दलित अस्मिता नहीं नजरिया

भारत में अस्मिता विमर्श के सबसे बड़े क्षेत्र के रूप में स्त्री और दलित आते हैं। इनके बाद आदिवासी और अल्पसंख्यक अस्मिता विमर्श आता है। राजनीतिक क्षेत्र में स्थान भेद से इन अस्मिताओं का क्रम आगे-पीछे हो सकता है। अस्मिताओं के इस उभार को ज्यादा दिन नहीं हुए। साहित्य में मोटे तौर पर भक्तिकाल से दलित अस्मिता का आरंभ होता है। दलितचेतना के कई रूमराठी नवजागरण में ज्योतिबाफुले और सावित्रीबाई से आधुनिक तथा स्वाधीनताआंदोलन के समय बाबा साहेब अंबेडकर से दलितचेतना जोड़ा जाता है। लेकिन सही परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में दलित अस्मिता का उभार साठ के दशक में देखा गया। गरीबी , शिक्षा, कुपोषण , सामाजिक और धार्मिक भेदभाव के स्तर पर किए गए सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षणों ने दलितों की जीवनस्थितियों के बारे में कई चौंकानेवाले तथ्य सामने रखे। आजादी के बाद बने संविधान में विशेष सुविधाओं के बावजूद दलितों की स्थिति में आज भी बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है।
दलित लेखन और विमर्श का मौजूदा रूप उत्तार पूँजीवाद की देन है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गाँधीजी द्वारा दलितों को ' हरिजन ' नाम दिया गया था। स्वातंत्र्योत्तार भारत में यह दलित विमर्श के नाम से सारी बहस चली। आज दलित विमर्श अस्मितामूलक विमर्श का एक बड़ा महत्वपूर्ण क्षेत्र है। अस्मितामूलक विमर्शों की खासियत है कि इनका सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनीतिक आधार होता है। अस्मिता के जिस रूप का जितना गंभीर सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आधार होगा उसकी साहित्यिक कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप उतने ही सशक्त होंगे। स्त्री अस्मिता के विमर्श के साथ यह दिक्कत रही है कि सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के मजबूत आधारों के बावजूद राजनीतिक तौर पर यह अभी भी आधारशून्य है। इसकी झलक एन डी ए और यू पी ए दोनों सरकारों के कार्यकाल में लटकता रहा महिला बिल है। राजनीतिक दलों की महिलाओं की संसदीय भागीदारी को लेकर क्या समझ है इसे उनके दलों के उम्मीदवारों के सूचीपत्र को देखकर समझा जा सकता है। लेकिन यह मुद्वा आज जबकि देश में पहले चरण का मतदान पूरा हो चुका है , किसी चुनावी बहस का हिस्सा नहीं बन सका है। न ही महिलाओं में इसे लेकर जागरूकता पैदा करने की कोशिश किसी राजनीतिक दल या गैर सरकारी संस्थाओं जो मोटा पैसा वैकल्पिक रूप में जनकल्याणकारी कामों की डुगडुगी पीट कर हासिल करती है, द्वारा किया गया है। दलित जातियों में जिनमें शिक्षा, जीने की सुविधा और जीवनस्तर आम तौर पर सामान्य से कई गुना नीचे हैं उनमें स्त्रियों की क्या स्थिति होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है।
