औरत को नंगा करके किसे सुख मिलता है ?
अभी उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले के करहिया गाँव में जागेश्वरी नाम की महिला को डायन बता कर जीभ काट लेने की घटना पर ठीक से चर्चा भी नहीं हुई थी कि पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में एक सोलह साल की नाबालिग लड़की को नंगा करके पूरे गाँव में 'सजा' के तौर पर घुमाने की घटना सामने आई है (इंडिया टी वी 8 अगस्त 2010)। लड़की का कसूर प्यार करना बताया जाता है। पूरे दृश्य में प्रेमी कहीं नहीं फ्रेम में आता। बेबस भागती नंगी लड़की, ढोल -नगाड़े बजाते गाँववाले जिनमें महिलाएँ, पुरूष और बच्चे सभी हैं दिखाई दे रहे हैं , ये सब जंगल में हांका करती शिकारियों की टोल और निरीह पशु का दृश्य तैयार करते हैं। भागती हुई नंगी लड़की को एक पुरूष पकड़कर बदतमीजी कर रहा है तब भी दृश्य में कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे दे रही। इंडिया टी वी दावा कर रहा है कि उसकी ख़बर का असर हुआ है और कुछ लोगों, नेताओं और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को वीडियो फुटेज दिखाकर बाइट लेने की कोशिश कर रहा है। वे नेता जो वामपंथी रूझान के हैं सिर्फ ख़बर सुनकर प्रतिक्रिया नहीं देना चाहते और वे नेता जिनका वामपंथ से बैर है , जो वाम को कोसने का कोई भी मौका नहीं खोते वे भी ख़बर देखकर ही बोलना चाहते हैं। दोनों धड़ों के नेताओं और समाजकर्मियों की यह अतिरिक्त सावधानी , यह संयमी मुद्रा प्रशंसनीय है लेकिन अन्य मुद्वों पर भी उनसे संयम और सावधानी की अपेक्षा पैदा करती है, सिर्फ स्त्री के मुद्वे पर तोलने की जरूरत नहीं है।
यह लगने लगता है कि यदि यह वीडियो फुटेज न होते तो ये लोग शायद इस तरह की किसी घटना से ही इंकार करते या फिर इसे अनदेखा करते। सच है दृश्य फर्क़ पैदा करता है। इंडिया टी वी ने साहस दिखाया है।
लेकिन स्त्री पर किए गए इस तरह के अत्याचार तो सदियों से समाज में होते आ रहे हैं। ऑंखों के सामने ! बिल्कुल अगल-बगल। शारीरिक , मानसिक और वाचिक हिंसा का तो अंत नहीं। कितनी घटनाएँ प्रकाश में आ पाती हैं ? घटना का विरोध करते हुए कब इस घटना के पक्ष में तर्क तलाश लिए जाते हैं, नहीं कहा जा सकता। विरोध के लिए खड़ा न्याय का पहरूआ कैमरा, टी वी के छोटे पर्दे पर जिस कहानी को बना रहा था उसके साथ चल रही पट्टियाँ उसका मुँह चिढ़ा रही थीं। यह जाहिर कर रही थीं कि हमारी कोशिश कैसे पितृसत्ताक विचारधारा की चालाकियों और जटिलताओं को न समझ पाने के कारण उन्हीं का शिकार हो जाती है। 'चीरहरण' शीर्षक से जो पट्टी इंडिया टीवी ने इस ख़बर के लिए चलाई वह पौराणिक संदर्भों से जुड़कर पितृसत्ता की ताक़त का ही बयान कर रही थी। विरोध और प्रतिकार के सारे प्रयत्न, 'पितृसत्तात्मकता अजेय है। इसके खिलाफ लड़ने की कोशिशें बेकार हैं। यह शाश्वत है। यही होता आया है यही होता रहेगा ' की धमक भरी चेतावनी के साथ संप्रेषित हो रहे थे।
यह घटना चार महीने पहले की है। 7 अगस्त 2010 को राष्ट्रीय महिला आयोग ने घटना के बारे में जानकारी मांगते हुए एक चिट्ठी भेजी है। इसकी अध्यक्षा गिरिजा व्यास ने सुओ मोटो कार्रवाई करते हुए दोषियों को सजा दिलाने और पीड़िता को तलाश कर सुरक्षा देने की बात की है। भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे दुर्भाग्यजनक घटना करार दिया है।
