हि‍न्‍दी और बाजार

हिन्दी का मोल

मीडिया के लोग सोचते हैं कि हिन्दी का उनके लिए दाम ज्यादा है क्योंकि वह पचास करोड़ से ज्यादा लोगों की भाषा है। मीडिया में किसी भी भाषा की महत्ताा उसके बोलने वालों से जब आंकी जाती है तो अचानक यह तथ्य भी संप्रेषित हो जाता है कि भाषा से बड़ा तत्व जनसंख्या का है। भाषा को जनसंख्या बल के आधार पर देखने का तरीका मार्केटिंग का तरीका है। मार्केट को तो जनसंख्या से मतलब है,इसके बाद वे लोग कैसे हैं ?उनकी दुनिया कैसी है ? उनकी परंपरा क्या हैं ?उनके सुख-दुख क्या हैं? इत्यादि सवालों से मीडिया सर्जकों का बहुत कम लेना-देना होता है। भाषा माल उत्पादकों और क्रेताओं के बीच संपर्क,संवाद और संचार की धुरी है। इस धुरी के जरिए क्या दिया जा रहा है ?कैसे दिया जा रहा है ? इन सब सवालों की ओर मीडिया ने अब आंखें बंद कर ली हैं ।मीडिया को अपनी ऑडिएंस पर ध्यान देना चाहिए,उसकी भाषा में कम्युनिकेट करना चाहिए। किंतु इस कम्युनिकेशन में यदि एकमात्र भाषा ही कीमत तय कर रही है ? तो इसे मीडिया की कमजोरी ही कहा जाएगा। मीडिया में भाषा संचार का एक रूप है। किंतु इस रूप की शक्ति संबंधित भाषा-भाषी लोगों के जीवन यथार्थ के चित्रण से आती है। भाषा का अपने सामाजिक यथार्थ से गहरा रिश्ता होता है। कोई भी भाषा अपने सामाजिक सच को ,व्यापक सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े सच को व्यक्त करके ही शक्ति अर्जित करती है। कोई लेखक हिन्दी में लिखने मात्र से महान् लेखक नहीं बन जाता। उसी तरह कोई भी अखबार ,रेडियो,टीवी चैनल सिर्फ हिन्दी में आने से ही हिन्दी का भला नहीं करने लगता। बल्कि यह कहना ज्यादा सच होगा कि हिन्दी तो एक ऊपरी आभूषण है,असल है हिन्दीभाषी जनता का यथार्थ। यह सच है कि हिन्दी चैनलों और अखबारों की बाढ़ आई हुई है,किन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि विगत कई वर्षों से हिन्दी में कोई भी ऐसी खोजी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है जो पूरे देश का ध्यान खीचे। इससे भी बड़ा सच यह है कि भूमंडलीकरण का जे रेला हिन्दी मीडिया में चल रहा है। उसमें सांस्कृतिक गुलामी के बीज बोए जा रहे हैं। लगातार हमारे पास ऐसी खबरें आ रही हैं जिन्हें सारवान खबरें नहीं कह सकते। खबरों के ऐसे धुरंधर संवाददाता आ गए हैं जिन्हें सही हिन्दी तक बोलनी नहीं आती,इससे भी बड़ी बात यह है कि आज भी विज्ञापन में हिन्दी अभिव्यक्ति की भाषा,सृजन की भाषा का दर्जा हासिल नहीं कर पायी है। ज्यादातर विज्ञापन अंग्रेजी में तैयार होते हैं,उनकी मूल सामग्री अंग्रेजी में तैयार होती है। कई हजार करोड़ का व्यापार करने वाला विज्ञापन उद्योग आजादी के साठ साल बाद भी हिन्दी में सोच नहीं पाता,हिन्दी में जब तक विज्ञापन नहीं सोचेगा,हिन्दी के विज्ञापन सर्जक तैयार नहीं किए जाते,तब तक हिन्दी के स्तर में सुधार नहीं आने वाला।टीवी चैनलों में हिन्दी को लेकर हीनताबोध इस कदर हावी है कि ज्यादा चैनलों के कार्यक्रमों के नाम अंग्रेजी में हैं,मजेदार बात यह है कि वे अंग्रेजी में नाम लिखकर भी दिखाते हैं,नाम बोलते भी अंग्रेजी में हैं। चैनलों को लगता है कि वे अपने कार्यक्रम का नाम हिन्दी में देंगे तो आकर्षक नहीं कर पाएगा।दुखद बात यह है कि सांस्कृतिक गुलामी के नाम पर बच्चों को सीधे निशाना बनाया जा रहा है। बच्चों के लिए खासतौर पर जो चैनल आए हैं वे अधिकांश डबिंग किए गए कार्यक्रम दिखा रहे हैं। इन कार्यक्रमों के पात्र जब हिन्दी बोलते हैं तो बेतुके लगते हैं। क्योंकि उन बच्चों की दुनिया हिन्दीभाषी बच्चों की दुनिया से मेल ही नहीं खाती। भाषा समृध्द होती है प्रामाणिक यथार्थ से मीडिया नैटवर्क की पहुँच के आधार पर भाषा की समृध्दि का अंदाजा नहीं लगाया जाना चाहिए,भाषा बोलने से नहीं सीखने से समृध्द होती है।भाषा बोलना या सुनना अनपढ़ की क्रिया है। शिक्षित की क्रिया भाषा शिक्षण से शुरु होती है। हमारे मीडिया ने हिन्दी का बाजार तो हासिल कर लिया है किंतु हिन्दी का वह ठाट,साख और प्राणतत्व अभी हासिल नहीं कर पाया है। अंग्रेजी की भाषा की टकसाल से निकले हुए हिन्दी के किराए के टट्टू हिन्दी के प्रतिनिधि बन गए हैं,इससे एक बात का पता चल गया है कि भाषा में टट्टुओं की बहार आयी हुई है। हिन्दी भाषा बाजार की भाषा जरूर है किंतु इसकी प्राणवायु बाजार मात्र के सम्प्रेषण में नहीं है।बाजार में किस चीज का क्या नाम है और क्या दाम है और क्या गुण है,अथवा यह कहें तो ज्यादा अच्छस होगा हिन्दी आज बाजार मेनीपुलेशन का हिस्सा बन गयी है, ग्राहक को फुसलाने का माध्यम बन गयी है। भाषा जब फुसलाने लगे तो समझ लो खतरा मंडरा रहा है। हिन्दी को मीडिया ने फुसलाने की भाषा बनाया है।मेनीपुलेशन,नकल और उधारी रूपों के अनुवाद का माध्यम बनाया है,ये सारी चीजें भाषा के बाहरी उपकरण हैं,इन्हें भाषा की प्राणशक्ति नहीं समझना चाहिए। भाषा का संबंध हमारे जीवन से है,जीवन के ठोस यथार्थ से है।उसके अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति से है। हिन्दी जब हिन्दीभाषी समाज के संघर्षों और अन्तर्विरोधों की भाषा बनेगी तो उसकी साख बढ़ेगी,लेकिन यदि हिन्दी सिर्फ माल के सम्प्रेषण की भाषा बनेगी तो उसकी साख घटेगी। यही वजह है कि आज चारों ओर हिन्दी ही हिन्दी है किंतु उसकी साख नहीं है। हिन्दी की यदि साख होती तो वह अंग्रेजी को अपदस्थ कर चुकी होती, मीडिया में हिन्दी का सही मायने में मोल लगाने से पहले हम अपने अंदर हिन्दी का स्थान तय करें,अपने व्यवहार में उसे प्रतिष्ठा दिलाएं,हमारे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार में तो हिन्दी दोयम दर्जे के नागरिक जीवन बिता रही है। किंतु मीडिया में वह पटरानी बनी बैठी है।यह ऐसी पटरानी है जिसके पास वैभव है,संपदा है। किंतु वह स्वयं बांझ है,अधिकारहीन है।