सवाल है कि समाज में दलित एक सामाजिक इकाई के रूप में अभिव्यक्त होता है। उसकी सामाजिक स्थिति की बदहाली को मापने के कई तरह के आर्थिक-सामाजिक सूचक हैं। सामाजिक तौर पर दलित के सवाल सामाजिक अन्याय के सवाल हैं। लोकतंत्र की राजनीति में यह 'पावरगेम' के रूप में व्यक्त हो रहा है। राजनीतिक भागीदारी और सत्ताा में हिस्सेदारी के रूप में व्यक्त हो रहा है। साहित्य में यह नजरिए के रूप में व्यक्त होता है। साहित्यिक अभिव्यक्ति में दलित पर अत्याचार दिखलाकर दलित के प्रति संवेदनशीलता नहीं पैदा की जा सकती। उत्तोजक बयानबाजी से भी साहित्य से भी साहित्य में दलित के प्रति उसकी साथ हो रहे अन्याय के प्रति रवैय्या निर्मित नहीं किया जा सकता। साहित्य में चीजें देर से घटित होती हैं और देर तक टिकी रहती हैं। राजनीतिक टिप्पणियों की तरह दिया और भुलाया नहीं जा सकता न ही सामाजिक स्थितियों के बदल जाने से लिखी गई पहले की रचना फालतू हो जाती है। साहित्य के हर युग के लिए हर युग में पाठक मौजूद होंगे। टॉलस्टाय और तुलसी के पाठक उत्तारआधुनिक साहित्य में भी हैं। सवाल है कि हम पुराने या नए साहित्य में खोजते क्या हैं ? हम खोजते हैं नजरिया! नजरिए के आधार पर ही रचना महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण होती है। पुराने पाठ में भी आधुनिक नजरिया व्यक्त हो सकता है और नए से नया पाठ रूढ़िवादी नजरिए को अभिव्यक्त कर सकता है। इसी नजरिए के आधार पर साहित्य में ' प्रासंगिकता अप्रासंगिकता ' , ' कालजयी और कालजीवी ' की बहस चली है।
अस्मिता देखने में है। साहित्य में दलित या गैरदलित का मसला नजरिए में होता है। यह नजरिया दलित रचनाकार की अभिव्यक्ति में हो भी सकता है नहीं भी हो सकता है। निर्भर करता है कि वह किस नजरिए से दलित के मसलों को देख रहा है। अस्मिता का आधार जाति या नस्ल नहीे हो सकता। अस्मिता का आधार दृष्टिकोण होगा। अस्मिता को यदि जाति, लिंग या नस्ल में केन्द्रित मान लेंगे तो अस्मिता विमर्श का विद्रूप चेहरा सामने आएगा। जाति, लिंग और नस्ल के आधार पर बनी प्रत्येक अस्मिता अन्य अस्मिता के लिए आक्रामक भाव रखेगी। अस्मिता विमर्श में केवल अपने से संबध्द अस्मिता के हित अहित केन्द्र में होते हैं। अन्य अस्मिताओं के प्रति उपेक्षा भाव शामिल होता है।
हिन्दी के दलित लेखन की खूबी है कि यह बिल्कुल जमीन से जुड़ा लेखन है। हाल के वर्षों में जो दलित साहित्य लिखा गया है उसका क्षेत्र लगभग तय है। यहा¡ अभिव्यक्ति की कलाकारी और संयोजन का काम अभी शुरू नहीं हुआ है। दलित लेखन के प्रमुख क्षेत्र सामाजिक अन्याय, घर्म के आधार पर भेदभाव, आर्थिक अन्याय, पितृसत्ताा आदि हैं। एक दलित स्त्री लिंग ,जाति और गरीबी तीन स्तरों पर शोषण का शिकार होती है। दलित साहित्य के अंतर्गत जो कुछ लिखा जा रहा है चाहे वह स्त्रियों का हो या पुरूषों का स्वानुभूतिपरक है। यही कारण है कि दलित लेखन का बड़ा हिस्सा आरंभ में आत्मकथा के रूप में सामने आया। साथ ही दलित लेखकों की तरफ से एक धड़े ने यह भी बहस चलाई कि स्वानुभूत लेखन ही दलित लेखन हो सकता है। स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस चलाई।
अस्मिता के विमर्श का एक संकट है कि वह अपने लिए जनतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की मांग करते करते दायरे को इतना समेट लेता है कि वह स्वयं एक अलग खेमे के रूप में तब्दील हो जाता है। जिन मूल्यों के खिलाफ लड़ रहे हैं स्वयं उन्हीं में ढल जाना किसी साहित्यिक , सांस्कृतिक या राजनीतिक आंदोलन की विशेषता नहीं हो सकती। बहिष्कार की जिस नीति के खिलाफ खड़े हैं स्वयं उसी का इस्तेमाल करते हुए संकीर्ण नजरिए का परिचय देना आंदोलन की सफलता नहीं है। स्त्री लेखन के साथ भी यही दिक्कत है कि वह स्त्रियों के लिखे को ही स्त्री लेखन के दायरे में रखना