बात यहाँ पर सामाजिक संवेदना की है। स्त्री के प्रति कौन सा समाज संवेदनशील रहा है ? आज इक्कीसवीं सदी का? महाभारत काल का ? या आदिम-बर्बर युग का? आज 2010 में भी हिन्दुस्तान में कई भारत हैं ? किस भारत की संवेदना की बात करें? कहाँ से शुरू करें ? पढ़े-लिखे भारत की बात करें? वहाँ एक वी एन राय बसते हैं। जो हिन्दी लेखिकाओं के देह से जुड़े अनुभवों के बयान को छिनालवृत्ति कहते हैं , किशोरी लड़कियाँ जो उनके विश्वविद्यालय की छात्राएँ हैं को अपना भला-बुरा न समझनेवाली बताकर लड़कों के होस्टल में न जाने के अपने फरमान की वकालत करते हैं। यह मोरल पुलिसिंग का ही नमूना है। इसी तरह समाज के भले के लिए सोनभद्र की जागेश्वरी की जीभ डायन घोषित कर काट ली जाती है। बीरभूम की इस लड़की को प्रेम करने की सजा गाँव में नग्न परेड कराकर दी जाती है। वह 'अपराधिन ' है इसलिए दूसरों को उसके साथ अपराध करने की छूट मिल सकती है। टी वी के विजुअल्स में एक तीसेक साल का पुरूष दरिंदगी से हंसते हुए उस सहमी भागती हुई नग्न लड़की का रास्ता रोककर उसका बलात्कार करने की कोशिश कर रहा है ! किस समाज की संवेदना की बात करें हम ? वी एन राय के पक्ष में कुछ भी दलील दी जा सकती है- यह शब्द प्रतिबंधित नहीं है, प्रेमचंद ने भी इसका प्रयोग किया है, इसका अर्थ छिन्न-नाल है, टी वी और सिनेमा में खुले आम प्रयुक्त होता है, वी एन राय का अब तक का लिखा उनके इस कथन की तस्दीक नहीं करता, वी एन राय ने यह शब्द कहा ही नहीं, साक्षात्कार्रकत्ता या संपादक का दोष है, आदि आदि। लेकिन गौर करें कि यहाँ भी एक निर्णायक मण्डल है, एक पंचायत यहाँ भी बैठी है जो संपादक रवीन्द्र कालिया, साक्षात्कार लेनेवाला वाला राकेश मिश्र और साक्षात्कार देने वाले लेखक-वाइस चांसलर वी एन राय की है। एक से गलती हुई कि तीनों से गलती हुई -यह जरूर पूछा जाना चाहिए। वी एन राय ने क्षमा मांग ली है बाकि के दो का क्या ? क्या उन्हें अपनी गलती पर जरा भी शर्म नहीं?
हरियाणा की खाप पंचायतों की तरह हर गांव की अपनी पंचायतें हैं। देश का कानून क्या कर रहा है? सजा औरतों और बेबसों को ही क्यों दी जाती है। औरत को दी जानेवाली सजाओं में उसकी देह को ही निशाना क्यों बनाया जाता है। यह कैसा बर्बर समाज है ? असभ्यता की हद तक गर्त में जाने को तैयार ? धिक्कार है।
आश्चर्य है कि अधिकतर प्रिन्ट मीडिया और टी वी चैनलों में बीरभूम की यह खबर आज नहीं है। जनसत्ता के कलकत्ता संस्करण में भी यह ख़बर नहीं है। वह अख़बार जो स्त्री लेखिकाओं से जुड़े मुद्दे को इतनी शिद्दत के साथ उठा रहा है , इस मसले पर एक कॉलम की ख़बर नहीं देता। यह अच्छी बात है कि हमारी लेखकीय संवेदना इतनी प्रखर है कि 'छिनाल' शब्द के प्रयोग पर लेखक -लेखिकाएँ और अनेक समूह एकजुट हुए। मैं स्वंय मानव संसाधन विकास मंत्री से वृन्दा करात की अगुवाई में मिलने गईं लेखिकाओं के डेलीगेशन का हिस्सा थी। लेकिन यह सवाल है कि क्या इस तरह की फुटेज के आने के बाद लेखक -लेखिकाएँ ऐसे ही एकजुट होंगे ? क्या मंत्री, मुख्यमंत्री, पुलिस और अपराधियों के चेहरे सामने आने के बाद उनके इस्तीफे की मांग करेंगे ?
