ऑटो गिब्सन के उपन्यास 'न्यूरोमेंसर' एक- दूसरे के वैचारिक पूरक के रूप में सामने आए।स्टारवार की तैयारियों को इस उपन्यास के कारण वैधता मिली।इसी उपन्यास में पहलीबार साइबरस्पेस पदबंध का प्रयोग मिलता है।
आधुनिक दौर की मुश्किल यह है कि नए शब्द और उनका अर्थ वही मान्य है जिसे उद्योग जगत ने निर्मित किया है।हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ कि हमारी आलोचना,विज्ञान,समाजविज्ञान,साहित्य,कला आदि के क्षेत्र में उन्हीं अवधारणाओं और पदबंधों पर बातें होती हैं जिन्हें पूंजीवाद ने पैदा किया है।गैर-पूंजीवादी पदबंधों और धारणाओं का प्रयोग क्यों बंद हो गया ?खासकर संचार और संप्रेषण उद्योग की धारणाओं ने समूचे विमर्श को क्यों घेर लिया है ?
इतिहास बताता है कि नासा के वैज्ञानिक मिशेल मैकग्रेवी ने गिब्सन की विज्ञानकथा को आधार बनाकर पहला वर्चुअल एनवायरनमेंट सृजित किया।उसे 'वर्चुअल विजुअल एनवायरनमेंट डिसप्ले' नाम दिया।सन् 1988 में जॉन वॉकर ने ऑटोडेस्क की तरफ से 'साइबर पंक इनीसिएटिव' जारी किया। बाद में एक श्वेतपत्र 'थ्रू दि लुकिंग ग्लास:वियॉण्ड यूजर इण्टरफेसेज' शीर्षक से जारी किया गया।वॉकर का कहना था कि 'यथार्थ अब ज्यादा नहीं बचा'।मजेदार बात यह है कि वॉकर ने गिब्सन से बहुत कुछ लिया किंतु उसके उपन्यास में निहित सामाजिक आलोचना की उपेक्षा की।असल में यह गिब्सन के विचारों की 'री-एसेम्बलिंग' थीं।
मजेदार बात यह है कि वर्चुअल रियलिटी के निर्माताओं ने विज्ञानकथा के अति काल्पनिक रूप को स्वीकार किया किंतु उसमें निहित सामाजिक आलोचना को अस्वीकार कर दिया गया।उसे तटस्थ बना दिया।बल्कि यों कहें तो ज्यादा सही होगा कि सामाजिक आलोचना की जगह आरामदायक विमर्श को शामिल कर लिया गया।सन् 1992 तक आते-आते साइबरस्पेस पदबंध अपरिहार्य हो गया।मिशेल बेनेडिक्ट ने ''साइब स्पेस: फर्स्ट स्टेप'(1992) नामक पुस्तक लिखी।जिसमें सामाजिक आलोचना की जगह आरामदायक अनुमानों को शामिल कर लिया गया।मिशेल का तर्क था कि साइबरस्पेस आज अनिवार्य ही नहीं अपरिहार्य है।साइबरस्पेस सूचना की बाढ़ की समस्या का समाधान है।किंतु इनमें से एक भी बात सच साबित नहीं हुई। किंतु गिब्सन के उपन्यास में जिन मुद्दों पर सामाजिक आलोचना पेश की गई थी,वह आज भी प्रासंगिक है।सही है।
( उपरोक्त अंश ,जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह लिखित 'भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया' नामक किताब से हैं, यह किताब ' अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, (प्रा.) लि., 4697 /3,21 ए,अंसारी रोड नई दिल्ली 110002 , से प्रकाशित है। इस पते पर किताब की खरीद के लिए संपर्क करें। )
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