चाहता है। स्त्री या दलित होने मात्र से उनका लेखन स्त्री या दलित के नजरिए को व्यक्त करता हो यह जरूरी नहीं जब तक कि स्त्री या दलित की दृष्टि रचनाकार के पास न हो। कई स्त्री लेखिकाए¡ हैं जो घोषित तौर पर कहती हैं कि वे स्त्रीवाद के नहीं मानतीं। इस घोषणा का भी पाठक के लिए दाम नहीं है यदि स्त्री का नजरिया उनके लिखे में व्यक्त होता है। पर यदि पुंसवादी नजरिए से किया गया लेखन है तो किसी भी किस्म की घोषणा के बावजूद वह स्त्री के द्वारा भले लिखा गया हो स्त्रीवादी लेखन नहीं है। स्त्री के पक्ष में आरंभ में सबसे ज्यादा पुरूष लेखकों ने लिखा, आज वह स्त्रीवादी लेखन में शामिल किया जाता है। जॉन स्टुअर्ट मिल हों, माक्र्स हों , प्रेमचंद या रमाशंकर शुक्ल ' रसाल ', इनका लेखन स्त्रीवादी लेखन के दायरे में आता है। दलित लेखन के लिए भी यह सत्य है। माक्र्स मजदूर नहीं थे लेकिन मजदूर वर्ग के लिए माक्र्स से बड़ा लेखन किसी का नहीं है। प्रेमचंद अपने नजरिए के कारण ही तमाम अंतर्विरोधों के साथ स्त्री और दलित के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। दलित लेखन मूलत: अन्याय के विरूध्द है। अनिवायर्त: इसे अपने जैसी अन्य अस्मिताओं पर हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़ा होना होगा। अन्य अस्मिताओं के साथ इसका संबंध सहिष्णु और दोस्ताना होगा। तभी यह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अस्मिता की अभिव्यक्ति के राजनीतिक और साहित्यिक रूपों में घालमेल के कारण यह संबंध असिहिष्णु रूप ले रहा है। इससे सावधान रहने की जरूरत है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि आप दलित विमर्श द्वारा दलित की मुक्ति की बात कर रहे हैं या दलित की स्थापना की ? दलितों को सवर्णों की जगह पदों पर बैठाने या संस्थाओं में स्थापित करने से दलित मुक्ति का प्रश्न हल नहीं होगा। इन जगहों पर आते ही यदि दलित वर्चस्व की भूमिका और हथकण्डों का इस्तेमाल करे तो दलित मुक्ति संभव नहीं है। यह प्रेमचंद के शब्दों में जॉन की जगह गोविन्द की स्थापना ही है। इससे दलित की वास्तविक स्थितियों और शोषण के रूपों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह वैसे ही है जैसे दिल्ली हाट में आयोजित मेले में एक ऐसे परिवार को आदिवासी परिवार का प्रतिनिधित्व करने को कहा गया था जिसने बरसों से गाँव की शक्ल नहीं देखी है। आदिवासी गाँव की संस्कृति और जीवनशैली वह कब का पीछे छोड़ चुका था। यह अलंकृत रूप से जीवनस्थितियों को पेश करना है। जिसमें समस्या कहीं नहीं है, समाधान का तो प्रश्न ही नहीं है। दलित को जहा¡ अधिकार दिए गए हैं वहा¡ भी दलित को मुक्ति नहीं मिली है। संवैधानिक और राजीतिक अधिकारों को लागू करने के लिए निचले स्तर पर जिस दृढ़ प्रशासनिक अनुशासन की जरूरत है, इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है वह यदि नहीं है तो अधिकारों को अधिकारी के पास नहीं पहुँचाया जा सकता। उसे दलाल हड़प लेंगे।