लेखकीय संवेदना खांचों में बंटी हुई नहीं होनी चाहिए। न ही इसकी अभिव्यक्ति चुनिंदा होनी चाहिए। मैं एक और उदाहरण सामाजिक संवेदनहीनता का दूँ। पिछले सात महीने से जी टी वी पर अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो धारावाहिक दिखाया जा रहा है। प्रसंगवश बता दूं कि यह नाम भी एक साहित्यिक कृति के नाम की पैरोडी है। इस धारावाहिक में प्रमुख पात्र को (अब उसकी प्रसंग से अनुपस्थिति में उसकी बहन को) लगातार 'रखैल' और हीनतामूलक शब्दों से संबोधित किया जा रहा है। कहानी में इस शब्द का वैधीकरण है। ताज्जुब है कि इस मुद्दे को लेकर प्रबुद्ध लेखक -लेखिकाएँ एक बार भी अंबिका सोनी से मिलने नहीं गए । हम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं ? हमारी जागरूकता लेखिकाओं के प्रति हो पर स्त्रियों के प्रति न हो यह कैसे हो सकता है ? लेखक -लेखिकाओं और मीडिया का यह एकांगी रूख विचलित करनेवाला है।
यह लगने लगता है कि यदि यह वीडियो फुटेज न होते तो ये लोग शायद इस तरह की किसी घटना से ही इंकार करते या फिर इसे अनदेखा करते। सच है दृश्य फर्क़ पैदा करता है। इंडिया टी वी ने साहस दिखाया है।
लेकिन स्त्री पर किए गए इस तरह के अत्याचार तो सदियों से समाज में होते आ रहे हैं। ऑंखों के सामने ! बिल्कुल अगल-बगल। शारीरिक , मानसिक और वाचिक हिंसा का तो अंत नहीं। कितनी घटनाएँ प्रकाश में आ पाती हैं ? घटना का विरोध करते हुए कब इस घटना के पक्ष में तर्क तलाश लिए जाते हैं, नहीं कहा जा सकता। विरोध के लिए खड़ा न्याय का पहरूआ कैमरा, टी वी के छोटे पर्दे पर जिस कहानी को बना रहा था उसके साथ चल रही पट्टियाँ उसका मुँह चिढ़ा रही थीं। यह जाहिर कर रही थीं कि हमारी कोशिश कैसे पितृसत्ताक विचारधारा की चालाकियों और जटिलताओं को न समझ पाने के कारण उन्हीं का शिकार हो जाती है। 'चीरहरण' शीर्षक से जो पट्टी इंडिया टीवी ने इस ख़बर के लिए चलाई वह पौराणिक संदर्भों से जुड़कर पितृसत्ता की ताक़त का ही बयान कर रही थी। विरोध और प्रतिकार के सारे प्रयत्न, 'पितृसत्तात्मकता अजेय है। इसके खिलाफ लड़ने की कोशिशें बेकार हैं। यह शाश्वत है। यही होता आया है यही होता रहेगा ' की धमक भरी चेतावनी के साथ संप्रेषित हो रहे थे।
यह घटना चार महीने पहले की है। 7 अगस्त 2010 को राष्ट्रीय महिला आयोग ने घटना के बारे में जानकारी मांगते हुए एक चिट्ठी भेजी है। इसकी अध्यक्षा गिरिजा व्यास ने सुओ मोटो कार्रवाई करते हुए दोषियों को सजा दिलाने और पीड़िता को तलाश कर सुरक्षा देने की बात की है। भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे दुर्भाग्यजनक घटना करार दिया है।
बात यहाँ पर सामाजिक संवेदना की है। स्त्री के प्रति कौन सा समाज संवेदनशील रहा है ? आज इक्कीसवीं सदी का? महाभारत काल का ? या आदिम-बर्बर युग का? आज 2010 में भी हिन्दुस्तान में कई भारत हैं ? किस भारत की संवेदना की बात करें? कहाँ से शुरू करें ? पढ़े-लिखे भारत की बात करें? वहाँ एक वी एन राय बसते हैं। जो हिन्दी लेखिकाओं के देह से जुड़े अनुभवों के बयान को छिनालवृत्ति कहते हैं , किशोरी लड़कियाँ जो उनके विश्वविद्यालय की छात्राएँ हैं को अपना भला-बुरा न समझनेवाली बताकर लड़कों के होस्टल में न जाने के अपने फरमान की वकालत करते हैं। यह मोरल पुलिसिंग का ही नमूना है। इसी तरह समाज के भले के लिए सोनभद्र की जागेश्वरी की जीभ डायन घोषित कर काट ली