Comments

लेख का बाद वाला हिस्सा रेपेटेटिव हो गया है, पर आपने अच्छा मुद्दा उठाया है। पर मैं इसे लेकर अधिक चिंतित नहीं हूं। टीवी माध्यम अभी नया है। कोई भी हिंदी चैनेल पांच-छह साल पुराना नहीं हैं। अधिकांश अंग्रेजी चैनलों की शाखाएं मात्र हैं। इस माध्यम को समझने में लोगों को वक्त लगेगा।

पत्रकारिता सिखाने वाली संस्थाएं सब अंग्रेजी में हैं। वहीं से पढ़े हुए लोग यहां आते हैं। जरूरत पहले शिक्षण संस्थाओं में हिंदी लाने की है। यह हो जाए, तो अच्छे हिंदी पेशेवर भी मिलने लगेंगे, और केवल मीडिया में ही नहीं। यहां तो बच्चे पालने से निकलकर ही अंग्रेजी के किंटरगार्डनों मे चले जाते हैं। वे क्या अच्छी हिंदी बोलेंगे, लिखेंगे। इसमें हमारा भी तो दोष है। हममें से कितने ऐसे हैं जिनमें यह हिम्मत है कि हम अपने बच्चों को हिंदी माध्यम के स्कूलों में रखें?
Dev said…
Aap ki rachana bahut achchhi lagi...Keep it up....

Regards..
DevPalmistry : Lines teles the story of ur life
Unknown said…
थोडा सा सतही हो गया है विश्लेषण।

बालसुब्रमण्यम जी ने काफ़ी-कुछ ठीक जोड दिया है।

भाषा के चलन और ताकत को, राज्य और रोजगार की भाषा के संदर्भ में देखें, कुछ और रोशनी पडेगी।
mastkalandr said…
एक समय था जब में साउथ की तरफ जाता था उस वक़्त वहां दस में से दो लोग़ हिंदी जानते थे ,और आज जब में वहां जाता हूं ,वहां के लोग़ मुझसे हिंदी में बातचीत करने की कोशिश करते है .अब दस में से आठ लोग़ वहां हिंदी समझते और बोलते भी है ..,हिंदी चेनल और फिल्मो का भी असर दिखाई देता है वहां.., आज की तारीख में हिंदी जानने वालों को खूब काम मिल रहा है मिडिया में..इस लिए में आपकी बातों से सहमत नहीं ..मक्
बालसुब्रमण्यम ने यहाँ बात कही कुछ खास।
दिशा है चिन्तन की सही अच्छा लगा प्रयास।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत सुन्दर,ब्लागजगत में आपका हार्दिक स्वागत है ..
हिंदी भाषा को इन्टरनेट जगत मे लोकप्रिय करने के लिए आपका साधुवाद |

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