सवाल है कि दलितों की मुक्ति के लिए हिन्दुस्तान की स्थितियों में कौन-सी चाज जरूरी है ? दलित क्या केवल शहरों में रहते हैं ? भारत में अभी भी चालीस प्रतिशत से ज्यादा जनता साक्षर नहीं है। इसमें दलितों और दलित स्त्रियों का प्रतिशत कितना होगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो है पर उन नौकरियों के लिए दलित अभ्यर्थी नहीं मिल पाते। पद बरसों रिक्त रहते हैं या सामान्य श्रेणी में डाल दिए जाते हैं। दलितों का आधार केवल शहरों को बनाएंगे तो एक बड़े हिस्से के सवाल असंबोधित रह जाएंगे। वह हिस्सा जो गाँवों में रहता है। यदि गाँवों में खेती और मजदूरी की स्थितियों में सुधार होता है तो शिक्षा और जीवनस्तर में भी सुधार होगा। दलित लड़किया¡ ज्यादा से ज्यादा स्कूल जाँए इसके लिए जरूरी है कि गाँवों में स्कूल हों , विशेष तौर से लड़कियों के स्कूल हों। लड़कियों को पढ़ने के लिए उत्प्रेरक के रूप में कुछ राशि दी जाए। वह राशि कम से कम इतनी हो कि घर में रहकर छोटी लड़किया¡ अपने भाई-बहनों को पालने , खाना बनाने और अन्य घरेलु कामों के जरिए घर की आमदनी में जो सहयोग करती हैं उसका विकल्प बन सके। माता-पिता को भी शिक्षा की जरूरत है कि वे छोटे लड़के लड़कियों को मानवशक्ति के रूप में न देखकर मानव संसाधन के रूप में देखें। दलित संगठनों की यह माँग होनी चाहिए कि गाँवों में सरकारी जमीनों का कृषि के लिए आवंटन हो और इसमें बड़ाहिस्सा गरीबों और दलितों के लिए हो। यह माँग तब तक संभव नहीं जब तक कि दलित को उत्पादक शक्ति के रूप में न देखें। दलित लेखन और संगठन उत्पीड़न के सवालों को उठाते हैं और वहीं खत्म हो जाते हैं। दलित मुक्ति को कृषि संबंधों से जोड़कर देखने की जरूरत बनी हुई है। प्रेमचंद इसी मायने में बड़े लेखक हैं कि वे दलित के सवाल उनके यहा¡ कृषि संबंधों से युक्त होकर आते हैं। यह देखा जाना चाहिए कि आज के कितने दलित लेखक हैं जो दलित की मुक्ति को कृषि दासता की स्थितियों से जोड़कर देखते हैं तब हम तय कर पाएंगे कि वे कितना अपने पैरों के नीचे और कितना आगे की तरफ देख रहे हैं।
भारत में दलितों की स्थिति को मानवीय किसी भी रूप में नहीं कहा जा सकता। शोषण , उत्पीड़न और अज्ञानता का सबसे वीभत्स रूप दलित की जीवनस्थितियों में दिखाई देता है। जनमाध्यम आज का सबसे बड़ा मतनिर्धारक है। राय बनाने का काम इसके जिम्मे है। यह भारतीय समाज में मौजूद एकाधिक दुनियाओं के बीच परिचय बनाने का काम करता है। टी वी में जो नहीं है उस पर बहस नहीं होगी। ऐसे में देखा जाना चाहिए कि दलित और दलित मसलों की उपस्थिति जनमाध्यमों में कितनी है ? भारतीय जनमाध्यमों में दलितों की उपस्थिति नगण्य है। दलित मसला नहीं है। दलित का राजनीतिक सशक्तिकरण कुछ व्यक्तियों के सशक्तिकरण में बदल गया है। यह अवसर की राजनीति है। इससे दलित के व्यापक हित का कोई संबंध नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण चीज कि आज दलित ' विमर्श ' है ' पाठ ' नहीं। पाठ के बिना विमर्श का क्या रूप होगा यह सोचा जा सकता है। पाठ के बिना यह सिध्दान्तविहीन होगा। इसके अध्ययन अध्यापन का कई अनुशासन नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है कि दलित के पाठ को ज्यादा से ज्यादा सामने लाया जाए। पाठ का होना मौजूदगी का एक ठोस आधार देता है। शब्दों की जादूगरी के जरिए किए जानेवाले विमर्श को एक सार्वकालिक अनुशासनिक ढाँचे में बांधता है। इसमें बहुत सी चीजें छूटेंगी , बहुत सी नई आएंगी पर यह खतरा तो उठाना ही पड़ेगा।

Comments

Popular posts from this blog

कलिकथा वाया बाइपासः अलका सरावगी- सुधा सिंह

आत्मकथा का शिल्प और दलित-स्त्री आत्मकथाः दोहरा अभिशाप -सुधा सिंह

महादेवी वर्मा का स्‍त्रीवादी नजरि‍या