जाती है। बीरभूम की इस लड़की को प्रेम करने की सजा गाँव में नग्न परेड कराकर दी जाती है। वह 'अपराधिन ' है इसलिए दूसरों को उसके साथ अपराध करने की छूट मिल सकती है। टी वी के विजुअल्स में एक तीसेक साल का पुरूष दरिंदगी से हंसते हुए उस सहमी भागती हुई नग्न लड़की का रास्ता रोककर उसका बलात्कार करने की कोशिश कर रहा है ! किस समाज की संवेदना की बात करें हम ? वी एन राय के पक्ष में कुछ भी दलील दी जा सकती है- यह शब्द प्रतिबंधित नहीं है, प्रेमचंद ने भी इसका प्रयोग किया है, इसका अर्थ छिन्न-नाल है, टी वी और सिनेमा में खुले आम प्रयुक्त होता है, वी एन राय का अब तक का लिखा उनके इस कथन की तस्दीक नहीं करता, वी एन राय ने यह शब्द कहा ही नहीं, साक्षात्कार्रकत्ता या संपादक का दोष है, आदि आदि। लेकिन गौर करें कि यहाँ भी एक निर्णायक मण्डल है, एक पंचायत यहाँ भी बैठी है जो संपादक रवीन्द्र कालिया, साक्षात्कार लेनेवाला वाला राकेश मिश्र और साक्षात्कार देने वाले लेखक-वाइस चांसलर वी एन राय की है। एक से गलती हुई कि तीनों से गलती हुई -यह जरूर पूछा जाना चाहिए। वी एन राय ने क्षमा मांग ली है बाकि के दो का क्या ? क्या उन्हें अपनी गलती पर जरा भी शर्म नहीं?
हरियाणा की खाप पंचायतों की तरह हर गांव की अपनी पंचायतें हैं। देश का कानून क्या कर रहा है? सजा औरतों और बेबसों को ही क्यों दी जाती है। औरत को दी जानेवाली सजाओं में उसकी देह को ही निशाना क्यों बनाया जाता है। यह कैसा बर्बर समाज है ? असभ्यता की हद तक गर्त में जाने को तैयार ? धिक्कार है।
आश्चर्य है कि अधिकतर प्रिन्ट मीडिया और टी वी चैनलों में बीरभूम की यह खबर आज नहीं है। जनसत्ता के कलकत्ता संस्करण में भी यह ख़बर नहीं है। वह अख़बार जो स्त्री लेखिकाओं से जुड़े मुद्दे को इतनी शिद्दत के साथ उठा रहा है , इस मसले पर एक कॉलम की ख़बर नहीं देता। यह अच्छी बात है कि हमारी लेखकीय संवेदना इतनी प्रखर है कि 'छिनाल' शब्द के प्रयोग पर लेखक -लेखिकाएँ और अनेक समूह एकजुट हुए। मैं स्वंय मानव संसाधन विकास मंत्री से वृन्दा करात की अगुवाई में मिलने गईं लेखिकाओं के डेलीगेशन का हिस्सा थी। लेकिन यह सवाल है कि क्या इस तरह की फुटेज के आने के बाद लेखक -लेखिकाएँ ऐसे ही एकजुट होंगे ? क्या मंत्री, मुख्यमंत्री, पुलिस और अपराधियों के चेहरे सामने आने के बाद उनके इस्तीफे की मांग करेंगे ?
लेखकीय संवेदना खांचों में बंटी हुई नहीं होनी चाहिए। न ही इसकी अभिव्यक्ति चुनिंदा होनी चाहिए। मैं एक और उदाहरण सामाजिक संवेदनहीनता का दूँ। पिछले सात महीने से जी टी वी पर अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो धारावाहिक दिखाया जा रहा है। प्रसंगवश बता दूं कि यह नाम भी एक साहित्यिक कृति के नाम की पैरोडी है। इस धारावाहिक में प्रमुख पात्र को (अब उसकी प्रसंग से अनुपस्थिति में उसकी बहन को) लगातार 'रखैल' और हीनतामूलक शब्दों से संबोधित किया जा रहा है। कहानी में इस शब्द का वैधीकरण है। ताज्जुब है कि इस मुद्दे को लेकर प्रबुद्ध लेखक -लेखिकाएँ एक बार भी अंबिका सोनी से मिलने नहीं गए । हम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं ? हमारी जागरूकता लेखिकाओं के प्रति हो पर स्त्रियों के प्रति न हो यह कैसे हो सकता है ? लेखक -लेखिकाओं और मीडिया का यह एकांगी रूख विचलित करनेवाला है।
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...सहमत.